कोई न्यायनिष्ठ पिता अपनी सभी संतानों को समान दृष्टि से देखता और उन सबके लिए प्रायः समान स्तर के सामान जुटाता है। औचित्य इसी में है। कर्तव्य-परायण होने का दावा करने वाले मनुष्यों को भी प्रायः ऐसा ही आचरण करते देखा जाता है। सन्तानों के बीच भेदभाव और पक्षपात करने वाले अभिभावकों की न केवल सन्तानों द्वारा वरन् देखने, सुनने वालों तक से इस कुकृत्य की भर्त्सना करते देखा जाता है। लड़के लड़की में भेद बरतने वालों के प्रति भी अब आक्रोश उभर रहा है और पक्षपात बरतने वालों को लेने के देने पड़ रहे हैं।
यदि इस चर्चा को थोड़ा और बढ़ाया जाय व समष्टि स्तर पर दार्शनिक विवेचना पर लागू किया जाय तो परमेश्वर की रीति-नीति के संबंध में यही तथ्य लागू होता देखा जा सकता है। आलोचक कह सकते हैं कि उसने कोटि-कोटि प्राणियों से भरी हुई इस विश्व वसुँधरा में मात्र मनुष्य को ही विशेष प्रकार की समुन्नत स्तर की विभूतियाँ क्यों प्रदान कीं? जबकि सृष्टि के अन्य प्राणी उन सुविधाओं से प्रायः वंचित ही रह गए हैं। ऐसे लचकदार हाथ पैरों की असाधारण संरचना वाला सर्वांग सुन्दर, खड़े होकर चलने वाला और अगणित प्रकार के असाधारण स्तर के कला-कौशलों को सम्पन्न करने वाला शरीर और किसका है? इसकी खोजबीन करने पर एक ही निष्कर्ष निकलता है कि मनुष्य के अतिरिक्त और कोई जीवधारी इस स्तर का सृजा ही नहीं गया।
काय कलेवर की परत उघाड़कर कुछ गहराई तक उतरने पर प्रतीत होता है कि मात्र शरीर ही विलक्षण नहीं वरन् उसकी भीतरी परत में एक विलक्षण स्तर का मनः संस्थान भी है। खोपड़ी की कड़ी चहारदीवारी के भीतर उसका निवास होने से आँखों द्वारा उसे प्रत्यक्ष देखा तो नहीं जा सकता परन्तु उसकी चिन्तनपरक क्षमताओं को देखते हुए प्रतीत होता है कि यह जादुई पिटारे से कम आश्चर्यजनक किसी प्रकार है नहीं। कल्पना, विचारणा, निर्धारणा, भाव संवेदना, मान्यता, आस्था जैसी अगणित परतें इस पिटारी के भीतर विद्यमान हैं। यदि वे प्रसुप्त मूर्च्छित स्थिति में पड़ी रहें तो बात दूसरी है अन्यथा यदि उन्हें तनिक भी समुन्नत स्तर तक उठने का अवसर मिल जाय तो मनुष्य अनगिनत सफलताएँ अर्जित करने वाला सिद्ध पुरुष बन सकता है।
मनुष्यों में ही जब कुछ इस संस्थान को और अधिक विकसित कर लेते हैं, अपनी क्षमताएँ उभार लेते हैं तो वे ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी कहलाते हैं। ज्ञान और विज्ञान से संबंधित अनेकानेक विशेषताएँ उभर पड़ती है मनीषियों, दिव्यदर्शियों जैसी उच्चस्तरीय भूमिका निभाते उन्हें देखा जाता है। इंजीनियर, डॉक्टर, आर्किटेक्ट, योजनाकार, कलाकार स्तर की विशेषताओं से सम्पन्न तो मस्तिष्क को तनिक सा विकसित कर लेने मात्र से बना जा सकता है।
प्रश्न यह उठता है कि ऐसे ही सुविधा सम्पन्न शरीर और मस्तिष्क अन्यान्य प्राणियों को क्यों नहीं मिले? यदि सृष्टा को समदर्शी और न्यायनिष्ठ कहा जाता है तो उसने ऐसी अनीति क्यों बरती कि एक ही प्राणी को सृष्टि का मुकुट मणि बन सकने जैसी सुविधाएँ प्रदान कर दीं और अन्य सभी को अनगढ़ स्थिति में समय गुजारने जैसे तुच्छ स्तर के कलेवर देकर बहका भगा भर दिया गया? क्या यही ईश्वर का न्याय है?
