कर्म कब बन जाता है योग!

October 1990

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दोनों के कदम इस पहाड़ी राह पर साथ-साथ पड़ रहे थे। यों चेहरे-मोहरे से इनमें कोई पहाड़ी नहीं लगता, पर मुखर पर छाई उल्लास की रेखाएं, चाल में मस्ती साफ स्वरों में यह बता रही थी कि धरता का हर कोना उनका अपना है। गाँव, शहर, पहाड़, जंगल, नदी, झरने, सभी उनको एक साथ प्यारे हैं, वे भी सभी को प्रिय हैं। चलते-चलते उनमें से एक ने बर्फ की चादर लपेटे समाने खड़ी पहाड़ी की ओर ताका-सूर्यास्त हो रहा था। अस्तांचल की ओर जाते हुए आदित्य की रश्मियों को गले लिपटा कर विदाई दे रहे पहाड़ सुनहले दीख रहे थे। पक्षियों का स्वर इधर-उधर मँडरा रहा था।

“लगता है लौटने में हम लोगों ने देर कर दी क्यों?” इशारा साथ चल रहे साथी की ओर था। “नहीं, हम लोग अंधेरा होते-होते अपने स्थान पर पहुँच जाएँगे।”

चलते-चलते दोनों किसी गाँव के पास आ पहुँचे थे। राह के किनारे ही मन्दिर बन रहा था। शाम होने के बाद भी अभी निर्माण कार्य थमा नहीं था, शायद इसे जल्दी परिपूर्णता देनी हो। न जाने उन्हें क्या स्फुरणा हुई-उन्होंने निर्मित हो रहे मन्दिर के सीमा क्षेत्र में प्रवेश किया। ढेरों मजदूर, कारीगर, मिस्त्री और बढ़ई वहाँ काम कर रहे थे। पता नहीं क्या सोच कर एक ओर बैठे काम कर रहे मजदूर के पास जाकर पूछा-”भाई! क्या कर रहे हो?” “देखते नहीं हो। पत्थर तोड़ रहा हूँ”-मजदूर ने कहा। यद्यपि प्रश्न बड़ी विनम्रता से किया गया था, वाणी पर्याप्त माधुर्य से सनी थी। परन्तु इतना तिक्त जवाब पाकर लगा कि काम करने वाला तेज मिजाज है। यही नहीं वह किसी बात को लेकर दुखी है। तभी तो सीधी-सीधी बात का इतना कड़वा उत्तर।

वह कुछ और बढ़े। दूसरे मजदूर के पास पहुँच कर पहले वाला सवाल दुहराया। मजदूर के उत्तर में पहले जैसी तिक्तता तो नहीं थी पर यह जरूर लगता था कि उसे काम में आनन्द नहीं आ रहा है। उसने कहा था, “भैया! पेट के लिए काम कर रहा हूँ।

उसी वाणी में विवशता की बोझिलता और अनुत्साह का फीकापन था। वह इधर-उधर देखते हुए एक और कार्यकर्मी के पास गए। वह बड़े उत्साह, शक्ति और सुघड़ता से पत्थर तोड़ रहा था। उनने उससे पूछ ही लिया-”भाई यहाँ क्या हो रहा है और तुम क्या कर रहे हो?” मजदूर ने बिना हाथ हटाए उनकी ओर देखा। उसकी आँखों में आह्लाद की चमक और आनन्द की दीप्ति नाच रही थी। उसी भाव को व्यक्त करते हुए उसने धैर्यपूर्वक उत्तर दिया-”यहाँ भगवान का मन्दिर बन रहा है और मैं भी इस भगवत् कार्य को पूरा करने के लिए मेहनत कर रहा हूँ।”

वह फिर अपनी राह पर चल पड़े, साथ मित्र भी। साथी की ओर देखते हुए पूछा-”समझे कर्म का रहस्य?” “के....के... क्या?” लगता है उसे समझ में नहीं आया था। अब वह खुद समझाते हुए बोले- “देखो! पहला मजदूर जबरदस्ती लादी गई मजदूरी कर रहा था। दूसरा बेचारा स्वतः की विवशता के कारण जुटा था। दोनों अपने मनोभावों के कारण दुःखी निराश और उद्विग्न थे। जबकि तीसरा वही काम करते हुए आनन्दित था,” “जानते हो क्यों?” हल्की मुस्कान के साथ उसे देखा। “तीसरे व्यक्ति में एक गरिमा थी, आनन्द था, प्रवीणता थी और उन सबका कारण भी उस व्यक्ति की समर्पण आध्यात्मिक भावना, जो उसे तीनों विशेषताओं से आप्लावित कर रही थी। यही है कर्म का रहस्य, शुष्कता में सरसता भरने का नुस्खा।”

गंगा किनारे बनी कुटिया आ गई थी। दोनों ने साथ-साथ प्रवेश किया। वह दीपक जलाते हुए बोले-”काम कोई भी हो लेकिन उसे करते समय कर्ता का दृष्टिकोण कार्य को उत्कृष्ट अथवा निकृष्ट बनाता है। सामान्य परिणाम और लाभ तो उसे मिलते ही हैं पर उत्कृष्ट भावनाओं के घुल जाने से साधारण कर्म भी योग बन जाता है, चेतना में निखार लाता है।”

कर्म के रहस्य के उद्गाता थे- स्वामी रामतीर्थ और ग्रहीता थे उनके अभिन्न मित्र अध्यापक पूर्ण सिंह। यदि हम भी आध्यात्मिक भावों को स्वयं में प्रदीप्त कर पाएं तो हमारे जीवन में भी वैसी ही ज्योतिर्मय मुस्कान छलक सकेगी।


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