कुछ हाथ लगेगा नहीं (Kahani)

July 1991

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बादल गरज रहे थे। उन्हें गरजते बहुत देर हो

गई पर उससे कुछ खास बात नहीं हुई पर जब एक बार बिजली कड़की और गिरी तो कई पेड़ जल कर खाक हो गये।

एक व्यक्ति बादलों की गरज को बहुत महत्व दिया करता था। उन्हीं में शक्ति भरी मानता था। पर जब उसने इस बार में घटनाक्रम को देखा तो अपना विचार बदल दिया। समझा कि गरजने वाले चमत्कार नहीं दिखाते सामर्थ्य तो चमकने वाली शक्ति में ही होती है।

इसके बाद उसने अपनी आदत सुधारी, गरजना बंद कर दिया और चमकने वाली पद्धति अपनाई।

तथ्य एक ही हाथ लगेगा कि बुद्धि भ्रम ने उभर कर अनर्थ सँजोये है। फिर क्या बुद्धि को कोसा जाय? उसकी दिशाधारा का निर्धारण तो भाव संवेदनाओं के आधार पर होता है। भावनाओं में नीरसता, निष्ठुरता जैसी विषाक्तताएँ घुल जायँ तो फिर तेजाबी तालाब में जो कुछ भी गिरेगा, देखते-देखते अपनी स्वतंत्रता सत्ता को उसी हमें गला घुला देगा। भाव संवेदना में विषाक्तता का घुल जाना, उस क्षेत्र में विकृतियों का जखीरा जम जाना ही एक मात्र ऐसा कारण है जिसके कारण समृद्धि और चतुरता का विकास विस्तार होते हुए भी उलटी सर्वतोमुखी विपन्नता ही हाथ लग रही है। सुधार तलहटी का करना पड़ेगा। सड़ी कीचड़ के ऊपर तैरने वाला पानी भी अपेय होता है। दुर्भावनाओं के रहते दुर्बुद्धि ही पनपेगी और उसके आधार पर दुर्गति के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगेगा नहीं।


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