नाभिचक्र जगाएँ-शक्ति के पुँज बनें

July 1991

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नाभि संस्थान को शरीर चक्र की धुरी माना गया है। मानवी काया का यह ऐसा विलक्षण केन्द्र है जिसके साथ अनेकों भौतिक और अध्यात्मिक प्रयोजन जुड़े हैं। मध्य भाग में अवस्थित होने के कारण शरीर को गतिशील रखने में यह प्रमुख भूमिका तो निभाता ही है, वैभव और वर्चस्व के ऋद्धि-सिद्धियों के भाण्डागार भी इस केन्द्र में समाहित है। इसी स्थान में मेरुदण्ड के लम्बर रीजन में शरीर का तीसरा प्रमुख सूक्ष्म शक्ति केन्द्र ‘मणिपुर’ चक्र स्थित होता है। विज्ञानवेत्ता जिसे सोलर प्लेक्सस या सूर्य चक्र के नाम से सम्बोधित करते हैं, इसका दूसरा नाम ‘अग्नि चक्र’ भी है।

एम्ब्रियोलॉजी अर्थात् भ्रूण विज्ञान के अंतर्गत नाभि संस्थान का विशेष महत्व है। जीवधारी भ्रूणावस्था से लेकर परिपक्व विकसित शिशु बनने तक जितने दिनों गर्भावस्था में रहता है, तब तक वह माता के शरीर के साथ अपने नाभि केन्द्र से एक नलिका द्वारा जुड़ा होता है जिसे अम्बिलिकल कार्ड या गर्भनाल कहते हैं। इसके माध्यम से ही जननी की प्राण ऊर्जा, रस-रक्त एवं अन्यान्य पोषक तत्व उसके शरीर में पहुँचते हैं और वह एक बिंदु कलल से विकसित होता हुआ शिशु रूप धारण करता है। प्रसव के उपरान्त ही जननी और शिशु को पृथक इकाई के रूप में अपना-अपना कार्य अपने बलबूते करने का अवसर मिलता है। इससे पूर्व नाभि मार्ग से ही शिशु पोषण प्राप्त करता है। आयुर्वेद ग्रंथों एवं योगशास्त्रों में इसीलिए नाभि केन्द्र को महत्वपूर्ण माना गया है और “नाभिस्याः प्राणिनाँ प्राणाः” कहकर उसे जीवनी शक्ति का, प्राण ऊर्जा का केन्द्र बताया है। अनुसंधानकर्ता वैज्ञानिकों ने इसे शरीर स्थित दूसरे मस्तिष्क ‘एबडोमिनल ब्रेन’ की संज्ञा दी है।

कुण्डलिनी जागरण में ‘मणिपूर चक्र’ का विशेष महत्व है। यों तो कुण्डलिनी महाशक्ति का उद्गम स्थल मूलाधार चक्र है, पर उसका उद्गम छह अंगुल ऊँचाई पर नाभि की सीध में है। मूलाधार को जो ऊर्जा अपने कार्य संचालन के लिए उपलब्ध होती है, वह वस्तुतः नाभि द्वारा ही बाहर से भीतर तक पहुँचती है। इसका प्रमुख कारण है नाभि में सूर्य का उपस्थित होना। प्राणायाम एवं ध्यान-धारणा के माध्यम से नाभि संस्थान में स्थित सूर्य तथा ब्रह्माण्ड स्थित सूर्य का योग होता है और उस स्थल से सूर्य मिश्रित प्राण ऊर्जा की सूक्ष्म कलाएँ मूलाधार तक पहुँचती है और प्रसुप्त कुण्डलिनी के जागरण में सहायक बनती है। शास्त्रों में इस सम्बन्ध में कहा गया है- ‘उदरे तु यमं विद्यादादित्यं नाभि मंडले’ अर्थात् पेट में यम और नाभि मंडल में सूर्य विद्यमान है। पातंजलि योग सूत्र 3/26 में भी नाभि केन्द्र में सूर्य की स्थिति बताई गई है और कहा गया है कि इसमें संयम करने से भुवन का अर्थात् लोक-लोकाँतरों का ज्ञान प्राप्त होता है। सूर्य से सम्बन्धित होने के कारण मणिपुर चक्र की प्रकाश किरणें संपूर्ण शरीर में व्याप्त हो जाती हैं और शरीर तथा सृष्टि का सारा रहस्य साधक के सम्मुख प्रकट हो जाता है।

