गायत्री महाशक्ति का स्वरूप और रहस्य

July 1991

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ऐतरेय ब्राह्मण में गायत्री शब्द का अर्थ करते हुए कहा गया है -

“गयन प्राणान् त्रायते सा गायत्री।”

अर्थात् जो ‘गय’ प्राणों की रक्षा करती है, वह गायत्री है।

प्राण कहते है चैतन्यता एवं सजीवता को। हमारे भीतर जो गति, क्रिया, विचार शक्ति, विवेक एवं जीवन धारण करने वाला तत्व है, प्राण कहलाता है। यह प्राणशक्ति ही प्रेरणा, स्फूर्ति, साहस, शौर्य, पराक्रम एवं पुरुषार्थ की जननी है। गायत्री महाशक्ति के साथ सम्बद्ध होने की प्रथम प्रतिक्रिया ही यह होती है कि साधक का प्राण प्रवाह शून्य में बिखरना रुक जाता है और उसका ऐसा संरक्षण होता है, जिससे कोई महत्वपूर्ण प्रयोजन सिद्ध किया जा सके। गायत्री उपासना प्राणशक्ति के क्षरण को रोकती है, उसकी रक्षा करती है और इस संरक्षण से लाभान्वित उपासक दिनों दिन प्रगति पथ पर अग्रसर होता चला जाता है। इस महाशक्ति का आँचल थाम कर हर कोई अपने सामान्य प्राण को महाप्राण में परिणत-विकसित कर सकता है।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए ही उस महाशक्ति का नाम उसके क्रियाकलाप, स्वभाव एवं गुणों के अनुरूप तत्वदर्शी मनीषियों ने गायत्री रखा। इस विश्वव्यापी चेतन तत्व का उल्लेख करते हुए शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है-

‘सा हैषा गायत्री गयाँस्त्रे। प्राथाः वै गयाँस्तत् प्राणाँस्तत्रे तद् यद् गायाँस्तत्रे तस्माद् गायत्री नाम।’ अर्थात् “प्राणों का त्राण करने वाली गायत्री है। उपासना करने वाले के प्राण को निर्मल एवं समर्थ बनाती है, इसलिए गायत्री कहते हैं।”

प्राणियों में जितनी तेजस्विता दृष्टिगोचर हो, समझना चाहिए कि उनमें उतना ही प्राणाँश अधिक है। प्राण शक्ति का संचय ही प्राणी को सच्चे अर्थों में शक्तिवान बनाता है। निर्जीव, निस्तेज और निष्क्रिय लोगों में इस तत्व की न्यूनता होती है और तेजस्वी-मनस्वी महामानवों में, पुरुषार्थी साहसियों में अधिकता। फिर भी यह तत्व न्यूनाधिक मात्रा में रहता सभी के अन्दर है। परमात्मा की इस पवित्र शक्ति का दर्शन हम प्रत्येक प्राणी में कर सकते हैं। इसीलिए गायत्री को जगतमय और जगत को गायत्रीमय कहा गया है। स्कन्द पुराण में इस तथ्य का रहस्योद्घाटन करते हुए कहा है- “सब लोकों में विद्यमान जो सर्वव्यापक परमात्म शक्ति है, वह अत्यन्त सूक्ष्म सत्प्रकृति ही चेतनशक्ति गायत्री है।”

अपना परिचय देते हुए इस महाशक्ति ने शास्त्रों के विभिन्न कथा-प्रसंगों में इस रहस्य का रहस्योद्घाटन किया है कि मनुष्य के अन्दर जो सचेतन विशेषता होगी, उसके मूल में ब्राह्मी-महाशक्ति का वैभव रहा होगा। धन-सम्पदा तो लोग उचित-अनुचित कई तरीकों से कमा लेते हैं, किन्तु यदि किसी का व्यक्तित्व विकसित हो रहा होगा, तो उसके अन्तराल में यही ब्राह्मी चेतना-गायत्री काम करती होगी। जिस सामर्थ्य के बल पर लोग विभिन्न प्रकार की सफलताएं उपलब्ध करते हैं, उस शक्ति को भौतिक नहीं, आत्मिक ही समझना चाहिए। आत्मबल के अभाव में समृद्धि का उपार्जन तो दूर, व्यक्ति उसकी रखवाली भी नहीं कर सकता। इस रहस्य का उद्घाटन दैवी भागवत में उसी शक्ति के श्री मुख से इस प्रकार हुआ है-

