सच्चा पाण्डित्य

July 1991

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वितस्ता के किनारे फैले आश्रम के प्राँगण में आज कुछ अतिरिक्त जन समूह दीख रहा था। पर थे सभी नियंत्रित अनुशासित और पंक्तिबद्ध। सभी ऋषि तुल्य आचार्य बन्धुदत्त की दीक्षान्त वक्तृता सुनने के लिए आतुर थे। उन्होंने सभी को सम्बोधित कर बोलना शुरू किया। “इन दिनों व्यक्ति और समाज अनेक प्रकार की कठिनाईयों, समस्याओं और चिन्ताओं, आशंकाओं से ग्रस्त हो विपन्न हैं। सामान्य जन रुग्णता, अशिक्षा, दरिद्रता, आदि के कुचक्र में पिस रहा है। पर विशिष्ट कहे जाने वालों को क्या उलझनें और विपत्तियाँ कम हैरान कर रही हैं? यह सब क्यों? साधन सुविधाओं के बीच यह अभावग्रस्तता कहाँ से टपक पड़ी? इसका एक ही कारण है बुद्धिवाद के मेघों से हो रही अनेकानेक कुचक्रों की मूसलाधार वृष्टि। अज्ञान का धुंधलका और कुचक्रों की झड़ी के कारण उपजा कष्टदायक भटकाव हर किसी को पथ भूले बनजारे की तरह संत्रस्त किए है।”

कुछ रुक कर उन्होंने फिर कहना शुरू किया। “आज के दिन मानव गढ़ने की यह प्रयोगशाला अपने निरन्तर के परिश्रम से गढ़ गए कुछ नर रत्नों को, समाज को उसकी सामयिक समस्याओं के निदान हेतु समर्पित कर रही है। हो रही सारी विडंबनाओं का एक ही कारण है बुद्धि विभ्रम अथवा आस्था संकट और इसका एक ही समाधान है सद्विचार। सत्चिंतन और सत्कर्म में निष्णात ये नर रत्न अपने विवेक और कौशल से लोकमानस को परिष्कृत करने में जुटेंगे। इतना कहकर उन्होंने अपनी वाणी को विराम दिया। उपस्थित विद्यार्थियों के समूह ने एक-एक करके आचार्य को प्रणाम करना शुरू किया। सबसे अन्त में एक दुबला-पतला किन्तु तेजस्वी युवक आया।

प्रणाम करने के अनंतर उनने उसे इशारे से रोका, और बोले “वत्स कुमार जीव। तुम्हारी उच्चस्तरीय प्रतिभा के अनुरूप तुम पर विशेष जिम्मेदारी है।”

“क्या?” युवक ने विनम्रतापूर्वक पूछा।

“यद्यपि तुम बचपन से कठिनाइयों, अभावों, असुविधाओं में रहे हो। तुमने अनेकों दुःख भोगे, तकलीफें झेली हैं। सम्भव है तुम्हारे मन में आए कि प्रतिभा और अर्जित ज्ञान से सुविधा बटोरी और सम्पन्नता कमाई जाय। उस समय समूची मानव जाति को देखना। उसकी पीड़ा, कराहट को देखना, अनुभव करना। तुम्हारे अपने दुःख पहाड़ के सामने राई जैसे नगण्य लगेंगे। ध्यान रखना, सुविधा, सम्पन्नता की परिस्थितियाँ मनुष्य को सुकुमार तथा विलासी बनाती हैं। प्रमाद और आलस्य उसके मानसिक मित्र बन जाते हैं। वह और किसी योग्य नहीं रहता। तुम्हारी योग्यता बनी रहे, विकसित हो फले फूले, इसलिए उसे सर्वहित में लगाना।”

युवक ने सिर उठाया और बोला “आज आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि मेरी सामर्थ्य का प्रत्येक कण, जीवन का प्रत्येक क्षण मानव जाति के लिए होगा। आप मेरे कथन पर विश्वास करें।”

“मुझे विश्वास है।” “आपकी गुरुदक्षिणा।”

‘यदि मानव जाति को आस्था संकट से छुड़ाने में जुट सके तो समझना दक्षिणा दे दी। अपने को किसी क्षेत्र विशेष में मत बाँधना। समूचा विश्व तुम्हारा घर है।’

“आपका आशीर्वाद चाहिए।”

“आशीर्वाद है विचार क्रान्ति के अग्रदूत बनो।”

दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा। दोनों की आँखें डबडबा आई। शिष्य ने आचार्य के चरणों में प्रणाम कर धीरे-धीरे द्वार की ओर कदम बढ़ाए। उसका गन्तव्य था कर्म क्षेत्र। विचार क्रान्ति को समर्पित होने वाले कुमार जीव चौथी शताब्दी में कश्मीर के कूची इलाके में पैदा हुए। पिता कुमारायण उसी रियासत में दीवान थे। उनकी आत्मा अधिक समय तक यह स्वीकार न कर सकी कि इसी प्रकार धन कमाने में दुर्लभ मानव जीवन समाप्त कर दिया जाय। अतएव जन साधारण में ज्ञान का प्रकाश फैलाने के लिए अंतः प्रेरणा से दीवानी का पद छोड़ दिया। पर कुमार जीव के जन्म के कुछ ही दिनों बाद वह चल बसे। माता ‘देवी’ मेहनत मजदूरी करके अपनी और बालक की जीवन नौका खे रही थी। बड़े होने पर बालक भी सहायक बना। बालक शिक्षित कैसे हो? उसमें जीवन बोध कैसे जगे? इन सवालों को लेकर माँ परेशान थी।

एक दिन उसे लेकर मीलों की कष्ट साध्य यात्रा करते आचार्य बन्धुदत्त के आश्रम में जा पहुँची। वितस्ता नदी के किनारे बना यह आश्रम काश्मीर ही क्यों, समूचे भारत में अपनी गुणवत्ता की धाक जमाए था। आचार्य इसे मानव जीवन की प्रयोगशाला कहते और सचमुच वह स्वयं के तथा सहयोगियों के सम्मिलित प्रयत्नों के अन्दर समाई विभूतियों को उभारते, व्यक्तित्व को सर्वांगीण बनाते। क्षमताओं के सही उपयोग का मर्म सुझाते। जीवन विद्या के इस आचार्य ने बालक की अनूठी प्रतिभा को पहचाना और गढ़ने में जुट गए। परिणाम स्वरूप कुमार जीव आचार्य की अनोखी कलाकृति के रूप में सामने आया। अध्ययन की समाप्ति तक माँ भी पंच भौतिक शरीर को त्याग चुकी थी।

सद्ज्ञान के प्रसार के दौरान उनकी मित्रता काशगर राज के एक प्रतिष्ठित विद्वान बुद्धियश से हुई। दोनों विद्वानों ने एक दूसरे को प्रभावित किया। उनकी वर्तमान तथा भावी गतिविधियों एवं कार्यक्रमों को जानने के बाद बुद्धियश ने कुमार जीव से काशगर में रुक जाने को कहा।

कुमार जीव ने पूछा ‘क्यों?’

“यहाँ रहो सुन्दर कन्या से तुम्हारा विवाह करा देंगे। यहाँ का राजा विद्वानों का बड़ा आदर करता है मेरा उस पर प्रभाव है। धन-मान सुख सुविधा सब कुछ एक साथ मिलेंगे।”

“गुरु आदेश से विवश हूँ मित्र। इस जीवन पर अब उन्हीं का अधिकार है और यह उन्हीं के काम में लगेगा। भावुकता में मत पड़ो। सभी का अपना-अपना प्रारब्ध है। बचपन से तुमने कष्ट ही कष्ट उठाए हैं। अब सुख का समय आया है तो गुरु का आदेश। विद्वान होकर क्यों मूर्ख बनते हो?”

ज्ञान यज्ञ के इस महान ऋत्विज् को मित्र का यह प्रस्ताव ठीक न लगा। आक्रोश को दबाकर क्षण मुसकान के साथ कहा समझ का फेर है मित्र जिसे तु विद्वान होना कहते हो, उसे मैं निष्ठुरता कहता हूँ। ऐसा पाण्डित्य तो ठगों, चालाकों में भी होता है। ये भी तमाम तरह की युक्तियाँ भिड़ा कर दूसरे का सब कुछ हड़प लेते हैं। मेरे लिए विद्या का अर्थ है, इन्सान की जिंदगी इंसान के लिए है, इस बात का शिक्षण, इसी जीवन जीने की कुशलता का बोध कराने की जिम्मेदारी गुरुदेव ने मेरे कन्धों पर डाली है। मैं इससे रंच मात्र नहीं हट सकता।

कुमार जीव का उत्तर सुन बुद्धियश हतप्रभ रह गया। विद्या विस्तार का यह विलक्षण मर्म उसे सूझा ही न था। इस उत्तर ने उसकी आंखें खोल दी। वह कुमार जीव की महानता के समक्ष नतमस्तक हो गया। धीरे से बोला मैं आचार्य बंधुदत्त के नाम पर कलंक बन रहा था, तुमने मुझे उबार लिया। मैं स्वयं भी भरसक तुम्हारा सहयोग करूंगा।

अपने विद्या विस्तार के क्रम में कुमार जीव भारत की सीमाएँ लाँघ कर चीन जा पहुँचा तथा चीनी भाषा सीखी वहाँ उसने प्रवचनों, वार्ताओं प्रशिक्षण के द्वारा जन सामान्य को जीवन जीना सिखाने का क्रम चलाया। वहाँ उसने भारत के विचारपूर्ण साहित्य का चीनी भाषा में अनुवाद किया। तकरीबन सौ ग्रन्थों के


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