सामूहिकता के चमत्कारी सत्परिणाम

July 1991

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एक बार कार्तिकी अमावस्या के घनघोर अंधकार में प्रकाश की आवश्यकता पड़ी। सूर्य से प्रार्थना की, उनने इस आपत्तिकालीन अनुरोध को अस्वीकार कर दिया, चन्द्रमा ने भी असमर्थता प्रकट की। कोई उपाय न देखकर एक दीपक ने जलना आरंभ किया दूसरे बुझे हुओं ने सोचा जो एक कर सकता है, वह दूसरा क्यों न करे। जब बुराई छूत की तरह फैल सकती है तो अच्छाई की लहरे भी एक दूसरे को सहारा देते हुए आगे क्यों नहीं बढ़ सकती। दीपक एक दूसरे के निकट आते गये। जलों ने बुझों को जलाया और नगण्य सी कीमत वाले दीपकों की पंक्ति देखते-देखते सर्वत्र जलने लगी। कार्तिक की अमावस्या इन जुगनुओं की चादर ओढ़कर सूर्य-पत्नी जैसी गौरवाँवित होकर इठलाने लगी। सभी ने दीपमाला की जय बोली और उस दिन से यह सहकारी आदर्शवादिता महालक्ष्मी की तरह पूजी जाने लगी।

छोटे से छोटे काम भी मिलजुल कर बड़ों से बड़े कामों की प्रतिद्वंद्विता कर सकते हैं। तिनकों से रस्सा बंट जाता है धागे मिलकर वस्त्र बुनते हैं। ईंटें परस्पर जुड़कर महल खड़ा करती हैं। सींकों से बुहारी व बूँदों से घट भरता है। अणुओं के समन्वय से विराट की संरचना हुई है। इन सब पर विश्वास करने पर यह सोचने में तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि छोटों में सज्जनता का दौर चल पड़े तो उनके संयुक्त प्रयासों का प्रतिफल समष्टि को सतयुगी परिस्थितियों से भरपूर बना सकता है। बड़ों की प्रतीक्षा में बैठे रहने की अपेक्षा यही अच्छा है कि छोटे लोग मिलजुल कर नवसृजन के प्रयास करें। यही युग की माँग भी है।


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