‘अहं बुद्धि रहं श्रीश्चधृतिः कीर्ति .....विद्धि पद्मज।’

अर्थात् “मैं क्या नहीं हूँ। इस संसार में मेरे सिवाय और कुछ नहीं है। बुद्धि, धृति, कीर्ति स्मृति, श्रद्धा, मेधा, लज्जा, क्षुधा, तृष्णा, क्षमा, काँति, शाँति, पिपासा, जरा, अजरस विद्या, शक्ति-अशक्ति, सत्- असत्, परापश्यन्ती आदि वाणियाँ सभी कुछ मैं ही हूँ।” समस्त सुख साधनों का वास्तविक आधार और मूल स्त्रोत वस्तुतः गायत्री है।

मानवी चेतना के आरंभिक स्तर से लेकर ऊँचे-ऊँचे अनेक दिव्य स्तर हैं। सामान्य समझदारी में जितनी चेतना है, संसार की स्वाभाविक व्यवस्था के अनुसार प्राणियों को मिलती रहती है, पर उच्चस्तरीय क्षमता प्राप्त करने के लिए उसे कुछ विशेष प्रयत्न करने पड़ते हैं। उन विशेष प्रयत्नों का नाम ही उच्चस्तरीय साधना है। इस पुण्य प्रक्रिया द्वारा पुरुषार्थी साधक अपनी आन्तरिक स्थिति इतनी विकसित कर लेते हैं कि इस निखिल महदाकाश में संव्याप्त उस ब्राह्मी महाशक्ति-गायत्री से अपना सम्बन्ध स्थापित कर सकें। यह सम्बन्ध जितना गहन और जितना प्रौढ़ परिपक्व होता है, उतनी ही उच्चस्तरीय विभूतियाँ मानस क्षेत्र में अवतरित होती हैं। यह अवतरण ही मनुष्य को महामानव, सिद्ध-पुरुष एवं अतिमानव के रूप में विकसित करता है।

लौकिक प्रयत्नों से मनोबल के स्तर को बढ़ाया जा सकता है। साँसारिक साधनों की सहायता से, अध्ययन, अभ्यास, प्रशिक्षण, प्रशिक्षण एवं परिश्रम से इतना ही हो सकता है कि गुण, कर्म, स्वभाव की व्यवस्था बन जाय उन्नति कर ली जाय पर यह उन्नति आत्मिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण नहीं कही जाती। कितने ही चतुर, सुशिक्षित, शिष्ट और व्यवहार कुशल व्यक्ति संसार में पाये जाते हैं। उन्हें सज्जनोचित आदर, सत्कार सहयोग और संतोष तो मिलता है, पर इससे आगे की विभूतियाँ उपलब्ध नहीं होती। जिन दिव्य शक्तियों के बलबूते मनुष्य महान आध्यात्मिक लक्ष्यों को प्राप्त कर सकता है। वे उसे तभी मिलती हैं जब विराट-ब्रह्माण्ड में संव्याप्त दैवी चेतना की प्रतीक शक्ति गायत्री आद्यशक्ति के साथ अपना सम्बन्ध जोड़े।

शास्त्रों में गायत्री महाशक्ति की जिन विभूतियों का वर्णन किया और महिमा-महत्ता गाई गयी है, वे सभी उसमें प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं। आवश्यकता केवल इतनी भर है कि व्यक्ति अपनी पात्रता का विकास करे और उन लाभों से लाभान्वित हो, उन विभूतियों को धारण करके दिव्य जीवन जी सकने की स्थिति तक पहुँचे। गायत्री उपासना द्वारा जो अपना जितना अधिक आन्तरिक परिष्कार कर लेता है, इसी आधार पर वह महाशक्ति अवतरित होती है। पात्रता के अनुरूप ही उसके अनुग्रह का दिव्य वरदान हस्तगत होता है जिसे पाकर-साधक सर्वतोभावेन धन्य हो जाता है।

