बहिरंग की भटकन व्यर्थ है

October 1990

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वे प्रातः कालीन भ्रमण के लिए निकले थे। पूर्व दिशा में प्रकाश की पहली रश्मि अपना स्वर्णांचल फैलाए प्रातः कालीन पवन से अठखेलियाँ कर रही थी। तारे पीले पड़कर एक के बाद एक अपनी अस्तित्व मिटाते जा रहे थे। इनमें से एक अमेरिका का ही मूल निवासी था, दूसरा भारतीय। एक के लिए ईश्वर का अस्तित्व उपहास की वस्तु था, दूसरा उसे जीवन की धुरी मानता था। पहला प्रकृति को सर्वांगपूर्ण मानता था, दूसरा उसकी पूर्णता ईश्वर में देखता था।

“स्वामी जी प्रकृति के इस सुन्दर रूप को तो देखो। यहाँ कितना उल्लास है, कितनी शान्ति है, कितना सौंदर्य है। इसका उपभोग न करके परमसत्ता की खोज के फेर में पड़ना, तप-त्याग में समय गँवाना दिमागी फितूर ही कहा जायगा।” वाणी में तनिक व्यंग था।

वह मुस्कराते हुए उसके बगल में खड़े हो गए। उन्होंने एक बार अपने चारों ओर देखा “मित्र! मुझे तो प्रकृति में कोई सुन्दरता नहीं दिखलाई देती।”

“प्रकृति में आपको कोई सुन्दरता नहीं दिखाई देती।” उसने आश्चर्यचकित नेत्रों से उनकी ओर देखा-”आप सत्य कर रहे हैं यह हँसी कर रहे हैं।

“हँसी नहीं कर रहा हूँ भाई! मैं सत्य कह रहा हूँ।” आप कह रहे हैं कि प्रकृति सौंदर्य का स्रोत है, जबकि मुझे उल्लास, शान्ति स्वयं के अन्तराल से निकलते अनुभव होते हैं। यदि ऐसा न हो तो यह सर्वथा कुरूप दिखाई देगी।”

उसका मन इसे मानने को तैयार न हुआ “आप देखें इस हरी दूब को कितनी सुन्दर है। मेरी तो इच्छा होती है कि मैं यहीं पर रहूं यहीं पर बैठूँ और यहीं विश्राम करूं। “

वह हल्के से हँस पड़े- “नहीं यह न करना यहाँ पास में कोई चिकित्सक भी नहीं जिससे उपचार कराया जा सके। आप कहते हैं कि दूब कोमल है, सुन्दर है, केवल इसलिए कि आपने खुल में जीवन नहीं व्यतीत किया। इसमें कितने कीड़े-मकोड़े हैं, इस पर अधिक देर विश्राम करने से निश्चय ही शीत हो जाएगा। प्रकृति अपूर्ण है, यह तो ईश्वर प्रदत्त विवेक का करतन है जिसके बल पर मनुष्य ने इसे उपयोगी बनाया है।”

उसने नयी बात सुनी, पर बात बड़े आश्चर्यजनक ढंग से कही गई थी। तर्क सुन्दर थे। उसे अपनी मान्यता का भवन खण्डहर होता लगा। वह कह उठा- प्रकृति अपूर्ण है पर........।

“हाँ प्रकृति अपूर्ण है। इसकी पूर्णता ईश्वर से ब्राह्मीचेतना से मिलकर होती है। यह तो सिर्फ दर्पण है, व्यक्ति की मानसिक दशा का। बदलते मन के अनुसार इसके रूप भी बदलते हैं। जाड़े के दिनों में इन सुन्दर स्थानों को कुरूपता तो देखो, जहाँ कुहरा छाया रहता है, जब इतनी शीतल वायु चलती है कि शरीर काँपने लगता है। गरमी के दिनों में दोपहर के समय इतनी कड़ी लू चलती है कि शरीर झुलस जाता है। यह तो प्रतिभा के रूप में मिले ईश्वरीय अनुदान के बल पर ही मनुष्य ने इसे अपने लिए नियोजित कर लिया। अपनी रक्षा हेतु आवास आच्छादन जुटा लिए।”

आज उसे अपना प्रकृतिवाद का सिद्धाँत अधूरा लगने लगा। वह एक क्षण के लिए मौन होकर सोचने लगा- तो क्या सचमुच सौंदर्य को स्रोत अन्दर है। पर सामने खिले पुष्प, उठ रही मादक गन्ध, पक्षियों का कलरव गायन, तो क्या यह सब..... नहीं। वह बोल पड़ा, इन पुष्पों और पक्षियों के बारे में आप क्या कहते हैं?

