सद्ज्ञान वह जो सन्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दे

October 1990

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चित्र विचित्र जानकारियाँ अधिकाधिक मात्रा में उपलब्ध करते रहना मनुष्य का स्वभाव अथवा व्यसन है। जिस प्रकार पेट कुछ पाना पचाना चाहता है उसी प्रकार मस्तिष्क की माँग रहती है कि जिस प्रकार लोभवश अधिक संग्रह की ललक रहती है उसी प्रकार वह जानकारियाँ जुटाने का रसास्वादन अनुभव करता रहे। बच्चे इसी हेतु अभिभावकों, अध्यापकों से चित्र विचित्र प्रश्न पूछते रहते हैं। नानी से कहानियाँ सुनने के लिए मचलते हैं। साहित्यिक पुस्तकें पढ़े समझने की मनःस्थिति नहीं होती तो चित्र कथाओं से मन बहलाते हैं। जहाँ भी नजर जाती है वहीं से कुछ जानने समझने का प्रयत्न करते हैं। इस आधार पर उनके कौतूहल का समाधान होता रहता है।

आयु बढ़ने के साथ यह उत्सुकता और भी अधिक बढ़ती जाती है। अखबार पढ़ने, फिल्म, टीवी देखने, रेडियो सुनने, पर्यटन करने, मेले समारोहों में सम्मिलित होने का उत्साह भी इसी निमित्त बढ़ा चढ़ा रहता है। तृप्ति कभी भी नहीं होती। एक के बाद दूसरी प्रकार की जानकारियाँ प्राप्त करने की उत्सुकता उभरती है। जिस प्रकार पेट भरने, वैभव बटोरने के लिए अनवरत प्रयत्न चलते रहते हैं उसी प्रकार जानकारियों के संचय से मिलने वाले रसास्वादन हेतु भी कुछ न कुछ किया ही जाता रहता है। यह क्रम आजीवन चलता ही रहता है। यदि किसी की यह प्रकृति उभरे ही नहीं या कम उभरे तो समझना चाहिए कि उसकी मानसिकता अविकसित अपगस्तर की है।

जिस प्रकार आहार में तरह तरह के स्वादों की अपेक्षा रहती है, जिस प्रकार आँखों को नये दृश्य देखने और कानों को नये शब्द सुनने की उत्सुकता रहती है, उसी प्रकार मन को भी अपने व्यसन की पूर्ति करने के लिए कुछ न कुछ उधेड़ बुन जारी रखनी पड़ती है। उसे नवीनता चाहिए। इस कौतूहल के लिए ही नित नई पुस्तकें-पत्रिकाएं पढ़नी पड़ती है। चर्चा में कई प्रकार की जानकारियों के आदान प्रदान का सिलसिला चलता रहता है। अनेक व्यंजन चखने के लिए लोग होटलों के चक्कर काटते हैं। कामाचार के नूतन प्रसंग देखने के लिए व्यभिचार की ओर मुड़ते हैं। कुदृष्टि का तात्पर्य भी इसी प्रकार का मनोरंजन करना होता है।

यह व्यसन या स्वभाव, सम्पन्न लोगों में दृश्य, श्रव्य या स्वाद प्रदान रहता है। उनका मनोरथ इतने भर से पूरा हो जाता है पर शिक्षितों की जिज्ञासा इससे एक कदम बढ़ी-चढ़ी होती है उन्हें अध्ययन या श्रवण प्रवचन के अवसर तलाशते रहने पड़ते हैं। अत्यधिक पतन भी इसी का एक रूप है कइयों को तथाकथित सत्संगों, कथा-प्रवचनों में भी इसी स्तर का रस आता है। संगीत, नृत्य, अभिनय को भी इसी प्रसंग का एक पक्ष समझा जा सकता है। कथाएँ पढ़ना या सुनना इसी रुझान का एक पक्ष है। संसार भर में आधा साहित्य कथा कहानियों का छपता है। शेष आधे को अन्यान्य सभी विषय मिलकर पूरा करते हैं। इसे लोक रुचि के रुझान का एक प्रमाण माना जा सकता है। लोक रुचि अपने आप में एक बड़ी शक्ति एवं आवश्यकता है। उसी की पूर्ति के लिए अनेकानेक क्रिया-कलाप चलते और सरंजाम जुटते रहते हैं। इन्हें सार्थक या निरर्थक कुछ भी समझा जाय। इस प्रवाह को वस्तुस्थिति के साथ जुड़ा हुआ समझा जा सकता है। लोग इसी कौतूहल-कौतुक की पूर्ति में अपना जीवन खपा देते हैं। इतने पर भी यह नहीं कहा जा सकता कि उनके पल्ले ऐसा कुछ पड़ता है या नहीं, जिसे महत्वपूर्ण कहा जा सके।