महाशक्ति गायत्री का प्यार अनुग्रह जिसे मिला, उसे संसार की कोई वस्तु अप्राप्त नहीं रह जाती। उसके भीतर से ही दिव्य प्रेरणाएँ उठनी आरंभ हो जाती है और उनके प्रकाश में, जो सर्वसाधारण के लिए अप्रकट एवं अज्ञात है वह उसके लिए हस्तामलकवत् स्पष्ट हो जाता है। जो दूसरों के लिए लालसा एवं कामना का क्षेत्र है, वह उसकी मुट्ठी में होता है। उसे वह ऋतम्भरा प्रज्ञा मिलती है जिसके आलोक में अदृश्य को देख सकना, अनागत को समझ सकना, उसकी सामर्थ्य के अंतर्गत होता है। ऐसा व्यक्ति ऋषि बन जाता है। उसे ब्राह्मी शक्ति-गायत्री का सर्वोपरि उपहार-ब्रह्मपद प्राप्त होता है। उच्चस्तरीय विशेषताओं और विभूतियों से विभूषित यह ब्रह्मपरायण मनुष्य सामान्य दीखते हुए भी वस्तुतः देवत्व की भूमिका में ही विचरण करता है।

शक्ति तंत्र में उस महाशक्ति ने अपनी इसी विशेषता की चर्चा की है। वह जिसका पथ प्रदर्शन करती है जिसे प्यार करती है, उसे अपना सर्वोत्तम उपहार प्रदान करने में संकोच नहीं करती है। यथा-

“अहमेक स्वयमिंद वदामि जुष्ट देवभिरुत मानुषेभियं कामये तं तमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमर्षि तं सुमेधा।” अर्थात् “तत्वज्ञान की उपदेशक मैं ही हूँ। मैं जिसे प्यार करती हूँ, उसे समुन्नत करती हूँ। उसे सद्बुद्धि देती हूँ, प्रज्ञावान बनाती हूँ, ऋषि बनाती हूँ और ब्रह्मपद प्रदान करती हूँ।

परोक्ष देव सत्ताओं एवं दृश्यमान देवमानवों ऋषि-मनीषियों की महत्ता का आधार गायत्री ही है। उसका जितना अंश जिसे मिला वह उतना ही शक्तिशाली एवं प्रतिभावान हो गया। ऋग्वेद में इसे ही देवताओं का आदिस्रोत कहा गया है। नारायणोपनिषद् में इसी गायत्री तत्व का उल्लेख अदिति नाम से हुआ है। वही समस्त हलचलों का, देव, गंधर्व, मनुष्य, पितर, असुर आदि का मूल है। उसी विशाल गायत्री के गर्भ में विश्व के सम्पूर्ण प्राणी निवास करते हैं। गरुड़ पुराण में कहा गया है कि त्रिदेवों में भी जो शक्ति काम कर रही है, वह तत्वतः गायत्री ही है।

यथा-

“गायत्यैव परोविष्णु, गायत्र्यैव परः शिवः। गायत्र्यैव परोब्रह्मा, गायत्र्यैव त्रयी ततः॥”

अर्थात् गायत्री में ब्रह्मा, विष्णु, महेश की तीनों शक्तियाँ समाई हुई है। गायत्री में तीनों वेद सन्निहित हैं।

ब्रह्माजी द्वारा चारों वेद बनाये गये। उनमें ज्ञान-विज्ञान के समस्त सूत्र-संकेत समाविष्ट किये गये। इस महान रचना की प्रेरणा उन्होंने गायत्री से ही ली। वेदों की रचना का मूल आधार गायत्री है और वही विधाता की कृतियों का उद्गम प्रेरक भी। गायत्री से बढ़कर इस संसार में और कोई बड़ी शक्ति भी तो नहीं? जिसने इस महाशक्ति के स्वरूप और रहस्य को समझ लिया, जिसे गायत्री प्राप्त हो गई उसके लिए और कुछ प्राप्त करना शेष नहीं रह जाता।


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