“ये पुष्प कोमल हैं? ठीक हैं पर इनमें काँटे भी हैं। न जाने कितने छोटे-छोटे भुनगे इन फूलों के अन्दर घुसे हुए हैं। रही इनकी कोमलता तथा इनकी सुगन्ध ये क्षणिक हैं। फिर इनकी सुगन्ध किस काम की? एकान्त में ये अपना सौरभ व्यर्थ गँवा देते हैं और इस कलरव गायन में माधुर्य हो सकता है, केवल स्वरों का। यह कलरव गायन, भाषा के संयत न होने के कारण, उस भावहीन संगीत की भाँति है, जिसमें स्वरों का उतार-चढ़ाव नहीं है।”

“तब फिर.........तब.......फिर।” उसे समझ में नहीं आया कि वक क्या कहे, जैसे इस हिन्दू संन्यासी के सामने उसकी तर्क शक्ति कुण्ठित हो गई। यही कि प्रकृति अपूर्ण है मात्र प्रत्यक्ष है। इसमें पूर्णता की खोज बालू में तेल निकालने की तरह है। यही क्यों इन्द्रिय जनित भोग सिर्फ अतृप्ति की एक अबूझ आग भड़काते हैं और दूर ले जाते हैं उस लक्ष्य से जो मनुष्य का गन्तव्य है।

अतृप्ति की न बुझने वाली आग, मनुष्य का गन्तव्य, आस्तिकता ये शब्द उसके मन में विद्युत रेखाओं की भाँति कौंधने लगे। उसने अभी तक न जाने कितने व्याख्यान दिए थे। सुन्दर शब्दों के मोहक जाल में अब तक न जाने कितनों को बाँधा था। रंगीन सपनों की यह दुनिया सच है, यह प्रत्यक्षवाद ही सब कुछ है, जो भी कुछ दृश्यमान है, उपभोग हेतु है। यह सच है अथवा वह, जिसका इशारा संन्यासी कर रहा है। यह और वह की ऊहापोह से अपने विचारों की नींव हिलती नजर आने लगी।

“क्या सोचने लगे मि. रॉबर्ट....?” “यही अतृप्ति की इस न बुझने वाली आग को बुझाने का क्या उपाय है?”

साधनों को साध्य के रूप में प्रयुक्त करना न कि साधनों को ही साध्य समझ बैठना। “साध्य आप किसे कहते हैं।” “अन्तर शक्तियों का विकास, सभी से आत्मीयता भरे एकत्व का अनुभव और आस्तिकता।” “विवेकयुक्त जीवन शैली अपना कर चेतना के उच्चतर सोपानों की ओर गति, पाशविकता को त्याग कर देवत्व की ओर अग्रगमन।”

वह सुन रहे थे, सोच रहे थे, अन्दर ही अन्दर विश्लेषण की प्रक्रिया जारी थी। तीन प्रश्नों के जवाब में समूचा अध्यात्म सिमट आया था। भोग मनुष्य को क्षणिक सुख देकर एक स्थाई अतृप्ति की ज्वाला भड़का कर चल जाते हैं और प्रकृति निरन्तर बदलते उसके रूप, रंग द्वारा मात्र इन्द्रिय तृप्ति भर दे पाती है, क्षणिक सुख का आभास मात्र। अविवेकी मनुष्य संभवत’ इनके बीच अपने अस्तित्व को भी नहीं बचा पाता। चिन्तन गहरा चल रहा था। उसके सिमट कर बिन्दु रूप हो जाने से माथे की नसें उभर उठी। पूछ ही बैठे-”तो स्वामी जी! लोग सुख-आनन्द की तलाश में बाहर क्यों भटकते हैं। पर्यटन के नाम पर, परिवर्तन के नाम पर व्यक्ति प्रकृति की गोद में जाता है तो क्या मात्र क्षणिक मनोरंजन, इन्द्रिय तृप्ति भर ही करके रह जाता है। यदि ऐसा है तो सौंदर्य, उल्लास का स्थायी स्रोत क्या है?

“सौंदर्य, उल्लास, सृजन शक्ति का भण्डार बन्धु भीतर भरा पड़ा है। उसी तरह जिस तरह कस्तूरी मृग की नाभि में विराजमान सुगंधि। बाह्य साधनों से तो मात्र उसकी सुव्यवस्था, सुसज्जा ही संभव है। आनन्द का निर्झर तो आत्मचेतना की गहराइयों से ही फूटता है। और इसके लिए मनुष्य को चाहिए कि वह अन्तर्मुखी बने, विवेकयुक्त जीवन शैली का अभ्यास करे।”यही न।” सुनने वाला तुरन्त बोल उठा।

स्वामी जी-”हाँ यही,” कहकर मुस्करा उठे। समाधान जो मिल चुका था। किसी एक के लिए नहीं अखिल मानव जाति के लिए कस नया सूत्र जो मंथन से प्राप्त हुआ था। समाधान देने वाले सज्जन थे रामकृष्ण परमहंस के शिष्य स्वामी अभेदानन्द, जिनने वेदान्त को नये आयाम दिये तथा सुनने वाले सज्जन थे रॉबर्ट इंगरसोल।

स्वामी जी की ये स्वानुभूति व्याख्याएँ हमारे निज के जीवन में साकार हो उठें तो व्यर्थ का भटकाव बन्द हो तथा अंतस् सदैव आनन्द ही आनन्द से भरा दीख पड़े।


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