मोटी दृष्टि से विचार करने पर ऐसे अनेकों प्रश्न उठ खड़े होते हैं, जिनके कारण सृष्टा में इतनी भर न्याय निष्ठा नहीं दीख पड़ती, जितनी कि सामान्य लोगों में अपनी संतानों के बीच निष्पक्ष व्यवहार के रूप में देखी जाती है। नैतिकता, नीति निष्ठ गँवा बैठने पर तो कोई सत्ता ऐसी भी नहीं रह जाती जिसके प्रति श्रद्धा उपजे, जिसकी भक्ति करने के लिए विचार बने, जिसकी पूजा-अभ्यर्थना करने के लिए अन्तःकरण हुलसित हो?
समर्थता ही तो सब कुछ नहीं है। अतीव शक्ति सम्पन्न महादैत्यों तक की नमन वन्दन की बात आने पर जब प्रचण्ड दमन सामने होते हुए भी मनुष्य ने डटकर सामना किया व कभी सिर नहीं झुकाया तो फिर ईश्वर का सर्व शक्तिमान होना भी वह निमित्त कारण नहीं बन सकता, उसके लिए उसे उपास्य या आराध्य ठहराया जा सके। मनुष्य का अपना भी तो विवेक है। उसने स्वयं भले ही अनीति बरती हो पर समर्थों के अन्याय को तो उसने बिना प्रबल विरोध किए नहीं छोड़ा। लगता है, फिर ईश्वर ही उस आक्रोश से क्यों कर बच सकेगा?
बात जरा भी आगे बढ़े, तो सोचना पड़ता है कि जो मनुष्य अतिरिक्त रूप में उपलब्ध हुई विभूतियों का पग-पग पर दुरुपयोग करने के लिए उतारू रहता है, छल-प्रपंच अनाचार-शोषण-उत्पीड़न जैसे कुकर्मी का ताना बाना बुनता रहता है, उसी को भगवान ने यह छूट कैसे दे दी कि जैसे वह अन्यान्यों को बहकाकर अपना उल्लू सीधा करता रहता है, वही कुचक्र पूजा-पाठ का रूप बनाकर ईश्वर को वशवर्ती बनाने के लिए भी रच सकता है। वैसे ही लाभ वरदान रूप में पा सकता है जैसे कि पालतू पशुओं को बंधनों में जकड़ कर मन चाहा लाभ उठाया जाता है। ईश्वर इतना भोला कैसे कब बन गया? उपासना कराने की ललक उस पर ऐसी कैसी चढ़ बैठी कि तनिक से उपहार एवं चाटुकारों द्वारा की जाती रहने वाली मनुहार के पीछे छिपे छद्म को भी वह नहीं समझ सका? पूजा अर्चा करने वालों के प्रपंच में फँस कर कैसे उन पर वरदान बरसाने लगा? कैसे उन्हें भक्तजन मानकर पापों के परिणामों से छुड़ा देने का आश्वासन देने लगा? इन विडम्बनाओं से विमोहित होकर क्यों उसने इन छद्म वेशधारियों के लिए स्वर्ग-मुक्ति के द्वार खोल दिए? प्रतिमा पूजन भर को कैसे वह अपनी भक्ति समझने लगा? विडम्बनाओं और प्रवंचनाओं के बिखरे जंजाल को क्यों उसने सच्ची भक्ति जैसा कुछ समझ लिया?
