व्यवस्था के आधार (Kahani)

July 1991

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बगदाद के खलीफा ने अपना वेतन निश्चित कर रखा था। वे प्रतिदिन राजकोष से तीन दिरम लिया करते थे। इस अल्प आय में ही वे अपने परिवार का पालन बहुत सादगी से करते थे।

ईद का त्यौहार चार दिन बाद आने वाला था। बेगम ने कहा-जहाँपनाह! आप तीन-चार दिन का अपना वेतन पेशगी ले लें तो बच्चों के लिये नये कपड़े सिलवा दूँ।

खलीफा ने कहा- कौन जानता है कि मैं अगले तीन-चार दिनों तक जीवित रहता भी हूँ अथवा नहीं। तुम खुदा से मेरे जीवन के आगे तीन दिनों का पट्टा ला दो तो मैं खुशी-खुशी उतने दिनों का पेशगी वेतन ले लूँगा।

बेगम ने फिर कभी वैसी माँग नहीं की वरन् तीन की अपेक्षा दो ही दिरम से अपना बसर प्रारम्भ कर दिया।

इतना धन किस प्रकार बचे, जिसमें सदावर्त चलायें और ताज महल बनाये जा सकें।

संसार भर के देवमानवों की कार्य प्रणाली चिर अतीत से लेकर अद्यावधि इस राज मार्ग पर चलती रही है कि अपनी श्रम, सामर्थ्य और प्रतिभा का उपयोग युग समस्याओं के समाधान में उत्सर्ग करें। इस प्रकार परमार्थ प्रयोजनों के लिए श्रमदान अपने आप में इतना सार्थक और इतना महत्वपूर्ण है कि उसका यशगान शानदार ही नहीं वरन् इतिहास के स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने उनके पद चिन्हों पर चलकर असंख्य आदर्शों का निर्वाह करते हुए कृत-कृत बनाने योग्य है।

एक हाथ से लूटना और दूसरे हाथ से लुटाना यह उन्हीं अक्ल के अंधों और गाँठ के पूरों से बन पड़ता है, जिन्हें आधा बन्दर और आधा कबूतर कहा गया है। बंदर इसलिए कि फसलें उजाड़ते और घुड़कियाँ दिखाते हुए घूमते रहते हैं। कबूतर इसलिए कि कभी-कभी मर्जी आती है, तो पूरे बगुला भगत बन जाते हैं और इस प्रकार की हठ करते, जिन्हें देखने वाले हाथ वाह-वाही करने लगें और मुफ्तखोर चाटुकारों की जय-जय करते देख कर ‘दानी कर्ण’ की बाछें खिलने लगे।

समझा जा रहा है कि इन पंक्तियों के पाठक मध्यवर्ती समुदाय के और सामान्य आर्थिक स्थिति में गुजारा चला रहे होंगे। उन्हें सादगी अपना कर युगधर्म के लिए समय बचाने की जो सूझ सूझी है, उसे परमात्मा की प्रत्यक्ष प्रेरणा ही कहा जा सकता है। सन्त और महामानव यही करते और यही कराते रहे हैं। आज के समय में भी जाग्रत आत्माओं के लिए वही करणीय और अनुकरणीय भी है। हमें साधु ब्राह्मण की सनातन परम्परा जितनी मात्रा में संभव हो उतनी मात्रा में जाग्रत जीवन्त बनानी चाहिए।

किसी का पेट भरने के लिए पैसे से काम चल सकता है, पर जब व्यक्तित्वों को झकझोरना, सुधारना, और उठाना हो, तो जन संपर्क साधने और मानवी गरिमा के अनुरूप मार्ग अपनाने के लिए निरन्तर परामर्श उद्बोधन देना पड़ेगा। कारण कि अन्तराल को जगा देना, उठने और लड़ने के लिए प्राण फूँका देना यह सबसे बड़ा काम है, जिससे एक का नहीं, असंख्यों का भला हो सकता है। स्थानीय वातावरण ही नहीं, समय का प्रवाह भी बदल सकता है। ठोस सेवा इसी उपाय से बन पड़ती है। सार्थक पुण्य-परमार्थ का सही तरीका भी यही एक है।

समय सभी के पास चौबीस घंटे का है। उसे श्रेष्ठतम, सन्मार्ग पर लगाने का एक ही तरीका है कि सर्व प्रथम अपने निज के समयक्षेप की योजना को बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से विनियोजित किया जाय। समय का सही विभाजन कर लेने और उस निर्धारण पर मुस्तैदी के साथ आरुढ़ रहने की रीति-नीति ऐसी है, जिसके सहारे चिरस्थायी देव परिपाटी अपनाने का सुयोग बनता है। अस्त-व्यस्त, अव्यवस्थित, और अनुशासनहीन व्यक्ति तो स्वयं गड़बड़ी करते और दूसरों से गड़बड़ियाँ कराते रहने के निमित्त कारण बनते हैं।

विशेष परिस्थितियों को छोड़कर सामान्य स्थिर जीवनचर्या अपनाने वालों के लिए यही उपयुक्त है कि आठ घण्टा रोटी कमाने के लिए, सात घण्टे सोने के लिए पाँच घण्टा नित्य कर्म तथा इधर उधर के अन्य कामों के लिए, रखकर काम चलावें। इसके बाद पूरे चार घण्टे की बचत हो सकती है। इसे विशुद्ध रूप से पुण्य परमार्थ के लिए, आत्मकल्याण के लिए युग धर्म निर्वाह के लिए सुरक्षित रखा जाय। इस बचत का नियोजन एक ही निमित्त किया जाना चाहिए-लोक मानस परिष्कार के लिए। इतना बन पड़ने से पिछड़ों को स्वावलम्बी-प्रगतिशील बनाने का अवसर बन पड़ेगा। जो अपने में असमर्थ है उनके लिए जन सहयोग की नियमित व्यवस्था के आधार पर यह भी


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