भाव सरोवर में घुली विषाक्तता कैसे मिटे?

July 1991

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इन दिनों सबसे बड़ी तात्कालिक समस्या यह है कि हर क्षेत्र में छाई हुई विपन्नताओं से किस प्रकार छुटकारा पाया जाय और उज्ज्वल भविष्य की संरचना के लिए क्या किया जाय जिससे निरापद और सुविकसित जीवन जी सकना संभव हो सके।

प्रस्तुत कठिनाइयों का कारण अभावग्रस्तता को मान लिया गया है। इसी मान्यता के आधार पर यह सोचा जा रहा है कि साधन सुविधाओं वाली सम्पन्नता की अधिकाधिक अभिवृद्धि की जाय जिससे अभीष्ट सुख-साधन उपलब्ध होने पर प्रसन्नतापूर्वक रहा जा सके। मोटे तौर पर अशिक्षा, दरिद्रता और अस्वस्थता को प्रमुख कारणों में गिना जाता है और इनमें प्रगति के लिए ज्ञान और विज्ञान के आधार पर कुछ ऐसा, कुछ इतना उपलब्ध करने के लिए आयोजन-नियोजन किया जाता है जो अब तक उपलब्ध नहीं हो सका है। नीति निर्धारण का औचित्य भी है यह देखना यह है कि वस्तु स्थिति न समझ पाने और वास्तविक व्यवधानों के सम्बन्ध में तह तक पहुँचे बिना जिन निष्कर्षों के लिए प्रबल प्रयत्न किये जा रहे हैं या किये जाने वाले हैं वे कारगर भी हो सकेंगे या नहीं।

दरिद्रता को ही लें। मनुष्य की शारीरिक-मानसिक समर्थता इतनी अधिक है कि उसके सहारे अपना ही नहीं अपने परिवार के अनेकों का भली प्रकार गुजारा किया जा सके। साथ ही ऐसा भी बहुत कुछ बताया जा सके जो सामयिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकने वाले पुण्य परमार्थ में भी लगाया जा सके। प्रगतिशील जनों में से असंख्यों ऐसे हैं जिनके पास न तो कोई पैतृक सम्पदा थी और न बाहर वालों की ही कोई कहने लायक सहायता मिली। फिर भी वे अपनी मनस्विता और पुरुषार्थ परायणता के आधार पर आगे बढ़ते और ऊँचे उठते चले गये। सफलता के उस उच्च शिखर पर जा पहुँचे, जिसे देखते हुए उस उत्कर्ष को जादुई जैसा कहा जाने लगता है। पर वस्तुतः उन सफलताओं के पीछे एक ही रहस्य काम कर रहा होता है कि उनने अपनी उपलब्ध सुविधाओं का सुनियोजन किया और बिना भटके, मचले नियत उपक्रम अपनाये रहे। प्रकृति का समर्थन ऐसों को ही मिलता है। जन सहयोग भी उन्हीं के पीछे लग लेता है, जिनमें सद्गुणों का, सत्प्रवृत्ति का बाहुल्य होता है। इसी विधा का अनुकरण करने के लिए यदि तथाकथित दरिद्रों को भी सहमत किया जा सके तो वे आलस्य प्रमाद की दीनता हीनता की केंचुल उतार कर नये चोले में विकसित हुए सर्प की तरह अभीष्ट दिशा में अपने बलबूते ही इतना कुछ कर सकते हैं जिसे सराहा और सन्तोषप्रद माना जा सके।

इसके विपरीत यदि बाहरी अनुदानों पर ही निर्भर रहा जाय तो जो मिलता जायगा वह हाथों-हाथ फूटे घड़े में पानी भरते जाने की तरह अन्ततः खाली हाथ रहने के अतिरिक्त और कुछ पल्ले पड़ेगा नहीं। दुर्व्यसनों के रहते आसमान से बरसने वाली कुबेर की सम्पदा भी अनगढ़ व्यक्तियों के पास न ठहर कर सीधी पाताल में उतरती जायेगी। अनुदानों की योजना वैसा कुछ प्रतिफल प्रस्तुत न कर सकेगी जिसकी आशा की गयी थी।

अशिक्षा का कारण यह नहीं कि पुस्तकें, कापियाँ, कलमें मिलना बंद हो गयी है या इतनी निष्ठुरता भर गयी है कि पूछने पर कुछ बता देने के लिए कोई तैयार नहीं होता, वरन् वास्तविक कारण यह है कि शिक्षा का महत्व ही अपनी समझ में नहीं आता और उसके लिए उत्साह नहीं उभरता। पिछड़े क्षेत्रों में खोले गये स्कूल प्रायः छात्रों के अभाव में खाली पड़े रहते हैं और नियुक्त अध्यापक रजिस्टरों में झूठी हाजिरी लगा कर खाली हाथ वापस लौट जाते हैं। यदि उत्साह उमंगे तो जेल में लोहे के तसले की पट्टी और कंकड़ को कलम बनाकर विद्वान बन जाने वाले का उदाहरण हर किसी के लिए वैसा ही चमत्कार प्रस्तुति कर सकता है। उत्कण्ठा की मनःस्थिति रहते सहायकों की सहायता की कमी भी रहने वाली नहीं है।

