यज्ञ को सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला बताया गया है। पर्जन्य एवं दिव्य वातावरण की उत्पत्ति का मूल आधार यज्ञ ही है। यजुर्वेद 3/53 में ऋषि कहते हैं “हे यज्ञ! तू निश्चय ही कल्याणकारी है। स्वयंभू परमेश्वर तेरे पिता हैं। तेरे लिए नमस्कार है। तू हमारी रक्षा कर। दीर्घ जीवन, उत्तम अन्न, भरपूर जीवनीशक्ति ऐश्वर्य, समृद्धि, श्रेष्ठ सन्तति एवं मंगलोन्मुखी बल, पराक्रम के लिए हम श्रद्धा विश्वासपूर्वक तेरा सेवन करते हैं।”
प्राचीनकाल में ऋषियों ने यज्ञ के इन लाभों को भली प्रकार समझा था, इसलिए वे उसे लोक-कल्याण का अतीव आवश्यक कार्य समझकर अपने जीवन का एक तिहाई समय यज्ञों के आयोजन में लगाते थे। स्वयं यज्ञ करना और दूसरों से यज्ञ कराना उनका प्रधान कर्म था। जब घर-घर में यज्ञ की प्रतिष्ठ थी, तब यह भारत भूमि स्वर्ण-सम्पदाओं की स्वामिनी एवं नर-रत्नों की खान थी, साथ ही समूचे विश्व में इसी कारण सुख-शान्ति का खुशहाली का वातावरण था। पर आज यज्ञ को त्याग देने का ही परिणाम है कि सर्वत्र पर्यावरण ही विषाक्त नहीं हुआ, वरन् सनकियों, उन्मादियों के कारण विश्व-वसुन्धरा का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। मानवी सभ्यता के विलुप्त हो जाने का अंदेशा है।
विश्व का विचार परक वातावरण जब तक उच्चस्तरीय रहता है, तब तक सतयुगी परिस्थितियाँ बनी रहती हैं। पर जब उसमें दुर्बुद्धिजन्य दुर्गुणों का प्रभाव भरने लगता है तो सर्व साधारण में उद्दंडता, आवेश, अनाचार का समावेश होने लगता है। उनकी परिणति शोक−संताप के रूप में सामने आती है। थोड़े लोग अनेकों को अपने साथ घसीट ले जाते है और शीतयुद्ध, गृहयुद्ध, महायुद्ध का घटाटोप जैसा परिणाम बनकर सामने आता है। विश्व के राजनैतिक क्षितिज पर इन दिनों प्रत्यक्ष देखा भी जा सकता है यह सूक्ष्म जगत का प्रदूषण है जिसे वायुमंडलीय प्रदूषण से भी अधिक भयंकर माना जा सकता है।
वायु मंडल की विषाक्तता रोग फैलाती और दुर्भिक्ष लाती है, किन्तु वातावरण में दुष्टता और भ्रष्टता के तत्व भर जाने से प्रकृति कुपित होकर ऐसे कहर बरसाती है जिसे मनुष्यकृत “कत्लेआम” से भी अधिक भयंकर समझा जा सकता है। बाढ़, भूकंप, महामारी, उपलवृष्टि, ईति-भीति, दुर्भिक्ष, अपराध, युद्ध जैसी विपत्तियाँ टूटती हैं और उस सामूहिक विनाश का प्रकारान्तर से अगणित जनों पर दुष्प्रभाव पड़ता है। सूखे के साथ गीला भी जलता है। गेहूँ के साथ घुन भी पिसता है। अनीति करने वाले की तरह उसे रोकने का पुरुषार्थ न करने वाला भी कायरता एवं उपेक्षा का, व्यक्तिगत स्वार्थपरता में ही संलग्न रहने का दोषी समझा जाता है और कुपित प्रकृति व्यापक क्रोध बरसाती और एक ही डंडे से सबको हाँकती है।
