किसलिए मिली है यह सुरदुर्लभ काया?

October 1990

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प्रातः सूर्य के उदय होते ही जिन्दगी का एक नया दिन शुरू होता है। इस तरह रोज एक दिन उम्र से घट जाता है। जन्म लेने के बाद से ही आयु क्षय का यह कार्यक्रम शुरू हो जाता है किन्तु अनेक प्रकार के कार्यभार से बढ़े हुए विभिन्न क्रिया व्यापारोँ में लगे रहने के कारण इस प्रकार नष्ट हुए समय का पता नहीं चलता। ऐसे अवसर प्रायः प्रतिदिन आते है जब हम जीवों के जन्म वृद्धावस्था विपत्ति रोग और मृत्यु के कारुणिक विचार प्रेरक दृश्य देखते है किन्तु कितना मदाँध कामनाग्रस्त और अविवेकी है इस धरती का मनुष्य कि वह सब कुछ देखते हुए भी स्थूल नेत्रों से विवेक और विचार की आँखों से अन्धा ही बना हुआ है। मोह और साँसारिक प्रमाद में लिप्त मनुष्य घड़ी भर एकान्त में बैठ कर इतना भी नहीं सोचता कि इस कौतूहल पूर्ण नर तनु में जन्म लेने का उद्देश्य क्या है हम कौन है कहाँ से आये और कहाँ जा रहे हैं?

प्रकृति प्रवाह की अबूझ परम्परा के प्रवाहित मनुष्य संसार के सुखों को इन्द्रियों के भोगों को पदार्थों के स्वामित्व को धन पुत्र तथा विविध कामनाओं के ही जीवन का लक्ष्य बनाकर इस बहुमूल्य अवसर का खो देता है। अन्ततः काल की घड़ी जब सामने आती है और बिदा होता समय सिर पर पापों दुष्कर्मों का भयंकर बोझ चढ़ा दिखाई देता है तो भारी पश्चाताप घोर संताप और आँतरिक अशाँति होती है। सौदा बिक गया फिर कीमत लगाई भी तो क्या.... विशाल वैभव अपार धन धान्य राशि पुत्र कोई भी तो साथ नहीं देता। यह सारा संसार यहाँ की परिस्थितियाँ सब ज्यों की त्यों दिखाई देती है किन्तु वह सब उस समय उपयोग के बाहर होती है। अपना शरीर भी साथ नहीं देता। केवल अच्छे बुरे संस्कारों का बोझ लादे हुए जीवन परवश यहाँ से उठ कर जाता है कितनी अस्थिरता होती होगी उस समय यह कोई भुक्त भोगी ही समझता होगा।

मनुष्य के जीवन में यह जो विस्मृति हे वह सब असत के संग से है। ज्ञान का आदर करने से हमारे भीतर से प्रश्न उठेंगे। हम कौन है? हम क्या है? हमें क्या नहीं करना चाहिए? इसका ज्ञान हमारे अंदर मौजूद है पर अपने जीवन का कोई सही दृष्टिकोण न बना सकने के कारण वह सारी ज्ञानशक्ति विश्रृंखलित और बेकाम पड़ी हुई मनुष्य का पहला पुरुषार्थ है जीवन लक्ष्य में प्रमाद न होने देना। यह तभी संभव है जब कर्तव्यों का उचित ओर सम्यक ज्ञान हो। कर्तव्यों की विस्मृति मनुष्य ने अपने आप ही की है। जब वह कुछ करना चाहता है तो उसे औरों की आवश्यकता का ध्यान नहीं होता वरन् वह है जानना चाहता है कि इसमें मेरा लाभ क्या है। अपने लाभ की अपेक्षा औरों के लाभ की बात सोचे तो कर्तव्य की विस्मृति न हो। इस कर्तव्य और अकर्तव्य के ज्ञान पर ही मनुष्य का उत्थान और पतन अवलम्बित है।

