अफ्रीका में बन्दरों को जीवित पकड़ने वाले शिकारियों ने एक नया तरीका निकाला था। वे छोटे मुँह वाले घड़े में चने भरकर रख देते थे। बन्दर उसमें हाथ डालता और चने मुट्ठी में भर लेता। ऊपर खींचता तो बंधी मुट्ठी हाथ को बाहर न निकलने देती। बन्दर सोचता हाथ को चनों ने पकड़ लिया। वह चीखता चिल्लाता पर मुट्ठी खोलने की बात न सोच पाता। अन्ततः पकड़ा जाता और मौत के घर पहुँचता। लोग इसी प्रकार प्रलोभनों में फँसते और उन्हें न छोड़ पाने के कारण आपत्ति में फँसते हैं।
“प्राचीन की शक्ति” शीर्षक से अमेरिका की पत्रिका “जर्नल ऑफ द अमेरिकन मेडिकल रिसर्च “ के जनवरी 1958 के अंक में एक महत्वपूर्ण लेख प्रकाशित हुआ था लन्दन में जान जेहू नामक डाकिया सड़क पर बस से कुचला गया। अस्पताल में परीक्षण होने पर विदित हुआ कि उसके कपाल में कई घाव आये हैं और दिमाग का दाहिना भाग बुरी तरह क्षत हुआ है। डॉक्टरी राय यह थी कि वह कभी चल नहीं सकेगा और उसके शरीर का एक अंग लकवे का सदा शिकार रहेगा। आपरेशन करने वाला सर्जन प्रार्थनाशील था। उसने अपने अधीनस्थ सभी कर्मचारियों और अस्पताल के बीमारों से निवेदन किया कि आओ हम सब जेहू के कल्याण के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें और उसका आराम होने तक सेवा करते रहें। सामूहिक प्रार्थना का प्रभाव देखकर सभी विस्मय विमुग्ध हो गए। रोगी पैरों से चलने लगा और उसमें बोलने की शक्ति आ गयी। सर्जन ने सबसे कहा प्रार्थना का तात्पर्य है ईश्वरीय शक्ति का आह्वान साथ ही साथ अपने को इस शक्ति के प्रति खोल देना उद्घाटित करना। ऐसा कर पाना तभी सम्भव बन पड़ता है जबकि संकीर्ण स्वार्थपरता से ऊपर उठ कर सब के हित की प्रार्थना की जाय। इंग्लैंड में राष्ट्रीय स्वास्थ्य समिति द्वारा 3000 अस्पताल चलाये जाते हैं। इन सबमें बीमारों के इलाज के साथ प्रार्थना को भी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।