ओह! यह दुरावस्था देवों के लिए दुर्लभ मनुष्य जीवन पाकर पशुओं से भी गया बीता आचरण। इन शब्दों के साथ उनके चेहरे पर आश्चर्य, क्रोध, घृणा के मिले-जुले भाव तैर गए। उन्होंने एक जलती दृष्टि सामने खड़े व्यक्ति पर डाली जो सहमा सिकुड़ा खड़ा था। सभासद महाराज के भाव परिवर्तन को देख रहे थे। सबकी झुँझलाहट का केन्द्र यही साँवले रंग का ठिगनी कद-काठी वाला आदमी था। उसकी गोल-मटोल, काइयाँपन लिए कंजी आँखों में आशंका उभरने लगी थी। दण्ड का भय किसे नहीं कँपाता? लेकिन उसने किया भी तो कुछ ऐसा ही था अनुज वधु के साथ कुकर्म च्च च्च अनेकों होठों के साथ निकली इस ध्वनि ने उसके ऊपर घृणा की बौछार की।
महाराज को राजसिंहासन पर आसीन हुए अभी कुछ ही समय बीता था। उनके गौरवशाली पितामह पाँच पाण्डव महारानी द्रौपदी के साथ हिमालय की ओर चले गए थे। जाते समय अपने सारे उत्तराधिकार उन्हें सौंपते हुए कहा था परीक्षित! भरत वंश के गौरव की रक्षा का भार अब तुम्हीं पर है। हृषीकेश ने पंचभौतिक कलेवर भले त्याग दिया हो। पर वे अन्तर्यामी के रूप में प्रत्येक हृदय में विद्यमान हैं। अपनी ओर उन्मुख होने वाले प्रत्येक को ये प्रेरणा मार्गदर्शन प्रदान करते रहते हैं। गाण्डीव धन्वा के इन स्वरों के साथ उन चक्रपाणि की याद हो आयी। जन्मते ही उन्हें पहचानने के कारण तो वे परीक्षित कहलाए थे। तब से अब तक सौंपे गए गुरुतर दायित्व को पूरी सामर्थ्य के साथ निभाते आए थे। स्वयं के आचरण को आदर्श रूप में प्रस्तुत कर जन-जीवन को सन्मार्ग पर चलाना। जनता भी उन्हें अपने पालक पिता के रूप में जानती थी। सर्व- शान्ति-सौजन्य था और उत्कृष्ट चिन्तन उत्कृष्ट आचरण से भरा-पूरा जीवन। लेकिन आज.....।
उन्होंने अपना खिन्न मुख ऊपर उठाया। उन्हें समझ में नहीं आ रहा था इस दुराचारी को क्या दण्ड दें? दण्ड समस्या का समाधान तो नहीं है। वे शास्त्रज्ञ, नीतिज्ञ थे। श्रुति के पारदर्शी ज्ञाता, आचार्य शुकदेव से उन्होंने मानवीय व्यक्तित्व की जटिलताओं, दुरुहताओं को जाना था। अनेकानेक कल्पनाओं में डूबता-उतरता मन तिकड़म भिड़ाती उलझनों को बटोरती फिरती बुद्धि, अनेकों जनों के संस्कारों, आदतों से भरा चित्त प्रकृति की ओर बलात् खींचती अहंकार की गठीली रस्सी...... इतनी जटिलताओं में बँधा फिरने वाला मनुष्य कब क्या कर गुजरेगा कुछ भरोसा नहीं। जलधारा निम्नगामी सहज है, उर्ध्वगामी होने के लिए विशेष शक्ति चाहिए। जीवन भी उर्ध्वगामी बनने के लिए साधना, स्वाध्याय, तप की शक्तियाँ चाहता है। उन्होंने इसकी व्यवस्थाएँ जुटाई थी। नागरिक ऊर्ध्वमुखी जीवन-यापन करें, सतत जागरुक थे इसके लिए वह चिन्तन के तरंग वलय-भावों के उतार चढ़ाव के रूप में मुख मण्डल पर प्रकट हो रहे थे।
