उपनिषदों के देश से उठेगा-विचार क्रांति का तूफान

October 1990

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

नीले-भूरे रंग की कुर्सी पर पीठ टिकाए वह गहरे सोच में डूबा था। इसका कारण न तो पारिवारिक जीवन की उलझनें थी। और न व्यक्तिगत जिन्दगी की उधेड़-बुन। क्योंकि उसने स्वयं को पारिवारिक बाड़े और वैयक्तिक महत्वाकांक्षाओं के आकर्षणों से पर्याप्त ऊपर उठा रखा था। फिर भला ऐसी स्थिति में तनाव और परेशानियाँ उसे क्यों कर सताते। चिन्ताओं से दूर चिन्तन में खोए रहने वाले इस व्यक्ति की जीवन संरचना में व्यापक फेर-बदल करने का श्रेय उस पुस्तक को था जो इस समय भी उसके दाएँ हाथ में थमी थी। शायद इसी में सन्निहित किसी सूत्र के भावों ने उसे आत्मचेतना की गहराइयों में उतार दिया हो। आकेतिल दुपेरों द्वारा अनुदित इस किताब को पा उसे ऐसा लगा था जैसे जीवन निधि मिल गई।

तब से आज तक उसने क्षण-क्षण पल-पल का उपयोग इन्हीं विचारों के अनुरूप स्वयं को गढ़ने में किया। सचमुच विचार जब तक बौद्धिक विवेचना का विषय रहते हैं तब तक उनकी प्रभाविकता प्रखरता का ठीक-ठीक अन्दाज नहीं मिलता। किन्तु जैसे ही ये भावों की गहराइयों में उतने, प्रयत्नों से इनका सामंजस्य बैठा तो एक क्रान्ति घटित होती है उस दायरे में जहाँ पर ऐसा हो रहा है। उसके जीवन में कुछ ऐसा ही हुआ था हो रहा था। तभी तो उसने निज अनुभूतियोँ के आधार पर एक पुस्तक ही लिख डाली “विश्व-विचार और प्रयत्न के रूप में”।

उसने हल्के से पैर फैलाए, धीरे से आंखें खोलीं, हाथ की अँगुलियों को माथे पर इस तरह फिराया जैसे वह विचारों का कोई नया स्वर निकाला चाहता हो। धीरे-धीरे उसका मन अन्तः अनुभूतियों के सागा से उबरने लगा था। एक दृष्टि कमरे में घुमाई और हाथ में थमी किताब को धीरे से मेज में रखा। कुर्सी से उठकर कमरे का एक चक्कर लगाया। फिर उसने कैलेंडर की ओर देखा आज छुट्टी थी। इसका मतलब उसे विश्व विद्यालय नहीं जाना। तब....। वे दोनों शायद यहीं आएँ। वह होंठों ही होंठों में बुदबुदाया।

दृष्टि खिड़की की ओर गई। चौखटे से प्रवेश पाकर सूर्य की रश्मियाँ पूरे कमरे को सुनहले रंग में रंग रही थीं। बाहर पीछे वाली सड़क के दोनों ओर चीड़ के वृक्ष लगे थे, जिनके मध्य से गुजरती हुई सड़क थोड़ी ही दूर पर गुम होती प्रतीत होती थी। देखते देखते वह विचारों में डूब गया। द्वार पर कुत्ते की उभरती आवाज ने उसकी सोच को बीच में ही विराम दिया। कौन? इस प्रश्न के साथ उसने चिटकनी खोली।

द्वार खुलते ही प्रश्न का उत्तर उसके ठीक सामने था। ये और कोई नहीं उसी के विद्यार्थी थे अल्बर्ट और फ्रेड्रिक पढ़ने लिखने में मेधावी और अपने प्राध्यापक के व्यक्तित्व के प्रशंसक। किन्तु आज दोनों के चेहरे उखड़े-उखड़े थे। लग रहा था कि वे दोनों किसी विशेष मुद्दे को लेकर परेशान हैं। यों दुनिया में यदि कुछ सबसे अधिक सहज है तो वह है परेशानी। हर कहीं हर किसी को परेशान होता देखा जा सकता है। इतने पर भी परेशान होने वालों के दो वर्ग हैं। पहले में वे लोग आते हैं जिन्हें अपने जीवन की छोटी से छोटी तकलीफ परेशान कर डालती है, दूसरों की बड़ी से बड़ी आपदा से उन्हें तनिक भी लेना देना नहीं रहता। जबकि दूसरे में वे लोग आते हैं जिन्हें औरों की तनिक तकलीफ परेशान कर देती है जबकि अपने पर पड़ने वाली भारी भरकम विपत्ति के समय भी हँसते मुसकराते रहते हैं। इन दोनों का सम्बन्ध दूसरे वर्ग से था। उन्हें यह सूत्र पूर्णतया हृदयंगम हो गया था कि जो औरों की विपत्ति में हिस्सेदार होते हैं उनकी मुसकराहट स्वयं की विपत्ति पर साथ नहीं छोड़ती।

क्या हो गया है तुम्हें? उन्होंने उन दोनों के बैठते ही पूछा। इशारा चेहरे पर छा रहे विषद और आक्रोश के प्रति था। ‘इन दिनों फैल रहे समाचारों ने हम लोगों के मन में एक बवण्डर खड़ा कर दिया है। दूसरे देशों की तरह-तरह की धमकियाँ, अपने देश की आन्तरिक स्थिति पता नहीं क्या होगा? कहकर उसने गहरी उसाँस भरी। देखने में उसकी आयु अभी 23-24 साल होगी। अभी वह अध्ययनरत छात्र था। किन्तु जागरूक मानसिकता उसे विकल किए हुए थी।