व्यावहारिक जीवन में कोई नीचे नहीं गिरना चाहता। सभी ऊँचे बहुत ऊँचे उठने की आकाँक्षा लिये हुए है। प्रत्येक मनुष्य अपने आपको ऊँचा सिद्ध करना चाहता है। इसके लिए अपनी अपनी तरह के पुष्टि और प्रमाण भी एकत्रित करता हे और समय पड़ने पर उन्हें व्यक्त भी करता है। ऊँचा उठना मनुष्य का स्वाभाविक धर्म भी है यदि किसी से यह पूछा जाय कि क्या उसने इस गंभीर प्रश्न पर गहराई से विचार किया है क्या कभी उसने यह भी सोचा है कि इस आकाँक्षा की पूर्ति के लिए उसने क्या योजना बनाई है तो अधिकाँश व्यक्ति इस गूढ़ प्रश्न की गहराई का भेदन भी न कर सकेंगे। बात सीधी सी है। महानता मनुष्य के अंदर छिपी हुई है और व्यक्त होने का रास्ता ढूंढ़ती है। पर साँसारिक कामनाओं से ग्रस्त मनुष्य उस आत्म प्रेरणा को भुला देना चाहता है। ठुकराये रखना चाहता है। अपमानित आत्म चुपचाप शरीर के भीतर सुप्त रहती है ओर मनुष्य केवल विडम्बनाओं के प्रपंच में ही पड़ा रहा जाता है।

शारीरिक दृष्टि से मनुष्य कितना ही बली हो जाय बौद्धिक दृष्टि से वह कितना ही तर्कशील क्यों न हो धन के जखीरे भले ही लगे हो पर आत्म संपदा के अभाव में वह मणि विहीन सर्प की तरह अर्द्धविकसित कहा जायेगा। आत्मबल की उपलब्धि का एक सुख संसार के करोड़ों सुखों से भी बढ़कर होता। आत्मिक संपदाओं वाले नेतृत्व करते है लोक मानस का मार्गदर्शन करते है। निर्धन फकीर होने पर भी बड़े बड़े महलोँ वाले उनके पैरों में गिरकर दया की भीख माँगते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य की महानता बाह्य नहीं आंतरिक है। उसकी शक्ति गुण विकास पर छिपी है। आँतरिक श्रेष्ठता के आधार पर ही उसकी श्रेष्ठता प्रामाणित करती है। भौतिक संपदायें तुच्छ है थोड़े समय बड़प्पन जताकर नष्ट हो जाती है।

मनुष्य शरीर जैसा अलभ्य अवसर पाकर भी यदि उसका उद्देश्य नहीं जाना गया तो क्या मनुष्य का शरीर क्या पशु का शरीर? आत्म कल्याण की साधना जो इस जीवन में नहीं कर लेता उसके लिए इस सुर दुर्लभ अवसर का कुछ भी उपयोग नहीं। श्रीमद्भागवत् 11-6-74 में कहा गया है:-

मोक्ष के खुले द्वार रूपी मनुष्य शरीर को पाकर भी जो पक्षियों की तरह अज्ञान के घेरे में कैद है उसे लक्ष्य से निरस्त ही समझना चाहिए।

थोड़ा बाहर आकर देखिये, यह संसार कितना विस्तृत है कितना विशाल है रात्रि के खुले आसमान के नीचे खड़े होकर थोड़ा चारों ओर दृष्टि तो दोहराये कितने ग्रह नक्षत्र बिखर पड़े है। कितना बड़ा फैलाव है इस संसार का। पर इन सब बातों पर विचार करने का समय तभी मिलेगा जब भोगोन्मुख वृत्ति से चित्त हटाकर इन चेतनाप्रधान विषयों की ओर भी थोड़ी दृष्टि जमायेंगे। कामनायें ही है जो हमारी राह रोके खड़ी है। स्वार्थ ही है जो आत्म विकास के मार्ग पर आड़े खड़ा है। ईर्ष्या द्वेष काम क्रोध भय लोभों वाले निविड़ में भटक गये है। इसलिए हम इस महानता के लक्ष्य की ओर अग्रसर ही हो पा रहे।

हम उदार बने साहस पैदा करें तथा आध्यात्मिक जीवन की कठिनाइयों को झेलने के लिए उठकर खड़े हो जायँ फिर देखे कि जिस महानता की उपलब्धि के लिए हम निरन्तर लालायित रहते है वह सच्चे स्वरूप में मिलती है या नहीं। सत्य हमारे अंदर छुपा है उसे अध्यात्म पथ पर चल कर जाग्रत करें शक्ति भीतर सोई पड़ी है उसे साधना से जगाएँ जीवन की सार्थकता का यही एक मात्र मार्ग है।


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