दिव्य प्रकाश-अवतरण की ध्यान-साधना

October 1990

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अध्यात्म विज्ञान में प्रकाश साधना का विशेष महत्व है। अध्यात्मशास्त्रों में स्थान-स्थान पर इसकी चर्चा की गई है। यह प्रकाश सूर्य, चन्द्र आदि से निकलने वाला भौतिक प्रकाश नहीं, वरन् वह परम् ज्योति है जो इस विश्व चेतना का आलोक बन कर जगमगा रही है। गायत्री का उपस्थ सविता देवता इसी परम ज्योति को कहते हैं। इसका अस्तित्व ऋतंभरा प्रज्ञा के रूप में प्रत्यक्ष और कण-कण में संव्याप्त जीवन ज्योति के रूप में प्रत्येक व्यक्ति अपने में भी देख सकता है। गायत्री उपासना में इसी दिव्य प्रकाश को परम ज्योति को अपने अन्तः भूमिका में अवतरण करने और उससे समूचे व्यक्तित्व को प्रकाशित करने के लिए साधक सविता देवता का ध्यान करता है। इसकी जितनी मात्रा जिसके भीतर विद्यमान हो, समझना चाहिए कि उसमें उतना ही अधिक ईश्वरीय अंश आलोकित हो रहा है।

प्रकाश-साधना वस्तुतः एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसमें साधक अपने भीतर के काले मटमैले और पापाचरण को प्रोत्साहन देने वाले प्रकाश अणुओं को दिव्य तेजस्वी, सदाचरण शान्ति और प्रसन्नता देने वाले प्रकाश अणुओं में परिवर्तित करता है। विकास की इस प्रक्रिया में उत्तरोत्तर अभिवृद्धि करते हुए वहाँ तक जा पहुँचना होता है जहाँ व्यष्टिगत आत्मचेतना को ब्रह्माण्डव्यापी समष्टिगत परमात्म चेतना का सान्निध्य प्राप्त हो जाता है और अंततः वह उसी में तिरोहित हो जाती है। सविता साधना से इसी उद्देश्य की पूर्ति होती है। गायत्री के देवता सविता की आराधना भीतर के दूषित प्रकाश अणुओं पाप-तापों एवं कषाय-कल्मषों को धो देती है और उनके स्थान पर दिव्य प्रकाश भर देती है जिससे समूचा जीवन ही ज्योतिर्मय हो उठता है। इस उपक्रम को अपनाकर हर कोई अपनी जीवन ज्योति को प्रकाशित-प्रज्ज्वलित कर सकता है। ज्योति साधना का उद्देश्य भी यही है।

शास्त्रों में उल्लेख है कि सूर्य ही अग्नि है, अदिति भी उसी का नाम है सविता के रूप में गायत्री का अधिष्ठाता वही है जो सृष्टि में नवीन प्राण चेतना स्फुरित करने की क्षमता से उत्पन्न है। वही सर्वगुण सम्पन्न सविता प्रकाश और ताप के रूप में शक्ति एवं ऊर्जा के रूप में सर्वत्र विद्यमान है। प्राणों की रक्षा करने वाला होने से उसका सीधा सम्बन्ध मानव जीवन से है। सूर्य की 36 हजार प्रकाश-रश्मियां हैं जो प्राण चेतना के रूप में मानव मस्तिष्क के मध्य में स्थित ब्रह्मरंध्र के द्वारा प्रतिदिन एक के क्रम से अन्दर प्रविष्ट करती रहती हैं और इस तरह जीवन निर्वाह के लिए सविता का एक प्राण मनुष्य को प्रतिदिन उपलब्ध होता रहता है। आधुनिक वैज्ञानिक मनीषी भी इस तथ्य की पुष्टि करते हुए कहते हैं कि हम सभी सूर्य के आन्तरिक भाग में निवास करते हुए उससे संयमित हैं। हमारे प्रत्येक अंग-अवयव उसी से अदृश्य रूप से उत्तेजना ग्रहण करते और प्राण ऊर्जा से लाभान्वित होते हैं।

