इष्ट की झलक

October 1990

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‘मनुष्य जीवन मिला ही भगवान को पाने के लिए है। संसार के भोग पदार्थ तो दूसरी योनियों में मिल सकते हैं। मनुष्य में भोगों को भोगने की उतनी शक्ति भी नहीं, जितनी दूसरे प्राणियों में है’। वक्ता की वाणी में शक्ति थी। उनकी बातें शास्त्र-संगत थीं, तर्क संगत थी और सबसे बड़ी बात यह थी कि उनका व्यक्तित्व ऐसा था जो उनके प्रत्येक शब्द को सजीव बनाए दे रहा था। भगवान को पाना है इसी जीवन में पाना है। भगवत्प्राप्ति हो गई तो जीवन सफल हुआ और न हुई तो महान हानि हुई।

प्रवचन समाप्त हुआ। लोगों ने हाथ जोड़े सिर झुकाया और एक-एक करके जाने लगे। सबको अपने-अपने काम हैं और वे आवश्यक हैं। यही क्या कम है जो इतनी देर हुई चर्चा में आकर बैठ गए। बैठने वालों में एक यह भी था पर औरों से नितान्त भिन्न। यह भिन्नता शक्ल सूरत की दृष्टि से नहीं। अंतर्मन की संरचना में थी। उसे पता नहीं था कि कथा प्रवचन पल्ला झाड़ कर भी सुने जाते हैं।

सरंजाम सिमटने लगा पर विचारों के वितान फैलने लगे। मुझे भगवत्प्राप्ति करनी है मन में यही घुमड़न चल रही थी। यों वह पढ़ा लिखा था अभी हाल में ही एम.एस.सी. प्राणिशास्त्र में किया था। विज्ञान का विद्यार्थी होने के कारण उसमें बुद्धि कौशल तो था पर साथ में श्रद्धा भी पर्याप्त थी। विज्ञान-आखिर सत्य की शोध ही तो है और कोई आवश्यक तो नहीं कि यह शोध प्रचलित दायरे में पूरी हो। वह सोचने लगा, प्रत्येक नयी शोध पुराना दायरा लाँघती है नया आयाम खोलती है तो यह शोध भी ...। चिन्तन की हवा में अतीत के पन्ने फड़फड़ा उठे। उसे याद आया कि विद्यालय में बिताया गया जीवन मानस पर साकार हो उठा। प्रयोगशाला का वह कक्ष जहाँ वह जन्तुओं की चीर फाड़ करते कहीं किन्हीं गहराइयों में खो जाया करता। साथी टोकते क्या सोचने लगे माधव। जीवन का सार खोज रहा हूँ डूबते मन से बुलबुलों की तरह जवाब फूट पड़ता। साथी खिलखिला पड़ते शिक्षक मुस्करा देते। साथियों की दृष्टि में वह बुद्धिमान, जुझारू पर सनकी था। शिक्षक उसे दार्शनिक वैज्ञानिक कहते थे। किसने उसे ठीक से समझा कुछ पता नहीं पर कुछ भी हो यह महाराष्ट्र वासी युवक अपने विगत में सभी से सम्मानित रहा। उसने अपनी अन्तहीन यात्रा लक्ष्य की दिशा में आरंभ कर दी।

चलते हुए उसे लगभग तीन महीने बीत गए। इन चौरासी दिनों में जैसे चौरासी लाख योनियों का अनुभव हो गया है। षट्–रस और नव रस में सिर्फ एक मृदु को छोड़ अन्य सभी का स्वाद वह चख चुका। भगवत्प्राप्ति तो नहीं हुई हाँ जीवन जरूर श्मशान जैसा भयावना लगने लगा। अध्यात्म साधु-मन्दिर मठ इनके बारे में सोच कर एक विरक्तिजनक मुस्कान ही उभरती। पर नहीं सब एक जैसे यह भी तो एक साधु ही है। मात्र देश नहीं गैरिक वस्त्रों की अग्नि मंजूषा में गुणों की अपार सम्पदा सिमटी है।

‘तुम पहले स्नान भोजन करो।’ गैरिक वसन से आवेष्ठित परिव्राजक ने युवक की पीठ पर हाथ फेरा जो भगवान को पाना चाहत है, भगवान उसे स्वयं पाना चाहते हैं। वह तो उन्हें पायेगा ही।