ऊपर वर्णित आरोप वजनदार हैं। यदि धर्मराज की अदालत में ईश्वर पर ये मुकदमें चलाए जा सकें तो विश्व व्यवस्था का दावेदार बनने वाले नियन्ता पर इन अभियोगियों को तर्क और तथ्य का आधार बनाने वाला वकील इस प्रकार इल्जाम सिद्ध कर सकता है कि अभियोग की यथार्थता प्रमाणित हो सके और भगवान को अभियुक्त के कटघरे में खड़ा होना पड़े।
वकील के लिए, तार्किक के लिए क्या कुछ संभव नहीं। आस्तिकता या नास्तिकता जिसके समर्थन में चाहें उनसे बहस करवा सकते हैं। यहाँ यह विवेचन किया जाना जरूरी है कि क्या उपरोक्त टिप्पणियों को नास्तिक की बकवास मात्र मानकर छोड़ दिया जाय या इन आरोपों को नकारने का प्रयास किया जाय। चलिए ईश्वर पर और आरोप न लगाकर अब उसकी वकालत की जाय।
जहाँ मोटी दृष्टि से यह कथन सही है कि मनुष्य की शक्ति समस्त चेतन शक्तियों में सबसे अधिक बलवती है एवं उसने सभी अन्य शक्तियों को इसी बूते अपने वश में किया है, वहाँ यह भी देखा जाना चाहिए कि मनुष्य समस्त जीव जन्तुओं के समक्ष तुच्छ एवं नगण्य सामर्थ्य वाला जीव मात्र है। मनुष्य ने शेर को वश में किया है, हाथी पर अंकुश लगा कर सवारी की है, यह सही है किन्तु बलिष्ठता की दृष्टि से सैंकड़ों जन्तु उससे अधिक बलवान हैं। यह बात अलग है कि वे धूर्त्त नहीं है, इसलिए मनुष्य पर शासन नहीं कर पाते। मानवी इन्द्रियों की शक्ति भी अल्प ही है। न तो आँखों से वह मीलों दूर तक देख ही सकता है, न चीतों, हिरनों के समान अपने पैरों से भाग सकता है। न हाथी के बराबर बोझ ही ढो सकता हैं। आँखों से अनगनित आकृतियाँ व रंग ऐसे हैं जो उसे नहीं दिखाई देते और जीवों को दिखाई देते हैं। सैंकड़ों प्रकार की श्रवणातीत ध्वनियाँ उसे सुनाई नहीं देती। घ्राण शक्ति की सामर्थ्य उसकी नगण्य मात्र है, जबकि इसके सहारे अन्य जीव न केवल अपनी रक्षा करते हैं, मनुष्य की भी करते देखे जाते हैं।
जिस ज्ञान पर मनुष्य को इतना अभिमान है कि वह बलिष्ठ से बलिष्ठ प्राणियों को दास बना सकता है और दूर से दूर अपनी शक्तियों का प्रभाव पहुँचा सकता है, वह ज्ञान भी उसका इतना अल्प है कि न मनुष्य को सर्वज्ञ कह सकते हैं, न बहुज। जो बात वह जानना चाहता है, उससे कहीं अधिक इस जगत में ऐसा है जिसे जानना शेष है। उपनिषद्कार ने इसी बात को बड़े अच्छे ढंग से कहा है- “अविज्ञातं विजानताँ विज्ञातमविजानताम” अर्थात् “बुद्धिमानों के लिए वह अज्ञात है और मूर्खों के लिए ज्ञात” मूर्ख ही सर्वाधिक यह ढिंढोरा पीटते देखे जाते हैं कि संसार की तीन चौथाई बुद्धि उनके पास है शेष एक चौथाई में संसार बँटा हुआ है न्यूटन कहते थे ज्ञान का अपार सागर मेरे सामने बह रहा है किन्तु मैं उसके तट पर बैठा कुछ कंकड़ मात्र चुन रहा हूँ बात वस्तुतः यही सही है।
