ऐसा कौन सा जादू भरा है उस भिक्षु की वाणी में जो जनता, विजयोत्सव के राग रंग उत्सव-उल्लास छोड़कर नीरस धर्म अध्यात्मिक के प्रवचन सुनने को दौड़ पड़ी है। सम्राट के लिए यह एक विचित्र पहेली थी, उलझनों से भरी और नितान्त बेबूझ। अनेकों तरह की व्यूह रचना कर शत्रु को शिकस्त देने में कुशल राजनीति, कूटनीति, सैन्य नीति की पहेलियों को सुलझाने में माहिर अशोक से यह उलझन नहीं सुलझ रही थी। वह लोक प्रिय होना चाहता था। अपनी इस चाहत के लिए कितने ही तरह के नाच रंग उत्सव आयोजन करवाए लेकिन सब निष्फल प्रायः इन सबके बीच पता नहीं कहाँ से उसकी क्रूरताओं की चर्चा निकल आती। हिंसा भरे कारनामे जन समुद्र में ज्वार की तरह उफन पड़ते। फैल जाती आशंका भय दहशत की काली छाया। आम आदमी इससे दूर रहने में ही अपना कल्याण समझता।
उधर कुछ ही दिन पहले आया यह भिक्षु, चारों ओर उसी के बारे में बातें। गली, मुहल्लों, घरों में उसके प्रवचनों की चर्चा। दिन प्रतिदिन उसे सुनने के लिए उमड़ती भीड़ का फैलाव बढ़ता ही जाता। सुना है वह अपने पास कुछ नहीं रखता-देह में लिपटे अधफटे चीवर के अलावा कुछ नहीं। सम्राट को अपने वैभव कोष, समृद्धि पर गर्व था। कहाँ साधारण सा भिक्षु कहाँ भारत सम्राट अशोक? इस तुलनात्मक चिन्तन के साथ उसने एक गर्व भरी नजर स्वयं पर डाली। पर दूसरे ही क्षण तथ्य कठोर प्रहार से गर्व चकनाचूर हो गया। एक के पास जाने के लिए लोग अपना काम छोड़ कर दौड़ पड़ते हैं। दूसरे का नाम सुनते ही दहशत फैल जाती है। भिक्षु की इस लोकप्रियता का कारण? वह कुछ सोच रहा था, शायद वह स्वयं भी जाना चाहता था। उस समय तक अशोक के लिए धर्म का कोई विशेष अर्थ न था।
एक दिन सचमुच वह महाभिक्षु का प्रवचन सुनने पहुँच गया। भिक्षु मौद्गल्यायन का गरिमा मण्डित व्यक्तित्व बरबस किसी को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त था। अब उसे श्रावकों की संख्या के रोज बरोज बढ़ने समूची पाटलिपुत्र नगरी द्वारा विजयोत्सव को भूल बैठने के बारे में कुछ-कुछ अनुमान लगा रहा था। लेकिन तथ्यपूर्ण कारणों से वह अभी तक अविदित था। कुछ सोचते हुए उन्होंने महाभिक्षु को भोजन के लिए निमंत्रण दे डाला। शायद सम्राट भिक्षु की निष्ठाओं को परखना चाहते हो। प्रतिपादित त्याग, सादगी और आर्जव के आदर्श स्वयं भिक्षु के जीवन में कितनी गहराई तक समाविष्ट है। साथ ही उस कारण को खोजना, जिसकी वजह से उसकी लोकप्रियता दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।
भोजन के बाद सम्राट ने उन्हें अपना महल घुमाया। हर कक्ष की एक-एक मूल्यवान वस्तु का परिचय देते समय उनके चेहरे पर अहं और दर्प की मिली जुली आभा देखने लायक थी। अन्त में वे एक विशाल आगार के सामने जाकर ठहर गए। यह रत्न भण्डार था। इसमें सुरक्षित बेशकीमती रत्नों को दिखाते हुए बोले, “भिक्षु श्रेष्ठ! ऐसे दुर्लभ रत्न भारत भर में कहीं न मिलेंगे।”
“ओह!” भिक्षु के माथे पर सिलवटें गइराई “तब तो इनसे राज्य को भारी आय होती होगी।”
“आय?” अशोक भिक्षु की नादानी पर मुसकराया। इनकी सुरक्षा पर पर्याप्त व्यय करना पड़ता है।
इन पत्थरों से कीमती पत्थर मैंने आपके राज्य में देखा है। विश्वास न होता हो तो आप भी मेरे साथ चल कर देख लें। भिक्षु के कथन को सुन अशोक स्वयं को रोक न सका। कुछ ही समय बाद दोनों एक उपेक्षित गरीब बस्ती में प्रवेश कर रहे थे। सम्राट को आश्चर्य था ऐसी मूल्यवान चीज यहाँ? वह कुछ अधिक सोचता तब तक भिक्षु ने एक द्वार खटखटाया। थोड़ी देर बाद एक वृद्धा ने दरवाजा खोला। दोनों घर के अन्दर घुसे, भिक्षु ने एक कोने की ओर इशारा करते हुए कहा, यह है। उस ओर देखकर अशोक को झुँझलाहट हुई। उसे अपने ऊपर भी अफसोस हुआ क्यों इस मूर्ख भिक्षु के साथ आकर वह मूर्ख बना। झल्लाते हुए बोला यह तो चक्की है।
ठीक कहते हो। पर तुम्हारे सभी रत्नों से श्रेष्ठ है यह। वृद्धा के श्रम की सहयोगिनी। इस पर उसे कुछ खर्च नहीं करना पड़ता। उल्टे यह चक्की इस वृद्धा का, इसके अंधे पति और तीन बच्चों का पोषण करती है।
अशोक चुप था। उसे समझ नहीं रहा था भिक्षु को क्या उत्तर दे? भिक्षु उसके मन को पढ़ते हुए कह रहे थे राजन् जीवन का रहस्य त्याग और पुरुषार्थ है। संग्रह में इन दोनों की अवहेलना है। संग्रह का अर्थ है स्वयं के ऊपर, नियन्ता के ऊपर और जिस समाज में रहते हैं उस पर चरम अविश्वास। इन तीनों में जिसे एक पर भी विश्वास है, वह क्यों संग्रह करेगा? जिसे लोक पर विश्वास नहीं लोक उसे सम्मान क्यों देगा? उसे अपना प्रिय क्यों मानेगा?
अशोक ने मुड़ कर भिक्षु की ओर देखा। भिक्षु की आँखों में इन तीनों विश्वासों की गहरी चमक थी। सम्राट को उसके फटे चीवर, उसे सुनने के लिए उमड़ती भीड़ का कारण ज्ञात हो रहा था। कहते हैं अगले दिन सम्राट ने अपनी सम्पत्ति जनहित के कार्यों में समर्पित कर दी। इसी दिन से वह ‘देवनाँ प्रिय’ बना।