जानकारी संग्रह करते हुए मनोरंजन का सरंजाम जुटाते रहना एक बात है और ऐसा ज्ञान सम्पादित करना दूसरी जो मनुष्य को ऊँचा उठा सके आगे बढ़ा सके। किसी अभिनन्दनीय और अनुकरणीय भूमिका को निभाने के लिए ड़ड़ड़ड़ के स्तर तक पहुँच सके, हो सकता है कि इस दिशा में चलने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रख्यात होने का अवसर न मिले पर इतना निश्चित है कि सद्ज्ञान के आधार पर सत्कर्म बन पड़ना सुनिश्चित है और वे ही निमित्त कारण है किसी के सफल जीवन एवं अग्रगामी समुन्नत बनने के। इस स्थिति में और कुछ मिल या न मिले पर इतना निश्चित है कि आत्म संतोष और अपने दिशा निर्धारण पर गर्व तो अनुभव होता ही रहता है। यह भी किसी के लिए जीवन साधना में सिद्धि प्राप्त कर लेने जैसी उपलब्धि है।

जानकारियाँ वे संग्रह की जानी चाहिए जो जीवन को सन्मार्ग पर अग्रगामी बनाने में प्रत्यक्ष और प्रमुख भूमिका निभाने में कारगर सिद्ध हो सकें। इसके अतिरिक्त जो कुछ पढ़ा सुना जाता है उसे कौतुक कौतूहल या मनोरंजन की पूर्ति भर समझना चाहिए। इसमें समयक्षेप तो हो सकता है पर समझना चाहिए कि उससे पल्ले कुछ भी नहीं पड़ने वाला नहीं है।

ज्ञान की उपयोगिता, आवश्यकता और महत्ता कम करके नहीं समझी जानी चाहिए। उसे योजनाबद्ध और दिशाबद्ध रहना चाहिए। जिस प्रकार भोजन करते समय आहार के संबंध में यह जाना परखा जाता है कि उसमें उपयोगी, पौष्टिक तत्व है या नहीं। उसी प्रकार ज्ञान सम्पादन करते समय यह कसौटी लगी रहनी चाहिए कि उसमें ऐसे तत्व हैं या नहीं, जो व्यक्तित्व और कर्तव्य को ऊर्ध्वगामी बना सकने की क्षमता रखते हैं। अन्दर से जो ऐसा हो उसी को अपनाया जाय। राजहंस प्रवृत्ति से अपने दृष्टिकोण को परिवर्तित किया जाय। नीर क्षीर विवेक का मानस बने। मोती चुगने और कीड़े छोड़ देने की प्रवृत्ति को अपनाने का प्रयास अनवरत रूप से चलता रहे। मनोरंजन के लिए जो पढ़ा सुना देखा जाना है, उसमें कटौती करके इस स्तर का ज्ञान सम्पादन करते रहा जाय जो व्यक्ति के अंतराल में समाहित प्रसुप्त महानताओं का जागरण कर सके। गुण, कर्म, स्वभाव में मानवी गरिमा के अनुरूप सत्प्रवृत्तियों को उभारने बढ़ाने, परिपक्व एवं विस्तृत, सुदृढ़ बनाने में समर्थ हो सके।

जीवन सम्पदा ईश्वर की महानतम विभूति है। उसे पाकर मनुष्य को कृत-कृत्य और धन्य बन जाना चाहिए किन्तु देखा यह जाता है कि निरर्थक भटकाव में वह अनुपम वैभव कौड़ी मोल बिक जाता है। दुश्चिन्तन और अनाचरण के फलस्वरूप ऐसा बोझ ही शिर पर लद जाता है जिससे वर्तमान विपन्नताओं से भरा रहता है और भविष्य के अन्धकारमय बनने का आधार खड़ा होता जाता है। यदि यह पहचान सकने का विवेक जगे और समय रहते सुधार निर्धारण बन पड़े तो समझना चाहिए कि एक महती सफलता उपलब्ध हुई।

ठीक इसी के समानान्तर तथ्य यह है कि गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने वाली विचारधारा का परिपोषण प्राप्त करने का सुयोग बना या नहीं। कहा जा चुका है कि ज्ञान एक प्रचण्ड शक्ति है। उसका महत्व समझा जा सके, उपयोगी स्तर अपनाया जा सके और यह ध्यान रखा जा सके कि औषधि स्तर का रसायन स्तर का ज्ञान सम्पादन किया जा रहा है या नहीं? तो समझना चाहिए कि उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने वाला भविष्य का राजमार्ग उपलब्ध हो गया। इस दृष्टि से व्यावहारिक जीवन में प्रगतिशीलता का, तत्वों का समावेश कर सकने वाला सत्साहित्य ही उपयोगिता की कसौटी पर खरा उतरता है। इसके अतिरिक्त जो बचा रहता है उसे कूड़ा करकट नहीं तो अधिक से अधिक फुलझड़ी जलाने या पतंग उड़ाने जैसा पठन मनोरंजन कहना चाहिए, जिससे समयक्षेप करने वाले विनोद के अतिरिक्त और कुछ हाथ लगता नहीं है।

