जीवन को सफल बनाने वाला व्यावहारिक अध्यात्म

July 1991

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सांसारिक सफलताओं में जितना सहायक मानसिक संतुलन होता है उतना संभवतः संसार का अन्य कोई साधन कदाचित ही उपयोगी सिद्ध हो सकता है।

मानसिक आवेश या अवसाद दोनों ही ऐसे हैं जो कदाचित ही किसी की सूझबूझ को व्यवहार कुशल रहने देते है और उसे इस निष्कर्ष पर कदाचित ही पहुँचने देते हों कि वर्तमान क्षमताओं और परिस्थितियों का तालमेल बिठाते हुए क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए।

मनुष्य के सामने परिस्थितियों की प्रतिकूलता से जूझने और अनुकूलता को बनाने के लिए अनेकों विकल्प रहते हैं उनमें से कुछ अनाड़ीपन से भरे होते हैं और कुछ समझदारी के। इनमें से किसका चुनाव किया जाय, इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए ऐसी मनःस्थिति चाहिए जो हर पक्ष के गुण-दोष ढूंढ़ सके और जो सरल एवं सही है, उन्हें अपना सके। आवेशग्रस्तता ऐसा सुझाती है जो आक्रामक हो, आतुर हो। इसके विपरीत डरपोक व्यक्ति किसी प्रकार गाड़ी धकेलना और समय चुकाना चाहता है। ऐसा कुछ नहीं करना चाहता जिसमें झंझट दीख पड़े, जिसमें अतिरिक्त शक्ति लगानी पड़े। यह दोनों ही स्थितियाँ अतिवाद के दो सिरे हैं। इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जो दूरदर्शिता को सही रहने दे और ऐसा चुनाव करने दे जो प्रतिष्ठ को अक्षुण्ण भी रखे और सफलता को समीप भी जा दे।

संतुलित मन वाला ही सज्जनोचित, विनम्र व्यवहार कर सकता है। उसी में वह विशेषता होती है जो मैत्री को बढ़ाने और कटुता को घटाने में सहायक सिद्ध हो सके। शिष्टाचार की सामान्य सी भूल भी दूसरों को अखर जाती है और वे उसे अशिष्टता, अवमानना मान बैठते हैं। फलतः मित्र को कम और विरोधी को वह उपेक्षा अप्रिय लगती है जो वस्तुतः कर्ता के मन में भी नहीं थी। मात्र मन की अस्त व्यस्त स्थिति में ही संयोगवश बन पड़ी थी।

स्मरण रखने योग्य बात यह है कि जिसके मित्र, शुभ चिन्तक, समर्थक, प्रशंसक अधिक होते हैं वह आगे बढ़ता और समीपता के निकट अपेक्षाकृत जल्दी पहुँचता है। जिसके निन्दक, विरोधी अधिक होते हैं, जिसे उपेक्षा, असहयोग का सामना करना पड़ता है, वह अपने सरल कामों में भी विलम्ब होते और अड़चन आते देखता है। सौजन्य ही वह कला है जो मित्र बढ़ाती और विरोधी घटाती है। सज्जनता किसी के ऊपर अहसान करना नहीं वरन् अपने ही व्यक्ति सम्मान तथा सहयोग का क्षेत्र विस्तृत करना है। इस बिना खर्च की विशिष्टता को अर्जित करने में एक ही प्रधान कठिनाई है, मस्तिष्क को असामान्य स्थिति में उबलता हुआ या गया गुजरा अनगढ़ स्तर का रखना।

बुद्धिमत्ता की अनेकों परीक्षाएँ हैं। पर सबसे सरल और कारगर यह है कि अपने स्वभाव को उदार और सहनशील बना कर रखा जाय। यह तभी हो सकता जब दूसरों की भूलों को सामान्य मानकर चला जाय और उसके पीछे दुर्भावना न ढूँढ़कर व्यवहार की भूल चूक मानकर चला जाय। साथ ही अपनी सज्जनता को किसी भी स्थिति में मर्यादा से बाहर न जाने दिया जाय। सज्जनता ऐसी विशेषता है जिसे किसी भी स्थिति में अपने स्थान पर अक्षुण्ण बनाये रखा जाय। वह अपने व्यक्तित्व के साथ इतनी घुली मिली होनी चाहिए जिसे कोई अनपढ़ व्यक्ति भी हाथ से छीन न सके।

