पत्रों से झाँकता एक विराट पुरुष का व्यक्तित्व

October 1990

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आज के युग में चारों ओर दृष्टि डालते हैं तो छलावा, दुरभि सन्धियाँ, आपसी व्यवहार में कर्कशता ही दिखाई पड़ती है। दैनन्दिन जीवन की कठिनाइयों, प्रतिकूलताओं से परेशान मन शान्ति चाहता है दिलासा चाहता है, उसका मन करता है कि कोई अपना स्नेह भरा हाथ उसकी पीठ पर भी फिराए। किन्तु उद्विग्न करने वाले, जीवन का निषेधात्मक पहलू दिखाने वाले अधिक एवं जीवन को ऊँचा उठाने की प्रेरणा देने वाले कम ही देखे जाते हैं। साहित्य यह सेवा कर सकता था व व्यक्ति के मनोबल को ऊँचा उठाकर उसे सृजनात्मक दिशा दे सकता था। किन्तु वहाँ से भी हताशा ही हाथ लगती है। उसमें समाज में फैली विपन्नताओं, कष्ट कठिनाइयों का अच्छा खासा चित्रण रहता है जो व्यक्ति को सोचने की, जीने की सही दिशा देने के स्थान पर उसमें निराशा का संचार करता रहता है। ऐसी परिस्थितियों में विश्वास नहीं होता कि मात्र अपनी लेखनी के जादू से कुछ पंक्तियों द्वारा ममत्व भरा परामर्श देकर एक सामान्य से दीखने वाले सद्गृहस्थ ने ने केवल अनगिनत व्यक्तियों में नूतन प्रेरणा का अभिसंचार किया वरन् प्रगति की दिशा दिखा कर उन्हें महामानव बनने नवसृजन का निमित्त बन जाने तक का श्रेय प्रदान किया।

जिस युग पुरुष ने यह अपौरुषेय पुरुषार्थ संपन्न किया, हमारे बीच जो विगत पाँच दशक से हमारा अपना ही एक अभिन्न अंग बनकर हमारे हृदय पर राज्य करता रहा, उसके इस पहलू को इस तथ्य से जाना जा सकता है कि लगभग पचास पूज्य गुरुदेव पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी के हाथ से लिखे, मूर्च्छितों में भी प्राण फूँकने वाली संजीवनी से ओत−प्रोत प. अभी भी सुरक्षित हैं। यही पत्र इन साधकों के जीवन की अमूल्य निधि हैं व वे उन्हें स्मरण करते रहने के लिए सदैव उन्हें छाती से लगाए रखेंगे। अब स्थूल रूप से वे तो हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनका बहुमूल्य परामर्श जो दैनन्दिन जीवन संबंधी था, साधना से जुड़ा हुआ था तथा अन्तरंग की गहन पत्तों को उखाड़ कर अंतःकरण की चिकित्सा करता चलता था, इन पंक्तियों के रूप में हमारे पास अभी भी है। पत्र लेखन की यह शैली संभवतः आने वाले वर्षों में अनगिनत छात्रों के लिए शोध का विषय बन। फिर भी जो इस पक्ष से अभी तक अनभिज्ञ हैं, संभवतः उन दिनों नहीं बाद में इस महामानव व ऋषि युग्म के तंत्र से जुड़े हों, उनको लाभान्वित करने के लिए ऐसे कुछ पत्रों के महत्वपूर्ण अंश यहाँ प्रकाशित किये जा रहे हैं।

21-6-1951 को लिखे गए अपने एक पत्र में पूज्य गुरुदेव अपने एक परिजन को लिखते हैं-”आप हमारी आत्मा के टुकड़े हैं। इस मानव शरीर से परम निस्वार्थ एवं सात्विक प्रेम जितना कोई किसी से कर सकता है, उतना ही हम आप से करते हैं। यह आप से कहने की नहीं वरन् मन में रखने की बात है। आप विश्वास रखें, जब तक हम जीवित हैं, आपको सदा ही अविरल पितृप्रेम प्राप्त होता रहेगा।” इसी प्रकार 5 दिसम्बर 1950 को एक आत्मीय शिष्य को अपने पत्र में वे लिखते हैं -”आप अपनी आत्मा के एक भाग है। आप जैसे स्वजनों को भूल जाने का अर्थ है अपने आपको भूल जाना। यह किसी प्रकार भी संभव नहीं है। आपके आत्मिक विकास का हमें पूरा पूरा ध्यान है।”