अथर्ववेद में इस संस्थान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार वर्षा का केन्द्र बादल होते हैं, उसी प्रकार काया में नाड़ियों का केन्द्र नाभि स्थित सूर्य चक्र, जहाँ से निकल कर वे समूचे शरीर तंत्र को नियंत्रित करती हैं। मणि की तरह चमकदार यह संस्थान अग्नि की तरह अपना कार्य करता और जीवन की गतिविधियों को ऊर्जा-गर्मी प्रदान करता है। इसे तेजस केन्द्र भी कहते हैं।

वेद, उपनिषदों में इसी को वैश्वानर, पूषन अग्नि, सौर तेज, अंतर्ज्योति आदि नामों से सम्बोधित किया गया है। यह केन्द्र सभी प्रकार की अग्नियों का अधिष्ठाता है। इसके जागरण से शरीर की तीनों अग्नियाँ प्रदीप्त होती हैं और प्राण चेतना को ऊर्ध्वगामी बनाने में सहायक बनती हैं। अग्नि तत्व की प्रधानता होने के कारण यह प्राण शक्ति की प्रबलता का, साहस और वीरता का, संकल्प एवं पराक्रम का भी केन्द्र है। इसका सम्बन्ध निद्रा, भूख, प्यास लगने से है। प्रसुप्त पड़े रहने पर ईर्ष्या, तृष्णा, भय, घृणा, लोभ, मोह आदि के विकार ही मन में जमे रहते हैं। सामान्य परिस्थितियों में इससे मात्र जैविक गतिविधियों को संचालित करते रहने लायक ऊर्जा ही उपलब्ध होती है, किन्तु प्रयत्नपूर्वक अग्निचक्र को जाग्रत एवं विकसित कर लेने पर मनुष्य अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण पा लेता है। दुख, रोग और मृत्यु का भय उसे नहीं सताता। इसके साथ ही वह अतीन्द्रिय क्षमताओं का स्वामी बन जाता है। उस पर काया प्रवेश से लेकर दूर गमन, दिव्य दर्शन आदि अनेकों सिद्धियाँ हस्तगत हो जाती हैं। शिव संहिता 5/106-108 में ‘मणिपूर केन्द्र’ पर ध्यान करने से पाताल सिद्धि बताई गई है।

आयुर्वेदिक ग्रंथों में मणिपुर चक्र को सूर्य, अग्नि या समान वायु का केन्द्र माना गया है जो रस, धातु, मल, दोष, आम आदि का पाचन करता है। इसके असंतुलित होने या शिथिल पड़ जाने पर भोजन का पाचन ठीक ढंग से नहीं हो पाता। इसके विपरीत यह धातु और मल का अवशोषण करने लगता है और अंततः प्राण ऊर्जा को भी अवशोषित करके व्यक्ति को मृत्यु के मुख में धकेल देता है। इस संदर्भ में चिकित्सा विज्ञानियों ने गहन खोजें की है। निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए उन्होंने बताया कि नाभि मंडल स्थित मणिपुर पर ध्यान-धारणा केन्द्रित करने पर समान वायु एवं अग्नि साम्यावस्था में आ जाते हैं। सर्वप्रथम समान वायु सक्रिय होती और अग्नि को उत्तेजित करती है। तदुपरान्त यह अग्नि पाचन एवं अवशोषण में भाग लेती है। इससे न केवल शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य उत्तरोत्तर सुधरता है, वरन् वाक्शक्ति भी जाग्रत हो जाती है। सुश्रुत संहिता 66/92 में भी यही बात कही गई है। मर्मस्थल के रूप में वर्णन करते हुए कहा गया है कि यह स्थान सभी उत्पादनों का शीर्ष है। इस पर लगने वाला आघात व्यक्ति के लिए प्राण घातक सिद्ध हो सकता है।