सरसरी निगाह से तो रेल में बैठे मुसाफिर आसपास के दृश्यों को भी देखते चलते हैं पर उससे दृष्टि रंजन के अतिरिक्त ऐसा कुछ भी उपलब्ध नहीं होता जिससे प्रगति या समृद्धि के संदर्भ में कुछ कारगर उपलब्धि हो सके। ठीक इसी प्रकार सरसरी निगाह से पढ़ते या सुनते रहने पर भी कुछ महत्वपूर्ण हस्तगत नहीं होता। सत्साहित्य का चयन करना ही पर्याप्त नहीं वरन् होना यह भी चाहिए कि उसे पूरी तरह समझते हुए ध्यान देकर पढ़ा जा सके। न केवल ध्यान दिया जाय वरन् यह भी देखा जाय कि अपनी वर्तमान जीवनचर्या में उपयोगी प्रेरणाओं का समावेश किस हद तक किस प्रकार संभव हो सकता है। इस आधार पर थोड़ा पढ़ना भी इतना उपयोगी हो सकता है जितना कि उथले दृष्टि से पढ़े गये विशाल कलेवर वाले शास्त्र, पुराण या शोध प्रबंध भी नहीं हो सकते। पठन की सार्थकता तभी है जब उसके उपयोगी अंशों को जीवन में उतारने-कार्य रूप में परिणत करने की योजना भी बनती रहे।

युधिष्ठिर ने पाठशाला में प्रथम पाठ पढ़ा- ‘‘सत्यबंद”। दूसरे सभी साथी उसे दूसरे दिन ही याद करके ले आय। पर युधिष्ठिर उसे समझ पाने में असमर्थता ही प्रकट करते रहे। कई दिन बीत जाने पर भी पाठ न सुनाया जा सका तो गुरु ने तमक कर पूछा कि ऐसा क्यों? युधिष्ठिर ने कहा “मैं यह योजना बना रहा हूँ कि पाठ में सन्निहित सत्यनिष्ठ जीवन कैसे जिया जाय? उस मार्ग में आने वाली कठिनाइयों से किस प्रकार निपटा जाय?”

हुआ यही। अन्य विद्यार्थियों ने अनेकों पाठ याद कर लिये। कितनी ही पुस्तकें पढ़ डाली, पर युधिष्ठिर उस आरंभिक पाठ को ही जीवन का अविच्छिन्न अंग बनाने की योजना में निरत रहे। उनने वैसा ही कर भी दिखाया। उस एक ही पाठ के प्रभाव से वे धर्मराज युधिष्ठिर के नाम से प्रख्यात हुए। उनका इतिहास अमर हो गया। एक ही राजमार्ग अपनाकर लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ हुए।

सर्व साधारण की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति ज्ञानार्जन के सम्बन्ध में ऐसी ही होनी चाहिए। विषैला, दूषित भोजन कोई नहीं खाता। पशु प्रवृत्तियों को भड़काने वाला साहित्य किसी को भी नहीं पढ़ना चाहिए। भले ही उस घटिया मनोरंजन की अपेक्षा प्रकृति सान्निध्य में पेड़ पौधों से पशु पक्षियों से, कीट-पतंगों से मानसिक वार्तालाप करना पड़े।

इसी प्रकार कुसंग से मिलने वाले श्रवण, परामर्श से भी बचना चाहिए। भले ही वह तथाकथित सत्संग, प्रवचन कीर्तन आदि के साथ ही क्यों न मिला हो। धार्मिक क्षेत्र में कथा श्रवण आदि के नाम पर प्रायः ऐसी ही अफीम खिलाई जाती रहती है जो अन्य विश्वास उपजाती और दिशा भ्रम में धकेल कर उस मार्ग पर घसीट ले जाती है जिस पर कदम बढ़ाने वाला हर दृष्टि से घाटा ही घाटा उठाता है। जहाँ ऐसा माहौल हो वहाँ तथ्यों की कसौटी पर कस कर विवेक का आश्रय लेकर उपयोगिता-अनुपयोगिता का निर्णय करना चाहिए। सत्संग, प्रवचन, परामर्श के नाम पर कहीं भटकाव तो गले नहीं उतरा जा रहा है इस यथार्थता को भली भाँति जान लेना चाहिए। इसके बाद ही उस कथोपकथन के संपर्क में आना चाहिए। अन्यथा विचारों के आदान-प्रदान में दिग्भ्रान्त तत्वों के साथ संपर्क स्थापित करने की अपेक्षा प्रकृति के सौंदर्य भरे घटकों के साथ अन्तः संवेदनाओं के आधार पर मौन वार्तालाप करते रहना चाहिए। वहाँ नीरवता रहने पर भी धुआँधार कथोपकथन की अपेक्षा अधिक श्रेयस्कर सामग्री हस्तगत हो सकती है


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