इन्हें पढ़ते हुए ऋषि वाजिश्रवा बोले “धरती पर कलि का प्रवेश हो चुका है राजन अब ऐसे आचरण आश्चर्य की वस्तु नहीं रहेंगे।” ऋषि के कथन पर महाराज एक क्षण के लिए चौंके उनके प्रशस्त ललाट की रेखाएँ और गहरी हुई ‘कलि का प्रवेश’ आश्चर्य से दुहराया। कलि का प्रवेश सभासदों के होंठ बुदबुदाये। अपराधी सिर नीचे किए खड़ा था। उसके लिए यह चर्चा व्यर्थ थी। कान में जबरन घुस पड़े शब्दों से उसे ऐसा लगा कि कलि नाम के किसी नए अपराधी की चर्चा हो रही है। उसके बढ़े-चढ़े अपराधिक कारनामे महाराज और राजसभा को चिंतित कर रहे हैं।
‘कलि’ परीक्षित ने इसके बारे में ऋषियों, मुनियों, आचार्यों से सुन रखा था। इसके विनाशकारी दारुण प्रभावों की चर्चा उनके कानों में पड़ी थी। लेकिन यह उन्हीं के राज्यकाल में, वह भी इतनी जल्दी घुस पड़ेगा यह नहीं मालूम था। विषय ने बरबस उनके ध्यान को अपनी ओर खींच लिया। उन्होंने प्रधान अमात्य से कुछ मंत्रणा की। संकेत से दण्डाधिकारी को बुलाया और उस व्यक्ति के बारे में दण्ड निर्धारित कर उसे ले जाने का इशारा किया। अपराधी चला गया। कुछ आवश्यक मंत्रणाओं के बाद सभा विसर्जित की गई।
पर अपराध की सृष्टि करने वाला कलि! महाराज अनमने मन से सायंकालीन भ्रमण के लिए निकले थे। उनके पीछे प्रधान सेनापति विरुपाक्ष भी थे। अभी वे नगर से बाहर निकल कर एक वन प्रान्त की ओर बढ़े ही थे, कि एक पेड़ों के झुरमुट के पास एक गाय और बैल खड़े देखे। गाय का शरीर ऐसा था मानो हड्डियों के ढांचे पर जैसे-तैसे खाल चिपटा दी गई हो। वह भी पूरी न हो पाने कारण यहाँ वहाँ नुच गई थी। उसकी गड्ढ़े जैसी आँखों से आँसू की धार झर रही थी। अपनी पीठ पर हुए घावों पर बैठ रही मक्खियों को यदा-कदा अपनी पूँछ से हटाने का असफल प्रयास कर लेती। बैल की दशा और बुरी थी। चारों पैरों में सिर्फ एक सलामत बचा था-तीन टूटे थे दोनों एक दूसरे की ओर कातर दृष्टि से देखते करुण रव में रंभा रहे थे। निरीह पशुओं की यह बुरी दशा-सुबह की घटना से खिन्न महाराज का चित्त और भी खिन्न हो गया। मन ही मन संकल्प किया, इनको इस बुरी दशा में पहुँचाने वाले का वध किये बिना न रहेंगे।
सोचते हुए कंधे का धनुष ठीक किया और उनकी ओर बढ़े। संयोग से वह एक ऋषि के आशीर्वाद से पशुओं की भाषा को समझ सकते थे। पास जाकर सुना, गाय बैल से पूछ रही थी वृषभ देव! आपके तीन पावों को क्या हुआ?
