प्रचण्ड मनोबल की प्रतिभा में परिणति

October 1990

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वह पौराणिक गाथा स्मरण रखने योग्य है कि सीता हरण के उपरान्त जब रावण को परास्त करने का प्रश्न सामने आया, तो राम के द्वारा भेजा गया निमंत्रण उन दिनों के राजाओं और संबंधियों तक ने अस्वीकृत कर दिया था, पर सुदृढ़ संकल्पों के अधूरे रहने से तो दिव्य व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगने की स्थिति आती है। वह भी तो अंगीकृत नहीं हो सकती।

‘जिन खोजा, तिन पाइयाँ’ वाली उक्ति के अनुरूप खोज की गई, तो रीछ-वानरों में से भी ऐसे मनस्वी निकल पड़े, जो आदर्शों के निर्वाह में बड़े से बड़ा जोखिम उठाने के लिए तत्परता दिखाने लगे। उनकी एक अच्छी-खासी मण्डली कार्यक्षेत्र में उतरने के लिए कटिबद्ध होकर आगे आ गयी। बंदरों ने लकड़ी-पत्थर एकत्रित किए, रीछों ने इंजीनियर की भूमिका निभाई और समुद्र पर सेतु बनकर खड़ा हो गया।

ईश्वर उन्हीं की सहायता करता है, जो अपनी सहायता आप करते हैं। प्रतिकूलताएँ हटतीं और अनुकूलताएँ लुटती चली गयीं। लंका विजय और श्रीराम की अवध-वापसी वाली कथा सर्वविदित है। सीता भी अनेक बन्धनों से छुटकारा पाकर वापस आ गयीं। वहाँ दो निष्कर्ष निकलते हैं-एक यह कि श्रीराम की प्रतिभा पर विश्वास करके वरिष्ठ वानर भी उत्साह और साहस से भर गये थे अथवा राम दल के मूर्धन्यों ने सामान्य स्तर के वानरों को भी प्राण-चेतना से ओत-प्रोत कर दिया हो और समर्थ व्यक्तियों की एक अच्छी-खासी मण्डली बन गयी हो? दूसरी ओर समर्थ शासनाध्यक्ष भी रावण की समर्थता और अपनी दुर्बलता को देखते हुए डर गये हों? निष्कर्ष यही निकलता है कि परिष्कृत प्रतिभा, दुर्बल सहयोगियों की सहायता से भी बड़े-बड़े काम सम्पन्न कर लेती है, जबकि डर कर समर्थ व्यक्ति भी हाथ-पैर फुला बैठते हैं। राणा प्रताप के सैनिकों में अधिकाँश आदिवासियों का ही पिछड़ा समझा जाने वाला समुदाय प्रमुख था। लक्ष्मीबाई रानी के घर के पिंजरे में बंद रहने वाली महिलाओं को भी प्रोत्साहन देकर युद्ध क्षेत्र में वीर सैनिकों की तरह ला खड़ा किया था। रानी लक्ष्मीबाई ने तो अपने समय के दुर्दान्त दस्यु सागर सिंह को लूट-मार करके भागते समय, केवल अपनी सहेली सुन्दरी के सहयोग से बन्दी बनाकर दरबार में खड़ा कर दिया था। उनकी मनस्विता के समक्ष उसका सारा दुस्साहस ढह गया। रानी के अन्ततः उसे अपना सहयोगी बनाकर उसकी प्रतिभा का उपयोग अपनी सेना की शक्ति बढ़ाने में किया। साधारण लोगों की प्रतिभा उभारकर साहस के धनी लोगों ने बड़े-बड़े काम करा लिए थे। चन्द्रगुप्त बड़े साम्राज्य का दायित्व संभालने के योग्य अपने को पा नहीं रहा था, पर चाणक्य ने उसमें प्राण फूँके और अपने आदेशानुसार चलने के लिए विवश कर दिया। अर्जुन भी महाभारत की बागडोर सँभालने में सकपका रहा था, पर कृष्ण ने उसे वैसा ही करने के लिए बाधित कर दिया जैसा कि वे चाहते थे। समर्थ गुरु रामदास की मनस्विता यदि उच्चस्तर की नहीं रही होती, तो शिवाजी की परिस्थितियाँ गजब का पराक्रम करा सकने के लिए उद्यत न होने देतीं। रामकृष्ण परमहंस ही थे, जिन्होंने विवेकानन्द को एक साधारण विद्यार्थी से ऊँचा उठाकर विश्वभर में भारतीय संस्कृति का संदेशवाहक बना दिया। दयानन्द की प्रगतिशीलता के पीछे विरजानन्द के प्रोत्साहन ने कम योगदान नहीं दिया था। साथियों और मार्गदर्शकों की प्रतिभा, जिस किसी को अपने आवेश में हस्तान्तरित कर दे, वही कुछ से कुछ बन जाता है।

