मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में सुख-शान्ति का वातावरण होने पर ही वैयक्तिक सुख−शांति अक्षुण्ण रह सकती है अपने को अपने तक सीमित रखने की प्रवृत्ति जहाँ भी, जिस भी समाज में पनप रही होंगी, वहाँ व्यक्ति पारस्परिक स्नेह, सद्भाव की सहानुभूति को खो रहा होगा और उसके कारण उन सभी लाभों से वंचित रहेगा, जो सामाजिक जीवन में पारस्परिक सहयोग सहकार पर टिके हुए है। एक दूसरे की संकट में सहायता करना, अन्याय के विरुद्ध लड़ना, लोकहित के कामों में हिस्सा बटाना, उदारता भरा संयमी जीवन जीना आदि यों तत्काल तो घाटे का सौदा प्रतीत हो सकते हैं, पर बदले में अनेकों की श्रद्धा, मित्रता एवं सहायता के जो हाथ बढ़ते हैं, उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि जो गँवाया जाता है, उससे अनेक गुना वापस लौटता है। महामानवों को प्रगति के उच्चशिखर पर पहुँचने का अवसर इसी आधार पर मिलता है। स्वार्थियों के लिए यह द्वार सदा बन्द ही रहते हैं।
सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री आर. डैवी ने अपनी कृति “डेवलपमेण्ट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर” में कहा है कि जब व्यक्ति सामाजिक जीवन में सक्रिय रूप से भाग लेने लगता है और अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह करता है, तब उसकी सामाजिक अभिरुचियों का समुचित विकास होता है। उसमें सामाजिक भावना पैदा होती है, वह अपने साथियों के प्रति सहानुभूति रखता है और उसकी परमार्थ चेतना जाग्रत हो जाती है। व्यक्ति में सामाजिक अभिरुचि जन्मजात होती है। जिस प्रकार व्यक्ति श्रेष्ठता एवं पूर्णता प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है, उसी प्रकार वह अपनी जीवन को विकसित करने के लिए अपनी प्रसुप्त अभिरुचियाँ जाग्रत करता है। सामाजिक अभिरुचियों को जाग्रत एवं सक्रिय बनाने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति सामाजिक जीवन में भाग ले ओर यथाशक्ति उन कार्यों में लगा रहे, जिनसे लोकहित सधता हो। इस तरह के गुणों के बीज वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व में प्रसुप्त रूप में सन्निहित होते हैं और प्रयास करने पर अथवा अनुकूल वातावरण पाकर वे प्रस्फुटित हो उठते हैं।
डेवी ने सामाजिक चेतना के विकास को ही आत्म विस्तार कहा है। उनके अनुसार ‘सुपर व्यक्तित्व’ के प्रेरणा केन्द्र सामूहिक चेतना के पूर्ण विकसित स्वरूप को ही “सोशल सेन्स” अर्थात् सामाजिक वृत्ति कहते हैं। जिस भी समाज में यह वृत्ति जितनी अधिक विकसित होगी, वहाँ के व्यक्ति उतने ही श्रेष्ठ एवं महानता के युक्त होंगे। अनेकानेक मानी समस्याओं को सुलझाने एवं मनुष्य को देवोपम बनाने के लिए इस ‘सोशल सेन्स’ का होना परमावश्यक है। उत्कृष्ट व्यक्तित्व उसे ही कहा जाता है, जिसमें सम्पूर्ण निहित शक्तियों का सर्वांगीण विकास हो चुका हो। स्पष्ट है कि इन शक्तियों के विकास में मानव की शक्ति लालसा एवं सामूहिक चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति आवश्यक है। दोनों के सामंजस्य से बना हुआ व्यक्तित्व ही श्रेष्ठ कहा जाता है।
सामूहिक चेतना के विकास का एक अर्थ विस्तार भी है। नैतिक क्षेत्र में यही व्याख्या अधिक उपयुक्त पड़ती है। सीमित ‘स्व’ ही वस्तुतः तुच्छ है और विकसित वर्ग में हेय समझा जाता है। बौने अपनी बिरादरी में भले ही बढ़ चढ़ कर बातें करें पर लम्बे तगड़े पहलवानों के आगे उनकी घिघ्घी बँधने लगती और उपहास के भाजक बनते हैं। जीवनक्रम में क्षुद्रता वह है, जिसमें व्यक्ति अपने निजी लाभ की ही बात सोचता हैं और स्वार्थपरता की दुनिया में ही खोया रहता है। विकसित व्यक्तित्वों का ‘स्व’ अन्य जनों को भी अपनी परिधि में लपेट लेता है और अपने सुख-दुःख की तरह दूसरों की प्रगति अवगति में भी प्रसन्नता-खिन्नता की अनुभूति करने लगता है। ऐसा व्यक्ति समूह को समाज को अपना ही अंग अवयव मानकर उनका पिछड़ापन दूर करने के लिए भी वैसा ही प्रयास करता है, जैसा कि अपनी दरिद्रता, रुग्णता अथवा कठिनाई के निवारण में किया जाता है।
यह सामूहिक चेतना ही आगे बढ़ते-बढ़ते विश्व परिवार के रूप में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के रूप में विकसित होता है ओर सबको अपना-अपने को सब का मानने लगती है। जहाँ भी यह प्रवृत्ति पनप रही होगी, वहाँ सहज ही ऐसे सद्गुणों, ऐसे सत्प्रयोजनों-सत्प्रयासों का बाहुल्य पाया जायगा, जो मनुष्य को सच्चे अर्थों में विकासवान प्रगतिवान बनाते हैं। आज मानव समुदाय को इसी सामूहिक चेतना की अनिवार्य आवश्यकता है।