पुरुषार्थ का बीजाँकुर

October 1990

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डाँट सुनकर वह सहम गया। फटी-फटी आँखों से कुछ देर उसकी ओर देखता रहा, जिसकी अंगुलियों में थमी कलम उसका भाग्य लिख रही थी। तो क्या इन्सान का भाग्य किसी की मुट्ठी में कैद रहता है? पर वह तो दिन भर हड्डी तोड़ परिश्रम करता है, तब कहीं एक दो नहीं पूरे तीस दिन के बाद उसे मजदूरी मिलती है। तब उसके भाग्य की सृजेता उसकी मजबूत बाहें हैं, उसकी श्रम शक्ति है अथवा कोई और? जबाब विचारों के जाल में उलझ कर रह गया। हाथ में आया बरखास्तगी का हुक्मनामा, जिसे लेकर वह चल पड़ा जिन्दगी की अनजानी राहों की ओर।

रह-रह कर उसके मन में सवाल उभरता “भाग्य बड़ा है या पुरुषार्थ “? कभी-कभी ऐसा भी होता है कि अपने ही अन्दर से सवाल फूटते हैं फिर अपने ही मन के अनेकों कोनों से जवाब झाँकने लगते हैं निकलते हैं पर दूसरे पर झपटते हैं। बड़ी गहमा–गहमी के बाद किसी को जीत मिलती है। उसकी भी हालत कुछ ऐसी ही थी। उधेड़-बुन में पड़ा वह सोच रहा था क्या किया जाय? कहाँ जाना चाहिए?

खैर जैसे-जैसे एक नाटक कम्पनी में काम करने लगा वह। दो-तीन ड्रामों में सफल भी हुआ। कम्पनी के डायरेक्टर ने उसे प्रमुख एक्टर की भूमिका सौंपी। उस दिन काफी खुश हुआ सोचा चलो इस बार पुरुषार्थ जीता। किन्तु कुछ ही दिनों के बाद किसी बात पर नाटक कम्पनी वाले ने भी निकाल दिया। यह घटना उसे अन्दर तक हिला गई। सोचने पर विवश हुआ दरे नहीं भाग्य ही सब कुछ है पुरुषार्थ की कहा चल पाती है? पर वह जो पुरुषार्थ का पुजारी रहा है अपने इष्ट की पूजा करना छोड़ दे।

‘नहीं’ इस दृढ़ निश्चय के साथ वह फिर चल पड़ा। इस बार उसने मल्लाह का काम हाथ में सँभाला। नया-नया था, नाव चलाना भली प्रकार कैसे जानता? कई बार डूबते-डूबते बचा। कहीं यात्रियों को ले डूबता तो अदालत और जेल की हवा खानी पड़ती, इसलिए पहले ही समझदारी का काम किया। नाव छूट गई। नाव बेचकर चौकीदारी कर ली। मित्र मिलते और उपहास करते हुए इस चौकीदार से हँसकर पूछते-कहो भाई यह चौकीदारी कितने दिन चलेगी। युवक उनसे कहता जब तक कोई पदोन्नति न हो। पर बेचारे की पदोन्नति तो तब होती जब कोई करता! और हाँ! एक दिन जाँच करने वाले सिपाही ने उसे अयोग्य ठहराकर चौकीदारी से भी निकाल दिया। अभाव उसकी सम्पत्ति थी विपत्ति उसकी सहचरी। इस सबके बाद पुरुषार्थ के प्रति उसकी निष्ठा बरकरार थी। मित्र परिचितों के ताने-उलाहने के साथ यह और मजबूत हो जाती। निरन्तर की असफलताओं के बाद उसने एक ही ध्येय बनाया था पुरुषार्थ जीवन के सौभाग्य की सृष्टि करता है इसे स्वयं जीवन व्यापी प्रयोग से सिद्ध करना है।

इस बार काफी भटकना पड़ा। आखिर में एक छोटे स्कूल में सामान्य शिक्षक की जगह मिल गई। पढ़ाता भी था पढ़ता भी था अपने समय के प्रत्येक अंश को सदुपयोग करने की अनूठी कला भी सीखता। अपने मित्रों में बैठकर पुरुषार्थ से सौभाग्यों की सृष्टि वाली बात कहता तो सभी हँस पड़ते। हरेक कहता यहाँ से निकाले न जाओ यही बहुत।

इस बार वह निकाला नहीं गया स्वयं निकला, सेना में नौकरी करने के लिए विद्यालय से जाँच रिपोर्ट माँगी गई तो वहाँ के हेड मास्टर ने लिख भेजा नेक परिश्रमशील परिस्थितियों से न घबराने वाला युवक। सेना में कप्तान बना। वहाँ से उसने अपने मित्र को पत्र लिखा “पुरुषार्थ तो बरगद का बीज है। दिखने में छोटा लगता है तनिक गहरे पड़ता है, और देर से अँकुरित होता है। मेरे पुरुषार्थ ने अंकुर देने आरम्भ कर दिये हैं, विकसित होने पर तो पूरे अमेरिका का छाया देगा।

सचमुच यह पुरुषार्थ का अंकुरण था। सेना से वह लोक सेवा के क्षेत्र में उतरा। राजनीतिक अभिरुचियों, जन संपर्क, व्यवहार कौशल सभी ने एक मत होकर उसे अमेरिका का प्रेसीडेण्ट बनाया। मजदूर से राष्ट्राध्यक्ष तक की यात्रा करने वाला यह व्यक्ति था गारफील्ड। यदि पुरुषार्थ का बीज जनजन के जीवन में अंकुरित हो सके तो सब न केवल सौभाग्यों की सृष्टि कर सकेंगे, बल्कि अनेकों को छाया देकर कृतार्थ भी।


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