गाँधी जी अपने को गरीब देश वासियों के समतुल्य मानते थे पर अपने लिए खर्च का जब भी प्रसंग आता, वे गरीब स्तर के लोगों जैसा निर्वाह का चयन करते।
आधी धोती पहनते, आधी ओढ़ते थे। सरकंडे की कलम से लिखते थे और चटाई पर सोते थे। कभी-कभी पत्नी के साथ गेहूँ भी पीसते थे। चरखा तो वे नित्य ही चलाते थे। इन मितव्ययिता ने उनकी महानता में चार चाँद लगाये। इस रहस्य को वैभव वाले कहाँ समझें?
तक चेतना के श्रेष्ठतर पक्ष की ओर अग्रसर नहीं होता है। अतएव उन्नत, श्रेष्ठ, सफल जीवनक्रम के लिए अच्छा यही है कि जीवन निर्माण के इन दोनों चरणों की पूर्ति में उत्साहपूर्वक जुट पड़ा जाय। ऐसा करने से समूचा जीवन स्वमेव प्रगति की राह पर वेगपूर्वक बढ़ता चला जाएगा।
व्यक्तित्व का सर्वांगपूर्ण परिष्कार ही वस्तुतः सही अर्थों में आध्यात्मिक प्रगति का प्रमुख चिह्न है। जो जितना इस दिशा में प्रगति कर पाता है, वह सही अर्थों में उतना ही निज की, समाज के लिए उपयोगिता प्रमाणित करता है। सिद्धि विभूति जो भी कुछ है इसी रूप में परिलक्षित होती है। आत्मावलोकन व आत्म निर्माण विकास की प्रक्रिया द्वारा अपने व्यक्तित्व का परिष्कार हर किसी के लिए संभव है व यह राजमार्ग सभी के लिए खुला है।