इन दिनों परिस्थितियाँ ऐसी हैं जिन्हें विकृत मनःस्थिति की देन माना जा सकता है। सभी जानते हैं कि इन दिनों कुमार्ग गामिता अपनी चरम सीमा पर चल रही है। अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सशक्त राष्ट्र छोटे एवं निर्बल देशों को अपने अधीन कर मनमाने ढंग से उनका शोषण करने को समुद्यत हैं। बढ़ते हुए तनाव एवं अपराधी दुष्प्रवृत्ति का विस्फोट इस प्रकार हो रहा है कि वह कभी भी अणु युद्ध तथा असाध्य महामारियों के रूप में फूट सकता है। विज्ञान और बुद्धिवाद का दुरुपयोग ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर सकता है जिससे मानवी सत्ता और सभ्यता का अंत होने जैसी स्थिति आ पहुँचे॥
ऐसे भयंकर समय में भौतिक उपाय-उपचार तो शासकों, धनाध्यक्षों एवं राजनयिकों द्वारा अपने-अपने ढंग से चल ही रहे हैं। अध्यात्म क्षेत्र को भी इन दिनों दिव्य प्रतिकारों का आश्रय लेना चाहिए और व्यक्ति तथा समाज को मानवी सभ्यता को नरक जैसे दलदल में फँसने से पूर्व ही उबरना चाहिए। इसके लिए सर्वसुलभ उपाय-उपचार यज्ञ विधा को पुनर्जीवित करने के स्तर पर प्रयास करना चाहिए। इसी आधार पर संव्याप्त विषाक्तता का शमन और वातावरण का परिशोधन हो सकेगा। तपस्वियों के द्वारा किये गये ऐसे आयोजन अन्तरिक्ष में ऐसी उथल-पुथल कर सकते हैं जिससे विनाश की संभावनायें निरस्त हो जायँ और विकास के नये आयाम आरंभ हो सकें।
इस संदर्भ में युगाँतरीय चेतना न पुरातन यज्ञीय परम्परा को पुनर्जीवित किया है और व्यापक स्तर पर व्यक्तिगत एवं सामूहिक यज्ञ आयोजनों की बहु आयामी शृंखला चलाई है। वायु प्रदूषण का निराकरण और वातावरण का परिमार्जन यज्ञ की अग्निहोत्र प्रक्रिया से हो सकता है। इसके लिए नवनिर्माण आन्दोलनों में गायत्री यज्ञों एवं दीपयज्ञों तथा युगनिर्माण सम्मेलनों के ज्ञान यज्ञों का समावेश किया जाता रहा है। परिजनों के मिलजुल कर श्रम सहयोग से यह आयोजन बड़ी सरलता से और स्वल्प लागत में सम्पन्न हो जाते हैं। जहाँ सुव्यवस्थित अग्निहोत्र की सुविधा नहीं है, वहाँ घृत दीप एवं धूपबत्ती जलाकर गायत्री महामंत्र का 24 बार उच्चारण करने से भी अति संक्षिप्त यज्ञ हो जाता है। वस्तुतः इस पुरातन महान प्रचलनों को सर्व सुलभ व्यापक एवं पुनर्जीवन प्रदान करने के लिए इसे आन्दोलनों के रूप में अग्रगामी बनाया गया है।
अदृश्य वातावरण को बदलने एवं वायुमंडल में भरी जा रही विषाक्तता के निराकरण के लिए यज्ञ प्रक्रिया को एक आन्दोलन का रूप देने के लिए बड़े आयोजन वाली खर्चीली व्यवस्था के स्थान पर ऐसे सरल विधान निर्धारित किये गये हैं जिसे निर्धन वर्ग के लोग अति सस्ते में इस विधान की पूर्ति कर सकें। हवन सामग्री उपलब्ध न हो तो गुड़ और घी के संमिश्रण से बनी हुई छोटी-छोटी गोलियों को शाकल्य मान कर हवन किया जा सकता है। उसमें चन्दन चूरा जैसा सुगन्धित द्रव्य भी मिलाया जा सकता है। शर्करा और घृत का अग्निहोत्र में विशेष महत्व है, पर इन्हें शुद्ध स्थिति में ही लेना चाहिए। गौ घृत मिलना अब सरल नहीं है। मिलावट की सब ओर भरमार है। इसलिए गाय के दूध को गुड़ में मिलाकर ऐसी सामग्री बन सकती है जो सर्व सुलभ हो और जिसके लिए बहुत पैसा खर्च न करना पड़े। वनस्पतियों की बनी शुद्ध हवन सामग्री मिल सके तो और भी अच्छा है।