मनोदशा सब की यदाकदा गड़बड़ाती रहती है। ऐसी स्थिति में सही मार्गदर्शन मिलें तो कहाँ से? हर व्यक्ति हर समय तो चलकर किसी के पास जाकर अपनी मन की बात कहता नहीं रह सकता। ऐसी स्थिति में अगणित परिजन अपने मन की बात पूज्य गुरुदेव को लिख भेजते व हल्के हो जाते क्योंकि वे निश्चिन्त थे कि उनके मन पर छाया घटाटोप इसके साथ ही मिट जाएगा। समाधान भी ऐसा मर्मस्पर्शी आता कि व्यक्ति अंदर से हिल जाता था। एक सज्जन को ऐसी ही परिस्थितियों में लिखे गए एक पत्र का जवाब इस प्रकार मिला “हमारे आत्मस्वरूप,

आपका पत्र मिला। धूप-छाँह की तरह मनुष्य के जीवन में तीनों के उभार आते रहते हैं। समुद्र में ज्वार भाटे की तरह मन भी कई बार उतार चढ़ाव के झोंके लेता रहता है। महाभारत के बाद पाण्डवों न श्री कृष्ण जी से युद्ध के समय कही हुई गीता पुनः सुनाने की प्रार्थना की तो श्री कृष्ण जी ने उत्तर दिया कि उस समय मेरी जो आत्मिक स्थिति थी, वह अब नहीं है, इसलिए वह गीता तो नहीं सुना सकता पर दूसरा उपयोगी ज्ञान “अनुगीता” के नाम से सुनाता हूँ। इस प्रसंग से यह विदित होता है कि बड़े-बड़े की मनोदशा में भी उभार आते रहते हैं। आपको भी वैसा हुआ हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। बदली हटते ही सूर्य का प्रकाश प्रकट हो जाएगा। आपका आधार बहुत मजबूत है। उसे पकड़े रहने वाले व्यक्ति की कभी दुर्गति नहीं होती।” यह पत्र 21 नवंबर 1952 को लिखा गया था। कितना सशक्त मनःचिकित्सक के स्तर का प्रतिपादन है एवं प्रमाणित करता है कि यदि व्यक्ति की अंतरंग परतों को स्पर्श कर मनःस्थिति ठीक बनाये रखने का परामर्श दिया जाय तो उन्हें ऊँचा उठने हेतु समर्थ आधार दिया जा सकता है। पूज्य गुरुदेव ने आजीवन यही सेवा की।

12-11-1953 को एक अखण्ड-ज्योति पाठक को लिखे एक पत्र में पूज्य आचार्य श्री लिखते हैं “आप हमें हमारी आत्मा के समान प्रिय हैं। हम सदा आपके समीप हैं। जिस क्षण भी आप आवश्यकता समझें, आपके घर पहुँचने को अविलम्ब, तत्पर हैं।” यही नहीं वे पत्रों में ममत्व भरे मार्गदर्शन के साथ रचनात्मक दिशा निर्देश भी दिया करते थे। इसी पत्र में वे लिखते हैं-”आपका समय अमूल्य है। इसे आत्मवत् ही महत्त्वपूर्ण कार्यों में लगाना है। आपके आसपास का मण्डल आपके द्वारा आत्मिक ज्ञान के प्रकाश से आलोकित होगा। इस दिशा में आपको विश्वमित्र और भगीरथ जैसा प्रयत्न करना है। राजनीतिक झंझटों से आपकी शक्ति बचा कर उसी क्षेत्र में लगायी जानी है। आप इस के लिए तैयारी करते रहने में संलग्न रहें।”

यही मार्गदर्शन व्यक्ति की प्रसुप्त क्षमताओं को उभार कर कहाँ से कहाँ पहुँचा देता था। जो आज राजनीति के शीर्ष पर हैं, समाज सेवा के क्षेत्र में काफी ऊँचे सोपानों को पार कर चुके हैं उन्हें समय समय पर मिला बहुमूल्य मार्गदर्शन ही मूल प्रेरणा का स्रोत बना।

अपनी तप तपसाधना से औरों को लाभान्वित करना ही सदैव पूज्य गुरुदेव का लक्ष्य रहा। वे 21 जनवरी 1955 को लिखे गए एक पत्र में एक घनिष्ठ आत्मीय को लिखते हैं-”हम अधिक शक्ति प्राप्त करने जा रहे हैं और उसका परिपूर्ण लाभ आपको मिलने वाला है। आपके साथ हमारी आत्मा अविच्छिन्न रूप से जुड़ी हुई है और वह तब तक जुड़ी रहेगी जब तक हम दोनों पूर्णता का लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेते।”