अध्यात्मवेत्ता वैज्ञानिक मनीषियों के अनुसार प्रकाश साधना के समय सविता के ध्यान से हमारे मस्तिष्क का चुम्बकत्व सूर्य के प्रकाश कणों के चुम्बकत्व को आकर्षित करता और ग्रहण करता हुआ हमारी प्राणचेतना में दिव्यता का अभिवर्धन करता रहता है। प्रकाश ऊर्जा या प्राण शक्ति का आकर्षण मस्तिष्क के मध्यभाग से करने का विधान है, जिसे ‘ब्रह्मरंध्र ‘ कहा जाता है। यही वह शक्ति केन्द्र है जहाँ से मस्तिष्क शरीर का नियंत्रण करता और विश्व में जो कुछ भी मानवकृत विलक्षण विज्ञान दिखाई देता है, उनका सम्पादन करता है। इसी मध्यभाग से प्रकाशकणों का एक फव्वारा सा फूटता रहता है। उसकी उछलती हुई तरंगें एकवृत्त बनाती हैं और फिर अपने मूल उद्गम में लौट जाती हैं। यह प्रक्रिया रेडियो प्रसारण और संग्रहण जैसी है। ब्रह्मरंध्र से निस्सृत प्रकाश ऊर्जा अपने भीतर छिपी हुई भाव स्थिति को विश्व ब्रह्माण्ड में ईथर कंपनों द्वारा प्रवाहित करती रहती है और इस प्रकार मनुष्य अपनी चेतना का प्रभाव समस्त संसार में फेंकता रहता है। प्रकाश किरणों की लौटती हुई धाराएँ अपने साथ विश्वव्यापी असीम ज्ञान चेतना की नवीनतम घटनात्मक तथा भावनात्मक जानकारियाँ लेकर लौटती हैं यदि उन्हें ठीक ठीक समझा, आकर्षित किया और अवधारित किया जा सके तो कोई भी व्यक्ति भूत, भविष्य और वर्तमान काल की अत्यन्त सुविस्तृत और महत्वपूर्ण जानकारियाँ प्राप्त कर सकता है। मनुष्य में सूक्ष्म आदान-प्रदान की, प्रवाह ग्रहण करने और प्रसारित करने की जो क्षमता है, उसका माध्यम यह ब्रह्मरन्ध्र स्थित ध्रुव संस्थान ही है।

सुविख्यात वैज्ञानिक मनीषी डॉ. जे. सी. ट्रस्ट का कहना है कि मनुष्य शरीर की प्रत्येक कोशिका प्रकाश चेतना से भरी होती है। सूक्ष्मदर्शी यंत्र उपकरणों के माध्यम से किये गये विशेष परीक्षणों में देखा गया है कि प्रत्येक कोशिका अपने आप में प्रकाश पुँज है और उसमें से टिमटिमाता हुआ प्रकाश निकलता रहता है। यह प्रकाश अणु ही मनुष्य के यथार्थ शरीर का निर्माण करते हैं और पंच महाभूतों से विनिर्मित काया को स्थिरता प्रदान करते हैं। प्रकाश की ध्यान−धारणा इन्हें परिपुष्टता और दिव्यता प्रदान करती है। उनके अनुसार स्वभाव, संस्कार, इच्छाएँ क्रिया शक्ति यह सब इन्हीं प्रकाश अणुओं का खेल है। मनुष्य का जो कुछ भी स्वभाव आज दिखाई देता है, वह इन्हीं प्रकाश किरणों की उपस्थिति के कारण है। इतना ही नहीं जन्म-जन्मान्तरों तक खराब प्रकाश अणुओं की यह उपस्थिति मनुष्य से बलात् दुष्कर्म कराती रहती है और इस तरह वह पतन के खड्ड में बार-बार गिरता और अपनी आत्मा को दुखी बनाता रहा है। जब तक दूषित प्रकाश कणों को निष्क्रिय नहीं बना दिया जाता अथवा उन्हें मिटाकर शुभ और दिव्य प्रकाश से अपने आपको परिपूरित नहीं बना लिया जाता तब तक परिस्थितियों में कोई कहने लायक विशेष परिवर्तन नहीं हो पाता। प्राचीन ऋषि मनीषियों ने दिव्य ज्योति की निराकार ध्यान साधना का निर्धारण इसी निमित्त किया था। सविता की दिव्य प्रकाश ऊर्जा को जो मनुष्य जितनी अधिक मात्रा में आकर्षित कर लेता है, वह उतना ही श्रेष्ठ, सद्गुणी एवं ओजस् तेजस् वाला बन जाता है। यदि इस विज्ञान को समझा जा सके और श्रद्धा भावनापूर्वक ध्यान उपक्रम को अपनाया जा सके, तो न केवल अपना जीवन शुद्ध, सात्विक दिव्य एवं सफल बनाया जा सकता है, वरन् औरों को भी लाभान्वित किया जा सकता है। परलोक और सद्गति का आधार यह दिव्य प्रकाश चेतना ही है।

