एक दुर्बल व्यक्ति किसी चिकित्सा निष्णात के पास गया और बोला-”मुझे परिपुष्ट कर देने वाला कोई रसायन प्रदान कीजिये। मैं बलवान बनना चाहता हूँ और उसका कितना ही मूल्य चुकाने को तैयार हूँ।”
चिकित्सक ने उसे जुलाब की दवा देदी। पतले दस्त चलने लगे और उसके पेट में जमा विषैली, काली गाँठें निकलने लगी।
कई दिन बाद रोगी अच्छी दवा के विपरीत परेशानियों की शिकायत करने लगा। दस्त आरंभ हो गये, कमजोरी आने लगी
चिकित्सक ने उसे धैर्य दिलाया और कहा-”जब तक शरीर में संचित विषों का निष्काम नहीं हो जाता। तब तक बलवर्धन की कोई दवा कारगर सिद्ध नहीं हो सकती।”
रोगी संतुष्ट होकर चला गया। चिकित्सक का परिशोभ का प्राथमिकता देने वाला उपचार चलता रहा उसके बाद ही उसकी मलवृद्धि की आकाँक्षा अच्छे रहन-सहन भर से ही पुरी हो गई उसके लिए किसी मूल्यवान औषधि खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ी।
आत्मबल की वृद्धि द्वारा चमत्कारी सिद्धियाँ प्राप्त करने से पूर्व भी संयम साधना द्वारा आत्म परिष्कार की विधि व्यवस्था को कार्यान्वित करना पड़ता है।