युवक ने स्नान किया और थोड़ा-सा प्रसाद शीघ्रतापूर्वक मुख में डाल कर जल पी लिया। उसे भोजन स्नान की नहीं पड़ी थी। उसकी अभीप्सा तीव्र थी लगन में प्राण थे। वह कुछ मिनटों में ही महात्मा जी के पद प्रान्त में बैठ गया।

पहले तुम यह बताओ कि “तुमने अब तक किया क्या”? साधु ने तनिक स्मित के साथ पूछा।

‘बड़ा लम्बा पुराण है’! उसने अपनी बात प्रारम्भ की। बताने लगा इधर वह बहुत भटका है। उसे एक योगी ने नेति-धोति-न्योलि ब्रह्मदांतौन तथा अन्य अनेक योग की क्रियाओं के मध्य ही उसके मस्तक में भयंकर दर्द रहने लगा। बड़ी कठिनाई से एक वृद्ध सज्जन की कृपा से दूर हुआ। उन्होंने ये सभी क्रियाएँ छुड़वा दीं।

‘ये मूर्ख साधु!’ कुछ रुष्ट हुए- ‘ये योग की कुछ क्रियाएँ सीख कर अपने अधूरे ज्ञान से युवकों का स्वास्थ्य चौपट करते फिरते हैं आज कहाँ हैं अष्टाँग योग के ज्ञाता। यम-नियम की प्रतिष्ठा नहीं हुई जीवन में और चल पड़ आसन तथा मुद्राएँ कराने। असाध्य रोग के अतिरिक्त और क्या मिलता है इस दूषित प्रयत्न में।’

‘एक ने मुझे कान बन्द करके शब्द सुनने का उपदेश दिया’ एक अन्य योगी मिले जिन्होंने ऐन्द्रजालिक जैसी तमाम क्रियाएँ दिखाईं।

‘योगी’। इस शब्द के साथ ही साधु हँस पड़े बाजीगरी योग नहीं है। अधिकारी के अधिकार को बिना जाने चाहे जिस साधन में जोत दिया जाय वह पशु तो नहीं है। साधु कह रहे थे धारणा-ध्यान समाधि चाहे शब्द योग से हो चाहे लययोग से किन्तु जीवन में चाँचल्य बना रहेगा। समाधि कुछ क्रिया मात्र से मिल जायगी, ऐसी दुराशा करने वालों को क्या कहा जाय।

उसने आगे फिर कहा “मैं सम्मान्य धार्मिक अग्रणियों के समीप भी रहा और विशाल मठों में भी। कुछ प्रख्यात पुरुषों ने मुझ पर कृपा करनी चाही। उसके स्वर में व्यंग नहीं, केवल खिन्नता थी जो अपने आश्रय धर्म का निर्वाह नहीं कर पाते, जहाँ सोने चाँदी का सेवन और सत्कार है, जो अनेक युक्तियाँ देकर शिष्यों का धन और शिष्याओं का धर्म अपहरण करने के कोशिश में लग रहते हैं, वहाँ परमार्थ और अध्यात्म भी है इसे मेरी बुद्धि ने स्वीकार नहीं किया।”

“ ओह!” इन अनुभवों ने साधु को खिन्न कर दिया। वह बोल पड़े “जहाँ संग्रह है विलासिता है, वहाँ साधुता कहाँ है। जहाँ सदाचार नहीं, इन्द्रिय तृप्ति है, वहाँ से भगवान बहुत दूर हैं। सच तो यह है कि हमें कुछ न करना पड़े कोई आशीर्वाद देकर सब कुछ कर दे, इस लोभ से जो चलेगा वह ठगा तो जाएगा ही। आज धन और नारी का धर्म जिनके लिए प्रयोजन है ऐसे वेशधारियों का बाहुल्य इसी कारण है। पर भगवान जहाँ हैं जहाँ से उनकी पुकार उठ रही है उस ओर तो तुमने आंखें उठाकर भी नहीं देखा। तुम सिर्फ भटकते रहे और इस भटकन से उपलब्धि का क्या वास्ता?”