समर्थता व्यायामशालाओं में टानिक बेचने वालों की दुकानों में नहीं पायी जा सकती है उसके लिए संयम साधना और सुनियोजित दिनचर्या अपनाने भर से अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। जबकि दूसरों का रक्त अपने शरीर में प्रवेश करा लेने पर भी उन उपलब्धियों का अन्त थोड़े ही समय में हो जाता है। काम तो अपने निजी रक्त उत्पादन के सुव्यवस्थित हो जाने पर ही चलता है।

अधिक उत्पादन, अधिक वितरण के लिए किये गये बाहरी प्रयास तब तक सफल हो सकेंगे जब तक कि मनुष्य का निजी उत्साह और आत्म विश्वास ऊँचे स्तर तक उभर न जाय। भूल यहीं होती रहती है कि मनुष्य को दीन दुर्बल, असहाय, असमर्थ मान लिया जाता है और उसकी अनगढ़ आदतों को सुधारने की अपेक्षा अधिक साधन उपलब्ध कराने की योजनाएँ बनती और चलती रहती है। लम्बा समय बीत जाने और लम्बा समय साधन खप जाने पर भी जब स्थिति यथावत बनी रहती है तब प्रतीत होता है कि कहीं कोई मौलिक भूल हो रही है। जबकि सुधारा सर्व प्रथम उसी को जाना चाहिए था।

एक भ्रम यह भी जन साधारण पर हावी हो गया है कि सम्पदा के आधार पर ही प्रगति हो सकती है। यह भ्रम इसलिए भी पनपता और बढ़ता है कि धनियों को ठाट बाट से रहते, गुलछर्रे उड़ाते देखकर यह अनुमान लगा लिया जाता है कि वे सुखी भी है और सम्पन्न भी। पर लबादा उतार कर जब इस वर्ग को नंगा किया जाता है तो ज्ञात होता है कि उसके भीतर एक अस्थिपंजर ही किसी प्रकार सांसें चला रहा है। प्रसन्नता के नाम पर उन्हें चिन्तायें ही खाये जा रही हैं। ईर्ष्या, आशंका से लेकर अपने अपनों के दुर्गुण, दुर्व्यसन स्थिति को पूरी तरह उलट कर रखे दे रहे हैं। सम्पन्नता का सदुपयोग न बन पड़ने पर उस वर्ग के लोगों को औसत नागरिक की तुलना में कहीं अधिक उद्विग्न, रुग्ण और चिन्तित देखा जाता है। चिन्ता जीवन के आनन्द का बुरी तरह अपहरण कर लेती है। बुद्धिमानों और सम्पन्नों की विशेषता ही मिलजुल कर ऐसे प्रपंच रचती रहती है जिनके आधार पर सर्वसाधारण को गई गुजरी स्थिति में पड़े रहने के लिए बाधित होना पड़े। मुड़कर देखने से प्रतीत होता है कि जब तथाकथित शिक्षा का, सम्पदा का, विज्ञान स्तर की चतुरता का इतना अधिक विकास नहीं हुआ था तब तक मनुष्य अपेक्षाकृत अधिक स्वस्थ, सुखी, संतुष्ट और हिलमिल कर मोद मानने की स्थिति में था। बढ़ी हुई समृद्धि ने तो वह सब भी छीन लिया जो मनुष्य ने लाखों वर्षों के अध्यवसाय के सहारे सभ्यता और सुसंस्कारिता, उच्चस्तरीय उपार्जन, अतीव दूरदर्शिता के साथ अर्जित किया था।

यहाँ सुविधा साधनों को दुर्गति का कारण नहीं बताया जा रहा है वरन् यह कहा जा रहा है कि उनका सदुपयोग बन पड़ा होता तो स्थिति उस समय की अपेक्षा कहीं अधिक अच्छी होती जिस समय साधन तो कम थे पर विकसित भाव चेतना के आधार पर स्वल्प उपलब्धियों का मनुष्य श्रेष्ठतम उपयोग कर लेता था और अपने को ही नहीं समूचे समुदाय को, वातावरण को सच्चे अर्थों में समृद्ध समुन्नत बनाये रहने में पूरी तरह सफल रहा करता था। सतयुग ऐसे ही वातावरण को निरूपित किया जाता रहा है।

तथाकथित प्रगति का विशालकाय सरंजाम जुट जाने पर भी भयानक स्तर की अवनति का वातावरण क्यों कर बन गया? इसका उत्तर यदि गंभीरता से सोचा जाय तो


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