परिजन विभिन्न साधनाओं की जटिलताओं में उलझकर उनसे मार्गदर्शन लेते थे। कोई कुण्डलिनी, चक्रवेधन तथा कोई हठयोग अथवा विरक्ति प्रधान साधना का विधान जानने व मार्गदर्शन प्राप्त करने का हठ करता तो उनका उत्तर यों होता था- “शबरी, निषाद, रैदास, आदि अनेक साधारण स्थिति के साधक बिना विशिष्ट योग साधनाओं के ही उच्च लक्ष्य को प्राप्त कर सके थे। आप भी वैसा ही कर सकेंगे। गृहस्थ त्यागने की, नौकरी छोड़ने की आपको आवश्यकता न पड़ेगी। कोई चमत्कारिक अनुभव आपको भले ही न हो पर आप गृहस्थ योग की भूमिका का ठीक प्रकार पालन करते हुए योगी और यतियों की गति प्राप्त कर लेंगे। आप इस संबंध में पूर्ण निश्चिन्त रहें और सब सोचना विचारना हमारे ऊपर छोड़ दें।” यह पत्र 21 फरवरी 1954 को एक जिज्ञासु आत्मीय परिजन को लिखा गया था। इससे प्रतिपादित होता है कि वे साधक के भटकने की सारी संभावनाओं की जानकारी रखते हुए मनःस्थिति के अनुरूप एक चिकित्सक के स्तर का ऐसा परामर्श देते थे जिससे कोई आकस्मिक कदम न उठाकर व्यक्ति सहज जीवन साधना के पथ पर सुगमतापूर्वक चलता रह सके।

आध्यात्मिक यात्रा ठीक चल रही है या नहीं इस संबंध में अपने सारगर्भित पत्र में वे लिखते-”साँसारिक झंझट तो आपके साथ इसलिए चलते रहेंगे कि जिसका जितना आपको देना-लेना है, उसको चुकाने की व्यवस्था करनी है ताकि आगे के लिए कोई हिसाब किताब ऐसा न रह जाय जो बन्धन कारक हो। आपका वर्तमान कालीन कोई कर्म बंधन कारक न बनने दिया जायेगा। उसका तो हम स्वयं परिमार्जन करते रहते हैं। उसकी तनिक भी चिन्ता नहीं करनी है। चिन्ता तो केवल पूर्व संचय की है जिसका लम्बा हिसाब-किताब इसी जीवन में बेबाक करना आवश्यक है।” कितना आश्वासन देता था यह कथन उस व्यक्ति को जो कर्म, बंधन, मोक्ष की ऊहापोह में फँसा इधर-उधर भटकता रहा था। अपनी समस्या पत्र पाते ही सुलझती देख सहज ही भावनाशील परिजन कभी कभी कुछ राशि “अखण्ड-ज्योति संस्थान” के नाम भेज देते, तब उनका जवाब होता था- “आपका भेजा हुआ (211) का मनीआर्डर मिला। आपके पैसे इतनी उच्चकोटि की श्रद्धा से भरे होते हैं कि उनको व्यक्तिगत उपयोग में लाते हुए हमारा अन्तःस्तल काँप जाता है। इन्हें पचाने के लिए उच्चकोटि का ऋषित्व अपने अन्दर होना आवश्यक है। इसलिए आमतौर से आपके पैसों को परमार्थ में लगा देते हैं यदि इस राशि का अन्न का एक कण भी हमारे उपयोग में आएगा तो उतने दिन की हमारी तपश्चर्या एवं सेवा साधना आपकी होगी व पुण्य आपको हस्तान्तरित होगा।”