बैल ने कहा कल्याणी अब कलयुग का आगमन हो चुका है। आते ही उसने मेरे तीनों पैर तोड़ दिये। लगता है चौथा भी ज्यादा दिन सकुशल नहीं रह पायेगा। क्यों आर्य आखिर कलि जो है न बैल ने कहा और आपकी भी तो बुरी दशा है।
“यहाँ भी कलि की चर्चा यह कलि.....” उमड़ते क्रोध को मुश्किल से दबाया। चर्चा कर रहे इनकी ओर देख विनम्रता से पूछा “मातृ और देव आप सामान्य नहीं लगते। कृपा कर अपना परिचय दें।”
परिचय प्राप्त कर वे जान सके कि गाय तो धरती है और बैल धर्म। धर्म के चारों चरण सत्य, पवित्रता करुणा, सेवा में तीन क्षत-विक्षत हो चुके हैं। धरती भी पाप का भार न ढो पाने के कारण मृतप्राय है। यह कलयुग रहता कहाँ है? उनने अगला प्रश्न किया।
“संकीर्णता और क्षुद्रता से भरा मन उसका निवास है, विचारों की हीनता के रूप में यह क्रियाशील होता है। जीवन को पाप और पतन के गर्त में धकेलना, धरती के स्वर्गीय वातावरण को नरक के कलुषित माहौल में बदल देना उसका उद्देश्य,” धर्म ने लगभग बिलखते हुए अपनी बात समाप्त की। “इसके चरम विकास में सारे धरती वासी भ्रान्त हो जाएंगे। पृथ्वी ने अपनी बात पूरी करते हुए परीक्षित की ओर ताका।
इन दोनों को साँत्वना देते हुए वे आगे बढ़ चले। संयोग से कज्जल कृष्ण वर्ण किशोर के रूप में कलि मिल गया। उसकी रक्तिम आँखों में क्रूरता झलक रही थी।पहचानते ही उनने तलवार निकाली।
“क्षमा करें महाराज” कलि लगभग चीत्कारते हुए बोला “मैं आपकी शरण में हूँ।”
“शरणागत की रक्षा” इस आदर्श ने उनके हाथ स्तम्भित कर दिये। इस पर भी वह बोले “मैं तुम्हें इसी शर्त पर क्षमा कर सकता हूँ कि तुम पृथ्वी से चले जाओ।”
“कहाँ चला जाऊँ? अभी मेरा जाने का समय नहीं हुआ है। नियति ने मुझे पृथ्वी वास का आदेश दिया है। अभी तो मैं आपके कहने पर अपना प्रभाव सीमित कर सकता हूँ। आप जिस स्थान पर कहें वहीं रहने लगूँ -कलि ने कहा।
“ठीक है” परीक्षित कुछ सोचते हुए बोले तुम्हारे रहने के लिए द्यूत, मदिरापान, व्यभिचार, हिंसा-लोभ है तुम वहीं रहो। सुनकर कलि चलने को हुआ तभी उन्होंने टोकते हुए “पूछा तुमने धरती से अपने प्रस्थान का समय नहीं बताया?”
कुटिल मुस्कान के साथ वह बोला अभी तो मुझे चरम विकास करना है। एक समय धरती के सारे मनुष्य भ्रमित हो जाएँगे। अनौचित्य सर्वथा ग्राहय माना जाएगा और औचित्य परित्यज्य। उसी समय कालचक्र अधीश्वर महाकाल स्वयं सक्रिय हो उठेंगे। बस वही मेरे प्रस्थान का समय है।
हाँ उसके कथन पर महाराज को अवश्य हर्ष हुआ। प्रधान सेनापति की ओर देखते हुए बोले हृषीकेश की कृपा शीघ्र ही धरती पर विचारों की महाक्रान्ति के रूप में अवतरित हो। कुछ सोचते हुए दोनों वापस लौट चले। कलि अदृश्य हो चुका था।
अनेकों घटनाओं से भयाक्रांत धरती को अब विचारक्रान्ति के अवतरण की सुखद अनुभूति होने लगी है। यही है कलि के प्रस्थान का समय। सतयुग का प्रकाशमय स्वरूप उसकी काली छाया कैसे बर्दाश्त कर सकेगी।