युग की माँग (Kahani)

July 1991

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ईश्वरचंद विद्यासागर ने बड़ी कठिनाईयों में रहते हुए विद्याध्ययन किया था। उन्हें अन्य निर्धन छात्रों की कठिनाइयों का भी ध्यान सदा बना रहा। उनकी सहायता के लिए सदा प्रयत्नशील रहे।

उन्हें 500/- रुपये मासिक वेतन मिलता था। उसमें से मात्र 50/- में अपना परिवार खर्च चलाते और शेष पैसे निर्धन छात्रों की सहायता के लिए खर्च करते रहते। वे विद्यासागर लिखे और करुणा सागर कहे जाते थे।

अनुवाद के साथ ताओ धर्म के आलोक में भगवान बुद्ध की शिक्षाओं के प्रसार हेतु मौलिक ग्रन्थ रचे।

इसी बीच बुद्धियश भी अपने मित्र के पास आ पहुँचे। अब तो एक से दो हो गए। दोनों मित्रों ने मिलकर अनेकों सहयोगी तैयार किये। अब तक उनके कार्य का आदर किया जाने लगा था। राज्य की ओर से अनेकों सुविधाएँ भी दी गई पर उन्होंने उनका तिल भर भी उपयोग नहीं किया और भगवान तथागत के आदर्शों के अनुरूप सरल सादा जीवन जीते रहे। जीवन के अंतिम क्षणों तक वह क्रियाशील रहे। उनका एक ही संदेश था जीवन विद्या में निष्णात ही विद्या प्रसार कर सकते हैं। उनके इस संदेश को सुन अनेकों सचल प्रकाश दीप बने। अनेकों बुझे हुए दीपों को जलाने के लिए यही परम्परा आज फिर जाग्रत जीवन्त हो, यही युग की माँग है।


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