एक गृहस्थ ने परिवार को छोड़ कर विरक्त का बाना धारण किया। परिवार को उनके भाग्य पर छोड़ दिया। करम सिंह से कर्मानंद बन गये। उनने दूर दूर की तीर्थ यात्राएँ की और साधुओं की मण्डलियों में सम्मिलित रहे। ज्ञान चर्चा सुनने में भी किसी से पीछे न रहे इतने पर भी विरक्त कर्म का क्रियाकलाप देखकर उन्हें तनिक भी संतोष न हुआ। भिक्षा माँग कर पेट भरना और भजन के नाम पर चित्र विचित्र नाटक रचते रहना उन्हें तनिक भी न सुहाया। वे सोचने लगे कि इससे अच्छी सेवा और भक्ति तो घर रह कर भी हो सकती है।
वे घर लौट गये। भगवा वस्त्र छोड़ कर सादा कपड़े पहनने लगे। खेत पर कुटी बना ली और वहाँ एक प्रकार का सत्संग विद्यालय बना दिया। दिन भर सभी वर्ग के लोग वहाँ पहुँचते और अपने अपने योज्य आवश्यक समाधान पर प्रकाश प्राप्त करते। गृहस्थ रहने पर भी स्वामी जी ही कहलाते रहे। उनने समीपवर्ती क्षेत्र में जनसंपर्क बनाया। अनेकों रचनात्मक प्रवृत्तियों को जन्म दिया। अब वे सच्चे अर्थों में कर्मानन्द थे। पूर्व परिचित लोग उन्हें करम सिंह ही कहते थे।
जहाँ तक पुण्य परमार्थ के सम्बन्ध में, वहाँ जनमानस का परिष्कार ही एक ऐसा है जिसे सर्वोपरि महत्व का समझा जा सकता है। जहाँ यह बन पड़ेगा वहाँ किसी को किसी प्रकार का अभाव या त्रास न सहना पड़ेगा। हमें अपनी जीवनचर्या इसी आधार पर बनाकर अपनी दूरदर्शी विवेकशीलता का परिचय देना चाहिए।