पराक्रम कलाकारिता की दृष्टि से देखें तो जो विभूतियाँ जीव जन्तुओं को मिली हैं, वह मनुष्य के पास स्वल्प मात्रा में भी नहीं है। बर्र जैसी काटने वाली मक्खी का छत्ता हो या मधु मक्खी का, बया का घोंसला हो या दीमकों की बाँबी सब कुछ इतनी सुव्यवस्थित हैं कि इनकी बनाई सभी नकलों से मनुष्य कितनी ही तारीफ प्राप्त कर ले, वह उसकी मौलिक रचना नहीं कही जा सकती। कहीं से भी तो यह सिद्ध नहीं होता कि सृष्टा के यहाँ अन्याय है। यदि उसने मनुष्य को कुछ दिया है तो दूसरी ओर अन्यान्य जीव जन्तुओं, छोटे-छोटे जीवाणुओं से लेकर सभी सचेतन जीवधारियों को किन्हीं न किन्हीं विशेषताओं से अलंकृत किया है। दूसरी ओर मनुष्यों में से अनगनित यह कहा जाय कि निन्यानवे फीसदी ऐसे हैं जो प्राप्त वैभव की जानकारी के अभाव में सामान्य जीवन जीते व ईश्वर ही नहीं अन्य जीवधारियों की दृष्टि में भी उपहास के पात्र बनते देखे जाते हैं। शिश्नोदर प्रधान जीवन मात्र पेट और प्रजनन के लिए जीवन जीना तो अधिकाँश मानव तन धारियों को आता है पर इससे आगे की बहुत कम को सूझ पाती है। बहुत कम ऐसे होते हैं जो प्रसुप्त को उभार कर अतिमानवीय अतीन्द्रिय क्षमताओं द्वारा आत्मसत्ता को निहाल सकें। यह आत्मबोध के अभाव, अल्पज्ञता, तथा कषाय−कल्मषों के आवरण से मुक्ति न पा सकने की विडम्बना की फलश्रुति मात्र है।
ज्ञान हमेशा अपूर्ण है, वह वैसा ही रहेगा। वह मनुष्य को सतत चुनौती देता रहता है कि अभी तो सृष्टि में बहुत कुछ अविज्ञात है, वह अपना पुरुषार्थ जारी रखें इस तरह यह अभिमान करना व कहना कि मानव बहुज्ञ है व पक्षपातपूर्वक उसे ज्येष्ठ बनाया गया है, निताँत भ्रामक प्रचार है।
दूसरी ओर भगवान पर यह आरोप लगता है कि वह मनुष्य को जो कुछ चाहे करने की छूट देता रहता है, यहाँ तक कि पूजापाठ द्वारा स्वयं भी मनुष्य वशवर्ती बन जाता है, तनिक सी मनुहार से प्रसन्न हो जाता है। वस्तुतः ईश्वरीय सत्ता जो भी कुछ है, जहाँ पर भी है, एक अनुशासित विधि व्यवस्था के रूप में विद्यमान है। जितनी नास्तिकता ईश्वर के नाम पर चित्र विचित्र कृत्य करने वालों ने आडम्बरों आदि के माध्यम से इस जगती पर फैलाई है, उतनी तो प्रच्छन्न नास्तिकों ने भी नहीं फैलाई। सृष्टा एक नियम है, नियामक तंत्र का पर्यायवाची है तथा यहाँ जो जैसा बोता है, वैसा ही काटता है, यह एक सुनिश्चित सिद्धान्त है। न्यूटन का तीसरा नियम यहाँ पूरी सत्यता से लागू होता है कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। इस तरह ईश्वर चाटुकारिता से नहीं मात्र श्रेष्ठ कार्यों से प्रसन्न होता है। वह स्वयं सत्प्रवृत्तियों का, श्रेष्ठता का, आदर्शों, का, सद्गुणों का समुच्चय है। वह भला छिटपुट मूर्ख बनाने वाली हरकतों से प्रभावित कैसे होगा?
पूजा अर्चा की भूमिका अपनी जगह है पर वह न कर जो मानव मात्र के कल्याण के लिए पुरुषार्थरत रहते हैं, वे दैवी अनुग्रह व लोक सम्मान पाते हैं, वह