परमार्थ सार्थक कैसे बने?

July 1991

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व्रत, उपवास, दर्शन-झाँकी, तीर्थ-यात्रा, कथा कीर्तन में निजी जीवन का बहुत सारा समय चला जाता है। उसमें कटौती करके स्वाध्याय एवं आत्म-चिन्तन के लिए समय लगाया जाय तो वह कहीं अधिक उत्तम है। भगवान को रिझाने की अपेक्षा आत्मिक सुधार में समय लगाना कहीं अधिक श्रेयस्कर है।

बहुत कमाने की और बहुत खर्च करने की सनक को उतार करके निजी तथा पारिवारिक कार्य क्षेत्र को सीमित करना स्वावलंबी बनने का मार्ग खोजना अधिक बुद्धिमत्ता पूर्ण है। सादा जीवन उच्च विचार की देव प्रक्रिया का निर्वाह इसी प्रकार हो सकता है कि हम औसत भारतीय स्तर की कसौटी पर अपने को निरन्तर कसते रहें और घरेलू कामों में उतना ही श्रम, समय मनोयोग लगावें, जितना औचित्य की दृष्टि से नितान्त आवश्यक है। निजी जीवन को इतना बोझिल तो नहीं ही बनाना चाहिए, जिसका भार-वहन करने में कचूमर निकलने लगे।

हलके-फुलके जीवन में मितव्ययिता की नीति अपनायी जाती है। उस बचत का श्रेष्ठतम सदुपयोग करने की बात सोचने में ही बुद्धिमत्ता है। अन्यथा बेकार बचा हुआ समय आलस्य प्रमाद में दुष्प्रवृत्तियों और दुर्व्यसनों को अपनाने में खर्च होने लगेगा, जैसा कि धर्म व्यवसायियों और प्रमादियों के सामने कोई ऊँचा उद्देश्य न रहने पर वे विडम्बनाओं में स्वयं उलझते और दूसरों को उलझाते देखे गये हैं।

हमें पारिवारिक उत्तरदायित्वों का परित्याग करने और अन्यत्र कुटी बनाने की अपेक्षा घर को ही तपोवन जैसा, संत आश्रम जैसा, गुरुकुल जैसा बनाना चाहिए, जिसमें सदस्यों की शरीर की निर्वाहचर्या चलती रहे और साथ ही उस पुण्य परमार्थ का प्रवाह भी बहता रहे, जो गंगा-गोमुख से निकल कर सुदूर क्षेत्रों को हरा भरा बनाने की दृष्टि से परम पूज्य मानी जाती है। जब उपयोगी जल-प्रवाह को गंगा यमुना जैसा देव-स्तर का माना जा सकता है तो कोई कारण नहीं कि सत्यप्रवृत्तियों में संलग्न देव समुदाय को उच्च लोकवासी सदस्य न माना जाय और उसे असंख्य की अन्तरात्मा में भरपूर श्रद्धा सम्मान न मिलने लगे।

कुछ ही लोग अपने देश में ऐसे हैं, जो धन दान दे सकते हैं। जो हैं, वे भी आधे बन्दर, आधे कबूतर हैं क्योंकि अनुचित मात्रा में लाभ कमाने और उसका उपयोग गुलछर्रे उड़ाने में मनुष्य बन्दर ही बनता है। जो अधिक कमाता है, उसे समय की पुकार को ध्यान में रखते हुए पिछड़े लोगों के लिए उदारतापूर्वक खर्च करते रहने पर कोई व्यक्ति धन कुबेर नहीं बन सकता और जब वैसी मनःस्थिति न हो, तो निर्वाह से


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