योग राजोपनिषद् 13/92 में उल्लेख है कि सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड मनुष्य के नाभि चक्र में समाहित है, जहाँ से निकलने वाली वैद्युतीय तरंगें न केवल शरीर तंत्र को नियंत्रित करती हैं, वरन् समूचे ब्रह्माण्ड में अपने स्तर की हलचलें उत्पन्न करती हैं। यही बात गोरक्ष पद्धति 43/31 में भी कही गई है कि मणिपुर चक्र में ध्यान केन्द्रित करने से असीम शक्ति उद्भूत होती है जिसके माध्यम से साधक सम्पूर्ण संसार में हलचल पैदा कर सकता है, नवीन क्रान्तियों को जन्म दे सकता है। इसी ग्रन्थ में नाभि चक्र को कमलाकार बताते हुए कहा गया है कि इससे 24 नाड़ियाँ निकलती हैं जिनमें से दस नाड़ियाँ ऊपर की ओर जाती हैं और शब्द, रस, गंध आदि प्रक्रियाओं को नियंत्रित करती हैं। दस शिरायें शरीर के निचले भाग की ओर जाती हैं और सम्बन्धित अंग-अवयवों को नियंत्रित करती हैं। इसके अतिरिक्त चार और नाड़ियाँ निकल कर कई शाखा-प्रशाखाओं में बंट जाती हैं और छोटे-छोटे स्थानों की आपूर्ति करती हैं। यह शक्ति केन्द्र सुषुम्ना में मणि रत्नों की भाँति धागे से जुड़ा होता है, इसीलिए इसे ‘मणिपूर चक्र’ कहते हैं। शारदा तिलक में इसे दस पंखुड़ियों वाले कमल पुष्प के रूप में उल्लेख करते हुए कहा है कि यह रुद्र का स्थान है जो समस्त सृष्टि का पोषण करते हैं। इसे विकसित कर लेने पर मनुष्य सभी प्रकार की व्यथाओं एवं कामनाओं पर विजय पा लेता है। उस में परकाया प्रवेश की सामर्थ्य आ जाती है।

“जस्ट हाउ टू बैक दि सोलर प्लेक्सस” नामक अपनी खोजपूर्ण कृति में सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक एलिजाबेथ टौन ने सूर्य चक्र और उसमें सन्निहित शक्तियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। उनके नाभि मण्डल में दस पंखुड़ियों वाली कमलाकृति सूक्ष्म संरचना होती है जिसे ही सोलर प्लेक्सस कहते हैं। इस पर सविता का ध्यान करने से आत्म सूर्य अर्थात् अंतर्ज्योति मन की मलिनताएँ तथा विकृतियाँ दूर होती है और जीवन में उच्चस्तरीय उत्साह का संचार होता है। ओजस तेजस की अभिवृद्धि होती है।

नाभि चक्र सूर्य का अधिष्ठान स्थल होने के कारण तेजस का, ज्ञान शक्ति का केन्द्र है। हमारी वृत्तियों से इसका गहरा सम्बन्ध है। चैतन्य अवस्था में जब यह सक्रिय रहता है, तब भावनाएँ एवं वृत्तियाँ उच्चस्तरीय होती हैं। मन में प्रसन्नता की, स्फूर्ति की तरंगें प्रवाहित होती रहती हैं। किन्तु संकुचित अवस्था में अशुभ वृत्तियाँ उभरती और मन खिन्न तथा उदास बना रहता है। सामान्य रूप से इस शक्ति केन्द्र में सौरशक्ति का नैसर्गिक प्रवाह सतत होता रहता है। किन्तु जब कभी मनुष्य अपने स्वयं के चिन्तन, आचरण या क्रिया-व्यवहारों के द्वारा उस प्रवाह में बाधा उत्पन्न कर लेता है तो जीवन तत्व-प्राण ऊर्जा की कमी के कारण अनेकानेक आधि-व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है। सतत संकुचित रहने के कारण सम्बद्ध नाड़ी समूह कमजोर पड़ जाते हैं और अत्याधिक सिकुड़ जाने के कारण उनमें प्राण तत्व का प्रवाह रुक जाता है। इस केन्द्र में जीवन तत्व उत्पन्न करने की अद्भुत एवं असीम सामर्थ्य है।

नाभि सूर्य का प्रतीक है। प्राण चेतना की उत्पत्ति इसी केन्द्र से होती है। प्राणायाम एवं सविता साधना द्वारा वस्तुतः सूर्य चक्र का ही जागरण किया जाता है जिससे आत्मा अपना, सम्बन्ध सीधे सूर्य से जोड़कर प्राणाग्नि का विकास करती रहती है। इस केन्द्र को जाग्रत कर लेने का अर्थ है शक्तिपुँज बन जाना, महाप्राण बन जाना।


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