ठीक से बताओ फ्रेड्रिक। उन्होंने पूरी दिलचस्पी के साथ पूरी बात जाननी चाही।

सर! देश की कहें या बाहर की। चलो देश की बात पहले लें। यहाँ की राजनीतिक अस्थिरता आप से छुपी नहीं। परस्पर अविश्वास का माहौल इतना घना होता जा रहा है कि पूछो ही मत। इस पर अन्तर्राष्ट्रीय चौधरियों के घड़ियाली दाँव-पेंच। इशारा नैपोलियन की ओर था और सामाजिक जीवन विच्छृंखलता विघटन। कुप्रथाओं स्वार्थों की महामारी से सब कुछ टूट-टूट कर बिखर रहा है। व्यक्ति के रूप में मनुष्य उसका न तो अपने ऊपर विश्वास है और न भविष्य के प्रति कोई आशा। अतीत का गौरव उसे पूरी तरह विस्मृत हो चुका है ऐसी दशा में.... वह आगे कुछ कह न सका। भविष्य की कुकल्पनाओं से होंठ काँप कर रह गए।

समग्रक्रान्ति के बिना कुछ होने का नहीं। अल्बर्ट ने स्थिर भाव से अपनी बात कही।

क्रान्ति! तुम लोग कुछ वैसी क्रान्तियों की बात तो नहीं कर रहे जैसी पिछले समय में कई हो चुकी हैं यदि कुछ वैसी सोच है तो जान लो इस तरह की क्रान्तियाँ मानव की समस्याओं का चिरस्थाई समाधान नहीं कर सकती।

कैसे? दोनों उनके चेहरे की ओर ताकने लगे। उन्हें अपने इस प्राध्यापक से बहुत कुछ आशाएँ थीं।

“क्योंकि इस तरह की क्रान्तियों का उद्देश्य होता है व्यवस्था को बदलना। अधिक से अधिक है सामाजिक प्रणाली में परिवर्तन कर इनकी इतिश्री हो जाती है। कहने के साथ उन्होंने सिर के बालों पर हाथ फिराया। तेज होती जा रही धूप के कारण खिड़की का एक सिरा हल्के से बन्द कर दिया।

“तो बदली व्यवस्था परिवर्तित सामाजिक प्रणाली समस्या का निदान नहीं है”। फ्रेड्रिक ले अटकते हुए पूछा। उसे आश्चर्य। हो रहा था।

नहीं! इससे थोड़ी देर के लिए आराम तो मिलता है। पर रोग का निदान नहीं होता। तुम जाते हो-उन्होंने गहरी दृष्टि से दानों की ओर देखा अब तक सब कुछ न जाने कितनी बार बदला गया इस पर भी परिणाम वही ‘ढाक के तीन पात।’ क्यों....? सिर्फ इसलिए कि मनुष्य नहीं बदला गया उसे बदलने की सोची भी नहीं गई।

पर पर मनुष्य तो।

समय के अनुसार कसके बदलते हुए रूप सामने आए हैं, यही कहना चाहते हो न। तो सुन लो यह बदलता स्वरूप ऊपर से की गई लीपा-पोती है। अन्दर से वह जैसा का तैसा बना रहा। परिस्थितियों की रगड़ से जब-जब यह रंग-रोगन उतरा है उसने पाषाण युगीन करतब ही दिखाए हैं। अब तब के इतिहास ने उसकी बर्बरता, क्रूरता, और सच कहा जाय तो पाशविकता की कहानियाँ ही लिखी हैं। क्रान्तियों के नाम पर नया रंग-रोगन चढ़ाना, क्या यही चाहते हो तुम?

तब फिर। वे सोच नहीं पा रहे थे।

उपाय एक ही है विचारों के द्वारा क्रान्ति। मनुष्य का सर्वांगपूर्ण बदलाव। उसके जीवन के केन्द्र में उथल-पुथल हो। सारी संरचना फिर से गढ़ी जाय। कैसे?

उन्होंने कमरे में टंगे दो चित्रों की ओर इशारा किया एक काण्ट का था, दूसरा महात्मा बुद्ध का। देख रहे हो न इन दोनों महामानवों को एक बुद्धि का प्रतिनिधि है दूसरा भावों का जिसमें ये दोनों एक साथ मिले जो दोनों को एक साथ मिला सके। उसी के द्वारा यह महान कार्य होगा।

“आप के विचार से यह कहाँ से होने की सम्भावना है”?

“सम्भावना नहीं सुनिश्चित तथ्य!” उनके अन्दर का ऋषित्व मुखर हो उठा। “उपनिषदों के देश से उठेगा विचार क्रान्ति का परिवर्तनकारी तूफान।” उनकी आवाज चेतना की अटल गहराइयों से उभर रही थी, “जब भी यह तूफान उठ खड़ा हो तो समझना मनुष्य देवता बनने वाला है और धरती स्वर्ग”।

“आह! कब होगा यह सब?” आगन्तुक भी सुखद कल्पना में खोने लगे।

धैर्य रक्खो बच्चों इस सहस्राब्दी के अन्त तक। तब तक सामयिक दायित्व का निर्वाह करो। उनके इस भविष्य कथन को उद्धृत करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने 16 जनवरी 1870 के अपने व्याख्यान में कहा था कि यह भविष्यवाणी जर्मनी के ऋषि शाँपनहावर कर गए हैं शीघ्र ही विश्व विचार जगत में सर्वाधिक शक्तिशाली और दिगन्तव्यापी क्रान्ति का साक्षी होने वाला है।

आज वही क्षण है, यह वही बेला है जब शाँपनहावर की वाणी युगानुरूप प्रयासों के रूप में मूर्त हो रही है। साक्षी हैं हम सब।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118