“कहाँ है भगवान? कहाँ से उठती है उनकी पुकार”? लगभग चौंकते उसने ये सवाल पूछे। उसे लगा विषाद और आह्लाद की लगभग एक साथ अनुभूति है। विषाद समय गँवाने का और आह्लाद सही दिशा की ओर उन्मुख होने का।

‘मानवता की भूमि पर बने सेवा के मन्दिर में प्रेम की भाव मय मूर्ति बन कर प्रतिष्ठित है वह। उन निराकार की प्राप्ति संवेदना के रूप में होती है। जन मेदिनी के मध्य से उठ रहा कारुणिक रव उनकी पुकार है, उन्होंने अपना अनुभव कह सुनाया। मुझे भगवत्प्राप्ति इसी रूप में हुई है।

सन्त की वाणी ने युवक के अंतरतम को झकझोर दिया। श्री रामकृष्ण परमहंस के इन शिष्य की बात सुनकर उन्हें लगा जैसे अनुभव साकार हो बोल रहा हो। मुर्शिदाबाद में अकाल पीड़ितों की सेवा और अपने कष्ट सहिष्णु जीवन के कारण वे प्रायः देश भर में विख्यात हो चुके थे। यहाँ सारगाछी में भी नंग धड़ंग अनाथ बालकों को लेकर आश्रम में रहते। इनका व्यक्तित्व निर्माण ही उनकी उपासना थी। एक दिन तो सभी आश्चर्य में ऊब गए जब उन्होंने एक काले-कलूटे नंग धड़ंग बालक को पुरुष सूक्त के मूत्र से स्नान कराया वस्त्र आदि दिए भोजन आदि की व्यवस्था कर अपनी पाठशाला में भरती कर लिया। इस विचित्र किन्तु सत्य के इस अद्भुत संस्करण ने युवक के चिन्तन की चूलें हिला दीं।

“मुझे भगवत्प्राप्ति के लिए क्या करना है यह ठीक मार्ग आप बताने की कृपा करें” वह उनकी ओर ताकते हुए बोल पड़ा।

भगवत्प्राप्ति के लिए करना होगा पुरुषार्थ ऐसा पुरुषार्थ जो ललकार कर कह सके कोई भी व्यक्ति दुष्कृत्य से मेरे सहयोग पर निर्भर नहीं रह सकता कोई भी व्यक्ति मेरी उपस्थिति में निर्लज्जभाव से अनिष्ट चर्चा नहीं कर सकता। ऐसा पुरुषार्थ जब संवेदनामय हो उठेगा अथवा कारुणिक संवेदना जिस क्षण पुरुषार्थ मय हो उठेगी समझो उसी क्षण भगवत्प्राप्ति हो गई।

साधु के ये शब्द उसे अग्नि मंत्र लगे। इसी अग्निमंत्र से वह दीक्षित हुआ। ऐसी हो भगवत्प्राप्ति करूंगा युवा की वाणी में संकल्प के प्राण थे।

युवक की संकल्पित वाणी से अभिभूत होकर उन्होंने होकर उन्होंने उसके मस्तक पर अपना आशीर्हस्त रखा “बेटा! इस काम के लिए बड़ी घोर तपस्या की आवश्यकता है। जीवन विधाता जिसे अपना कठोर कृपाण देते हैं उसमें उसे ग्रहण करने की शक्ति है या नहीं इसकी कठिन परीक्षा वे लेते हैं। अविचलित रहो, महान संकल्प ही बड़ी वस्तु है।” इस बड़ी वस्तु को आजीवन धारण करने वाले युवक माधवराय सदाशिवराव गोलवलकर को भारत ने गुरुजी के रूप में जाना। डॉ. हेडडडड को उनमें अपना उत्तराधिकारी मिला। उनको मिली भगवत्प्राप्ति जिसकी उन्हें चिर अभीप्सा थी। ठीक उनके गुरु-स्वामी अखण्डानन्द की तरह जनक्रन्दन में उन्हें नियन्ता की पुकार सुनाई पड़ी। पुकार के वे स्वर युग सन्धि की ड़ड़ड़ड़ से सतत् उठ रहे हैं।


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