जिसको अपने कार्य व्यवहार में जन संपर्क साधना पड़ता है, उसे व्यंग, उपहास तिरस्कार की आदत छोड़ ही देनी चाहिए। इसके लिए शिष्टाचार की किसी पाठशाला में पढ़ने जाने की आवश्यकता नहीं है। मस्तिष्क को शान्त संतुलित बनाये रखने की विधा से यह सहज स्वभाव बन जाता है। जो अपने सेवक, स्वामी, मित्र, कुटुम्बी, पड़ौसी आदि के प्रति अपनी ओर से शिष्टाचार बरतता रहता है, उसके प्रति अन्यान्यों की अपेक्षा, अवमानना टिक नहीं सकती। फलतः वह अन्ततः नफे में ही रहता है।

शाँत चित्त वाला व्यक्ति ही इस तथ्य पर पहुँच सकता है कि पूरा काम करना, सही काम करना, समय पर काम करना कितना लाभदायक है। लापरवाही गैर जिम्मेदारी की स्थिति में बेगार भुगत देने से समय बच सकता है, पर उसमें प्रतिष्ठ निश्चित रूप से चली जाती है, जिसे अप्रामाणिक, बेईमान समझ लिया जाता है, उससे दुबारा काम कराने की इच्छा नहीं होती फलतः उपेक्षितों जैसी स्थिति बन जाती है। यह निश्चित है कि एक बार किसी को खराब माल चपेक देने, ज्यादा पैसे ले लेने जैसी बेईमानी में सम्मिलित किये जा सकने लायक व्यक्तियों का सहकार स्थायी रूप से गुम जाता है। लोग मनोभावों को अपने तक ही सीमित नहीं रख पाते वरन् एक दूसरे से, दूसरा तीसरे से कहता रहा। इस प्रकार बात फैलती और प्रतिष्ठ गिरती जाती है। असफलता के प्रमुख कारणों में एक है ईमानदारी के दूरगामी सत्परिणामों को न समझना और जल्दी-जल्दी अधिक मात्रा में लाभ या यश कमा लेने के लिए आतुरता बरतना। यह अपनी स्थायी प्रतिष्ठ को गिराने और भविष्य में मिल सकने वाले लाभों की जड़ काट देने के समान है।

जो अपने आप को प्रसन्न रख सकता है उसी से दूसरे भी प्रसन्न रह सकते हैं मुसकान यह कहती है कि यह व्यक्ति अपनी स्थिति से संतुष्ट और अपने कामों में सफल है। साथ ही यह भी प्रकट होता है कि दूसरे के मिलन आगमन पर प्रसन्नता हुई है। यह सभी बातें ऐसी है जो आत्म विज्ञापन के अन्य सभी तरीकों की तुलना में अधिक सस्ती और अधिक कारगर है। चेहरे पर मुसकराहट का बनाये रहना एक अच्छा अभ्यास है, जो कुछ ही दिनों सीखा और अपनाया जा सकता है। पर इसका बाह्य स्वरूप बन पड़ना तभी संभव है जब मन निर्द्वंद्व हो। यदि भीतर खीज, झल्लाहट या असंतोष भरा होगा तो उसे ऊपरी आवरणों में दबाया नहीं जा सकता। वह किसी न किसी रूप में किसी न किसी अवसर पर फूट पड़ता है और असलियत तथा बनावट के भेद को खोल देता है।

जो गलतियाँ हो चुकी हैं, उन्हीं पर सदा सोचते रहने से मन अपने आपको अपराधी की स्थिति में गिनने लगता है और आत्म विश्वास खो बैठता है। ऐसी दशा में उचित यही है कि जिन भूलों का जिस रूप में परिमार्जन-प्रायश्चित्त हो सकता हो, उसे करे और नये जीवन की नई पहल करने और नई योजना बनाकर नई सफलता की दिशा में अग्रसर हों। भूत के साथ उलझे रहने की अपेक्षा यह उत्तम है कि उज्ज्वल भविष्य की बात सोचें और तदनुरूप वर्तमान को बनाने का प्रयास करे। पिछली असफलताएँ यही बताती हैं कि जितनी सतर्कता और दूरदर्शिता बरती जानी चाहिए थी उसमें कमी रह गई। ठोकर खाते ही शिक्षा यही ग्रहण की जानी चाहिए कि आगे आँख खोलकर देखें और उस असावधानी से बचें, जिसके कारण पिछली बार भूल हुई और हानि उठानी पड़ी।


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