पर इन दिनों शुद्ध घी और शुद्ध सामग्री मिलना कठिन ही है। वनौषधियों से विनिर्मित हवन सामग्री भी हर जगह उपलब्ध नहीं। ऐसी दशा में काला तिल हवन के काम आ सकता है। घी आरंभिक आज्याहुति होम के सात और अंत की तीन स्वष्टिकृति, पूर्णाहुति और वसोधारा के निमित्त काम में लाया जा सकता है। तिल थोड़ा सा घी चिकनाई के लिए प्रयुक्त करने से काम चल जाता है। एक किलो गाय के दूध से निकाले गये मक्खन से प्रायः एक महीने का काम चल जाता है। सभी सामग्री शुद्ध रूप में उपलब्ध न हो तो काला तिल, चंदन चूरा, गुड़ या शर्करा, घी आदि मिलाकर भी सस्ता और शुद्ध शाकल्य बन सकता है। एक पेटी में हवन में काम आने वाली सभी वस्तुएँ सुरक्षित यथास्थान रखी रहें तो नित्य यज्ञ में कोई असुविधा नहीं होती है।
कई जगह कमरों में भी धुआँ करने का निषेध है। वहाँ गैस या बिजली से ही भोजन तक बनता है। लकड़ी जलने से वे हानिकारक धुआँ होने की मान्यता रखते हैं। वहाँ उत्सवों पर धार्मिक प्रयोजन के लिए अगरबत्ती, धूपबत्ती, मोमबत्ती भर जलाने की छूट है। ऐसे स्थानों के लिए एक थाली में चंदन चूरे की पाँच अगरबत्ती तथा एक घी का दीपक जला लेने से प्रयोजन की पूर्ति हो जाती है। हवन सामग्री की पूर्ति अगरबत्ती से और घी होमने की आवश्यकता दीपक जलाने से पूरी हो जाती है। चौबीस बार उपस्थित लोग मिलजुल कर सामूहिक रूप से एक साथ एक मन और भावना से गायत्री मंत्र का उच्चारण कर लें तो उस उच्चारण को आहुति मंत्र समझा जा सकता है। जिन कमरों में कीमती कालीन बिछे हुए हैं और आग की चिंगारी से किसी प्रकार के नुकसान की आशंका है, वहाँ यह विधि बिना जोखिम की है। जहाँ मोजा उतारना असभ्यता में गिना जाता है वहाँ गायत्री मंत्र का मौन मानसिक जप हो सकता है और उपार्जित ऊर्जा को अदृश्य के परिशोधन हेतु बिखेर देने की भावना की जा सकती है। मौन जप किसी भी स्थिति में हो सकता है। उसके लिए स्नान या हाथ पैर धोने की भी अड़चन नहीं है।
पदार्थ यजन के साथ-साथ मंत्रोच्चार की समस्वरता, प्रयोक्ताओं की प्रखर पवित्रता एवं प्रचण्ड भावना का संमिश्रण होने से ही यज्ञीय विधा उस स्थिति तक पहुँचती है जिसमें प्रस्तुत आशंकाओं, आतंकों और युद्ध विभीषिकाओं, अपराधों से लोहा ले सकना, उनके दावानल को बुझा सकना संभव हो सके। यज्ञ मात्र प्रतिकार ही नहीं है, उसके साथ परिष्कार भी जुड़ा हुआ है। यज्ञ प्रक्रिया परमार्थ प्रयोजनों के लिए की गयी एक आध्यात्मिक उपचार प्रक्रिया है। अदृश्य में संव्याप्त विकृतियों से निपटने व सुखद संभावनाएँ प्रस्तुत करने की इसमें अपार संभावनाएँ हैं। इन दिनों हर किसी के द्वारा इसे जनहितार्थाय अपनाया ही जाना चाहिए।