रेल का इंजन स्वयं समर्थ होता है और अपने साधनों से गति पकड़ता है ड़ड़ड़ड साथ जुड़े हुए पीछे वाले डिब्बे भी गति पकड़ते हैं। इंजन की क्षमता यदि अस्त-व्यस्त हो जाये तो फिर वह रेल लक्ष्य तक पहुँचना तो दूर, अन्यों का आवागमन भी रोक कर खड़ी हो जायेगी।

दूसरों की सहायता मिलती तो है, पर उसे प्राप्त करने के लिए अपनी पात्रता को विकसित करने के लिए असाधारण प्रयत्न करने पड़ते हैं। पात्रता ही प्रकारान्तर से सफलता जैसे पुरस्कार साथ लेकर वापस लौटती है। वर्षा ऋतु कितने ही दिन क्यों न रहे, कितनी ही मूसलाधार वर्षा क्यों न बरसे अपने पल्ले उतना ही पड़ेगा, जितना कि बर्तन का आकार हो अथवा गड्ढे की गहराई बन सके। उन दिनों सब जगह हरियाली उगती है, पर चट्टानों पर एक तिनका भी नहीं उगता। उर्वरता न हो तो भूमि में कोई बीज नहीं उगेगा ही नहीं। छात्रों को अगली कक्षा में चढ़ने या पुरस्कार जीतने, छात्रवृत्ति पाने का अवसर किसी की कृपा से नहीं मिलता। उनकी परिश्रमपूर्वक बढ़ी हुई योग्यता ही काम आती है। प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत होने वाले जिस-तिस का अनुग्रह मिलने की आशा नहीं लगाये रहते, वरन् अपनी दक्षता, समर्थता को विकसित करके बाजी जीतने वाले सफल व्यक्तियों की पंक्ति में जा बैठने की प्रतिष्ठा अर्जित करते हैं। देवताओं तक का अनुग्रह, तपश्चर्या की प्रखरता अपनाने वाले ही उपलब्ध करते हैं। बिना प्रयास के तो थाली में रखा हुआ भोजन तक मुँह में प्रवेश करने और पेट तक पहुँचने में सफल नहीं होता।

महान शक्तियों में जिस पर भी अनुग्रह किया है, उसे सर्वप्रथम उत्कृष्टता अपनाने और प्रबल पुरुषार्थ में जुटने की ही प्रेरणा दी है। इसके बाद ही उनकी सहायता काम आती है। कुपात्रों को यह अपेक्षा करना व्यर्थ है कि उन्हें अनायास ही मानवी या दैवी सहायता उपलब्ध होगी और सफलताओं, सिद्धियों, विभूतियों से अलंकृत करके रख देगी। दुर्बलता, धारण किये रहने पर तो प्रकृति भी “दैव भी दुर्बल का घातक होता है” इस उक्ति को चरितार्थ करती देखी गई है। दुर्बल शरीर पर ही विषाणुओं की अनेक प्रजातियाँ चढ़ दौड़ती हैं। शीत ऋतु का आगमन जहाँ सर्व साधारण के स्वास्थ्य संवर्धन में सहायक होता है वहाँ मक्खी मच्छर जैसे कृमि-कीटकों के समूह को मृत्यु के मुँह में धकेल देता है।

सड़क पर बसों मोटरों का ढाँचा दौड़ता दीखता है, पर जानकार जानते हैं कि यह दौड़, भीतर टंकी में भरे ज्वलनशील तेल की करामात है। वह चूक जाए तो बैठकर सफर करने वाली सवारियों को उतर कर उस ढाँचे को अपने बाहुबल से धकेल कर आगे खिसकाना पड़ता है। मनुष्य के काय-कलेवर के द्वारा जो अनेक चमत्कारी काम होते दीख पड़ते हैं वे मात्र हाड़-माँस की उपलब्धि नहीं होते, वरन् उछलती उमंगों के रूप में प्रतिभा ही काम करती है। स्वयंवर में माला उन्हीं के गले में पड़ती है, जो दूसरों की तुलना में अपनी विशिष्टता सिद्ध करते हैं। चुनावों में वे ही जीतते हैं, जिनमें दक्षता प्रदर्शित करने और लोगों को अपने प्रभाव में लाने की योग्यता होती है। मजबूत कलाइयाँ ही हथियार का सफल प्रहार कर सकने में सफल होती है। दुर्बल भुजाएँ तो हारने के अतिरिक्त और कुछ प्राप्त कर सकने में सफल ही नहीं होती।