क्या यह पंक्तियाँ पढ़ते हुए पाठकों को नहीं लगता कि इस पुरुष ने अपने वर्तमान विशाल परिकर को बनाने, संगठित करने के लिए कितने प्रचण्ड स्तर की तपश्चर्या की है? जिसने धनाध्यक्षों के धन को ठुकरा दिया, स्वेच्छा से भेजे गए परिजनों की राशि को सत्प्रयोजनों में लगा दिया वह निश्चित ही नरसी मेहता के, बापा जलाराम के स्तर का उच्चकोटि का साधक रहा होगा जिसे पुण्य के बीजों को बोने के बदले में अनगिनत मूल्य वाली फसल काटने को मिली। लाखों की श्रद्धा, सद्भावना निस्पृहता, निर्लोभिता की कड़ी परीक्षा से गुजर कर ही अर्जित की जा सकती है, इस तथ्य का साक्षी रहा है पूज्यवर का जीवन। जो बाबाजी बिना तपे आशीर्वचनों की मृगमरीचिका में, अपने शारीरिक गठन एवं आकर्षक व्यक्तित्व के माध्यम से शिष्यगणों को उलझाते व ठगते रहते हैं, उन के लिए यह एक सिखावन है कि पहले देना सीखो, तुम्हें मिलता स्वतः जाएगा। समाजरूपी खेत में बोए दानों की फसल ढेरों सोना उगल सकती है

यदि निस्पृह भाव से समाज देवता की आराधना की गयी हो?

उपयुक्त मार्गदर्शन पाकर साधक स्तर के अंतःकरण वाले सहज ही उन्हें पत्र लिखकर अपना गुरु बनाने को लिखते व पूछते कि इस के लिए उन्हें क्या करना चाहिए? 24 जनवरी 1945 को लिखे एक पत्र में वे परिजन को संबोधित करते हैं- “गुरु तत्व में हम सब की वैसी ही निष्ठा होनी चाहिए जैसी कि अपने मन में धारण करने का आप प्रयत्न कर रहे हैं। परन्तु इतना स्मरण रखना चाहिए कि मनुष्य आखिर मनुष्य ही है। उसमें दोष होना संभव है। मुझे आम निर्दोष न समझें। इतना मानने - समझ लेने के बाद ही अपनी निष्ठा को केन्द्रीभूत करें। देवता मान लेने से आपकी साधना को हानि पहुँच सकती है।” कितना बेबाक स्पष्टवादी मार्गदर्शन है। यहाँ यह बताना उचित होगा कि उस समय वे “मैं क्या हूँ?” जैसी गूढ़ उपनिषद् स्तर की पुस्तक लिख चुके थे। तथापि सभी को सत्साहित्य पढ़ते रहने व सत्यधर्म की दीक्षा लेने का ही आग्रह करते थे। गुरुदीक्षा तो उनने तब देना आरंभ की जब चौबीस लक्ष के चौबीस महापुरश्चरण पूरा कर उनने पूर्णाहुति कर ली। ज्येष्ठ सुदी 10 गायत्री जयन्ती 1953 (संवत् 2010) को उनने अपने जीवन की पहली दीक्षा तीस साधकों को देकर एक महान शुरुआत की। लगभग पाँच करोड़ व्यक्तियों को मात्र 36-37 वर्ष में अध्यात्म पथ पर दीक्षित कर जिसने उच्च प्रगति के सोपानों पर चढ़ा दिया हो वह स्वयं शक्ति अर्जित किए बिना औरों को अनुदान कैसे देता? यही कारण था कि उनके सत्परामर्श मनोवैज्ञानिक, आध्यात्मिक सूत्रों से युक्त होते थे।

ईश्वर भक्ति संबंधी परामर्श भी अध्यात्म पथ के पथिक अपनी ओर से उन्हें दिया करते थे, जिसे वे सिरमाथे रख अपनी महानता का परिचय देते थे। एक पत्र जो फरवरी 1946 में लिख गया, वे लिखते हैं -”ईश्वर भक्ति संबंध में आप का विचार ही हमें अधिक उचित प्रतीति होता है। राम और कृष्ण यद्यपि ऐतिहासिक पुरुष भी हुए हैं पर उनसे हमारे इष्टदेव भिन्न हैं? व्यक्ति आदर्श हो सकते हैं, ईश्वर नहीं। ईश्वरीय सत्ता वाले राम या कृष्ण की अन्तःकरण में धारणा करनी चाहिए। ऐतिहासिक राम, कृष्ण के चरित्रता के में कुछ दोष भी हैं उनको इष्टदेव मानने से हम घाटे में रहेंगे। ध्यान प्रतिमा-इष्टदेव उच्च आदर्शों एवं दिव्य गुणों से ही सम्पन्न होनी चाहिए। मानवीय दोषों का उनके साथ समन्वय कर देने से उलझनें बढ़ जाती हैं। अच्छा हो आप भी एक आदर्श नियत कर लें। राम, कृष्ण या बुद्ध की प्रतिमाएँ ध्यान के योग्य उत्तम हैं। आप हमें या किसी अन्य जीवित पुरुष को उस आसन पर बिठाने की भूल न करें।”


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