वृक्ष, धूप-शीत सहते रहते है पर दूसरों को छाया, लकड़ी और फल-फूल बिना किसी प्रतिफल की आशा के मनुष्यों से लेकर पशु-पक्षियों तक को बाँटते रहते है। क्या तुम इतना भी नहीं कर सकते?
संभव होगा कि बिना स्वाभिमान गँवाये वह आवश्यक सहायता नियमित रूप से उतने समय तक प्राप्त करते रह सकें, जितने समय तक जितनी मात्रा में उन्हें वास्तविक आवश्यकता है। यह कार्य किसी संगठन के माध्यम से उसी की देख−रेख में चलना चाहिए, अन्यथा व्यक्ति की अनगढ़ता, दान राशि का दुरुपयोग करेगी या करवाएगी। क्योंकि लेने वाले जितने जरूरत मंद हैं, उनकी तुलना में उन उतावलों की भी कमी नहीं, जो दानवीर बनने की क्षुद्रता या अदूरदर्शिता अपनाकर तात्कालिक वाहवाही के लिए पैसों की फुलझड़ी जलाकर धन को स्वाहा कर देने के अतिरिक्त और कुछ सोच ही नहीं सकते।
प्रश्न एक ही है कि देव पुरुष अपने समय एवं अनुदान का श्रेष्ठतम रीति से किस प्रकार नियोजन करे? जो सुलभ भी हो, सार्थक भी और व्यवहारिक भी। इतना सूझ पड़ने पर ही जो बन पड़ता है वह कर्ता को संतोष देता है तथा समाज के घटकों के लिए सार्थक सहयोग बनकर प्रस्तुत होता है।