भीष्म ने मृत्यु को धमकाया था कि जब तक उत्तरायण सूर्य न आवे, तब तक इस ओर पैर न धरना। सावित्री ने यमराज के भैंसे की पूँछ पकड़ कर उसे रोक लिया था और सत्यवान के प्राण वापस करने के लिए बाधित किया था। अर्जुन ने पैना तीर चला कर पाताल-गंगा की धार ऊपर निकाली थी और भीष्म की इच्छानुसार उनकी प्यास बुझायी थी। राणा साँगा के शरीर में अस्सी गहरे घाव लगे थे, फिर भी वे पीड़ा की परवाह न करते हुए अन्तिम साँस रहने तक युद्ध में जूझते ही रहे थे। बड़े काम बड़े व्यक्तित्वों से ही बन पड़ते हैं। भारी वजन उठाने में हाथी जैसे सशक्त ही काम आते हैं। बकरों और गधों से उतना नहीं पड़ता, भले ही वे कल्पना करते, मन ललचाते या डींगे हाँकते रहें।

प्रतिभा जिधर भी मुड़ती है, उधर ही बुलडोजरों की तरह मैदान साफ करती चलती है। सर्वविदित है कि योरोप का विश्वविजयी पहलवान सैन्डो किशोर अवस्था तक अनेक बीमारों से घिरे, दुर्बल काया लिए फिरते थे। पर जब उनने समर्थ तत्वाधान में स्वास्थ्य का नये सिरे से संचालन और बढ़ाना शुरू किया तो कुछ ही समय में विश्वविजयी स्तर के पहलवान बन गये। भारत के चंदेगीराम पहलवान के बारे में अनेकों ने सुना है कि वह हिन्दकेसरी के नाम से प्रसिद्ध हुए थे। पहले वह अन्यमनस्क स्थिति में अध्यापकी से रोटी कमाने वाले क्षीणकाय व्यक्ति थे। उनने अपने मनोबल से ही नई रीति-नीति अपनायी और खोयी हुई सेहत नये सिरे से न केवल पायी, वरन् इतनी बढ़ायी कि हिन्दकेसरी उपाधि से विभूषित हुए।

इंग्लैण्ड की एक महिला कैंसर रोग से बुरी तरह आक्रान्त थी। डॉक्टरों ने उसे जवाब दे दिया था कि छः महीने से अधिक जीने की गुँजाइश नहीं है। जिस मशीन से उपचार हो सकता था, वह करोड़ों मूल्य की थी, जिसे अपने यहाँ रखने में कोई डॉक्टर समर्थ नहीं था। रोगी महिला ने नये सिरे से नया विचार किया। जब छः महीने में मरना ही है तो अन्य अपने जैसे निरीहों के प्राण बचाने की कोशिश क्यों न करें। उसने टेलीविजन पर एक अपील की कि यदि तीन करोड़ रुपये का प्रबन्ध कोई उदारचेता कर सके, तो उस मशीन के द्वारा उस जैसे निराशों को जीवन दान मिल सकता है। पैसा बरसा। उससे एक नहीं तीन मशीनें खरीद ली गयीं और इतना ही नहीं कैंसर का एक साधन सम्पन्न अस्पताल भी बन गया। रोगिणी इन्हीं कार्यों में इतने दत्तचित्त और मस्त रही कि उसे अपने मरने की बात का स्मरण तक न रहा। कार्य पूरा हो जाने पर उसकी जाँच पड़ताल हुई तो पाया गया कि कैंसर का एक भी चिन्ह उसके शरीर में बाकी नहीं रहा है।

अस्पताल की चारपाई पर पड़े-पड़े वाल्टेयर ने अपने महत्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की थी। कालिदास और वरदराज की मस्तिष्कीय क्षमता कितनी उपहासास्पद थी, इसकी जानकारी सभी को है, पर वे जब नया उत्साह समेट कर नये सिरे से विद्या पढ़ने में जुटे, तो मूर्धन्य विद्वानों में गिने जाने लगे। व्यक्ति की अन्तःचेतना, जिसे प्रतिभा भी कहते है, इतनी सबल है कि अनेकों प्रतिभा भी कहते है, इतनी सबल है कि अनेकों अभावों और व्यवधानों को रौंदती हुई, वह उन्नति के उच्च शिखर पर जा पहुँचने में समर्थ होती है। प्रतिभा वस्तुतः वह सम्पदा है, जो व्यक्ति की मनस्विता, ओजस्विता, तेजस्विता के रूप बहिरंग में प्रकट होती है। यदि प्रसुप्त को उभारी जा सके, स्वयं को खराद पर चढ़ाया जा सके, तो व्यक्ति असंभव को भी संभव बना सकता है। यह अध्यात्म विज्ञान का एक सुनिश्चित सिद्धाँत एवं अटल सत्य है।


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