आत्मचेतना जिन अणुओं से अपने को अभिव्यक्त करती है, वह प्रकाश अणु ही है, जबकि आत्मा स्वयं उससे भिन्न है। प्रकाश अणुओं को प्राण ऊर्जा, विधायी शक्ति, अग्नि, तेजस् आदि कहने चाहिए। वह जितने शुद्ध, दिव्य एवं तेजस्वी होंगे, साधक उतना ही महान ओजस्वी, तेजस्वी, यशस्वी, एवं वर्चस् वाला होगा। महापुरुषों, तपस्वी, ऋषि-मनीषियों में से प्रत्येक को अपने दूषित प्रकाश अणुओं को हटाने और दिव्य अणुओं से आप्लावित करने की साधना करनी पड़ी है। “तमसो मा ज्योतिर्गमय “ की प्रार्थना में इसी दिव्य प्रकाश की याचना का भाव सन्निहित है। इसकी विधि अत्यंत सरल, किन्तु महान प्रतिफल प्रदान करने वाली है।

दिव्य प्रकाश की निराकार ध्यान साधना अरुणोदय काल में सम्पन्न की जाती है, जब पूर्व दिशा की ओर अरुणिमा युक्त स्वर्णिम आभा के साथ भगवान सविता अपने समस्त वरेण्य, दिव्य भर्ग, ऐश्वर्य के साथ उदय होते हैं। यों तो सामान्य जप के साथ सूर्य मंडल मध्यस्थ भगवती गायत्री का ध्यान करने का विधान है, किन्तु इस साधना में गायत्री माता की छवि का स्थान सविता का दिव्य तेजोवलय ले लेता है। ध्यान मुद्रा में बैठकर भावना करनी पड़ती है कि हमारी प्राणचेतना अन्तरिक्ष की यह विशाल दूरी पार करने के लिए निकल पड़ी है। भावना की प्रगाढ़ता के लिए पृथ्वी और आकाश के विविध काल्पनिक दृश्यों को मानस पटल पर उभारना पड़ता है। धीरे-धीरे प्राणों को सविता के प्रकाश में डुबो देते हैं। मन हठात् भागना चाहे तो अनन्त सितारों की जगमग के मनोहारी दृश्य दिखा कर उसे फिर उसी सूर्य के प्रकाश में उतारा जाता है और दृढ़ भावना की जाती है कि अपनी प्रकाश चेतन में सम्मिलित कालिमायुक्त दूषित अणु पाप-ताप और अहंताएँ नष्ट होती जा रही हैं। अपने और सविता के प्रकाश में कोई अन्तर नहीं रहा। समस्त सौर मण्डल में अपनी ही प्रकाश चेतना-प्राण चेतना प्रतिभासित हो रही है। उसी प्रकाश स्फुल्लिंग से वृक्ष-वनस्पति बने हुए हैं। उसी से ब्रह्माण्ड गतिमान हो रहा है। साक्षी और द्रष्टा रूप में अपनी ही आत्मचेतना सर्वत्र संचरण कर रही है। समस्त प्राणि जगत में अपना ही प्राण समाया है और सबको परिचालित कर रहा है।

इस तरह दिव्य प्रकाश की ध्यान धारणा में सूर्य का तेजोमंडल मात्र भौतिक प्रकाश न रह कर ब्राह्मी चेतना की दिव्य ज्योति बनकर अनुभूति में उतरती चली जाती है। श्रद्धा-विश्वास की अभिवृद्धि के साथ ही ध्यान की प्रगाढ़ता जितनी अधिक बढ़ती जाती है, दिव्य दृष्टि का उतना ही अधिक विकास होता है। तन्मयता एकाग्रता जितनी बढ़ेगी, पुलकन और दिव्यता का अंश भी बढ़ता चलता चला जायेगा। ब्रह्मतेज से अनुप्राणित होने और ओजस्वी, तेजस्वी, मनस्वी बनने में सविता की प्रकाश साधना अतीव लाभकारी सिद्ध होती है। यह एक सुनिश्चित तथ्य है।


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