अरे! यह क्या? वह हतप्रभ हो देख रहे थे। प्रत्येक फल के साथ उनका आश्चर्य द्विगुणित होता जा रहा था। न उसका विस्तार थम रहा था और न गुणित अनुपात में होने वाली उनकी आश्चर्य की बढ़ोतरी। यो चेतना का लक्षण ही है विस्तार सामान्य क्रम में इसे आश्चर्यजनक कैसे कहा जाय? पर जिस क्षण पर विस्तार समय के बाड़े को तोड़ दे जब देश और काल दोनों मिलकर उसकी सीमा रेखा खींच पाने में खुद को समर्थ पाने लगे तब..........।
वह आज प्रातः नित्य नियम के अनुसार सरिता के तट पर गए थे। उस समय पक्षियों का कलरव गुंजन लगा था जैसे भगवा आदित्य के साथ जाग कर वे भी उनका साहचर्य निभाने लगे हो। आश्रम में अन्तेवासी अपनी दिनचर्या आरम्भ कर रहे थे और वह ध्यान से निवृत्त हो सन्ध्योपासना के लिए बैठे थे।
आवश्यक उपचार पूरे कर उन्होंने गायत्री जप आरंभ किया। प्रातः काल के उदित रवि की भाँति अपनी अन्तरात्मा में बिम्बात्मा की जलती ज्योति का ध्यान किया और उस ज्योति में मन बुद्धि चित्त अहंकार के समस्त कषाय कल्मषों को जलते हुए देखा। गायत्री जप पूरा होते ही वह उठ खड़े हुए थे सूर्य भगवान को अर्घ्य देने के लिए।
कटि प्रदेश तक स्पर्श कर सके इतने गहरे पानी में प्रवेश किया और दोनों हाथों की अंजलि में पानी भर कर पूर्व दिशा में उसे छोड़ मंत्री पाठ करते हुए।
एक बार.......... दो बार.......... तीन बार इसी क्रिया को दोहराया। पर अन्तिम बार उन्होंने अपनी हथेली पर कोई जन्तु रेंगता हुआ अनुभव किया।
उनने शान्त चित से अंजलि का ध्यान से देखा। यह नन्हा दुबला मीन शिशु था कुछ तपे सोने जैसे रंग का। अंजलि के पानी में उसकी चंचल गति सूर्य रश्मियों के साथ मिलकर उसे सौंदर्य पुँज बना रही थी। बेचारा................. उन्हें दया आयी। इन भावों के साथ उसे अपने कमण्डलु में स्थान दिया।
इसी के साथ शुरू हुआ उसके विस्तार का अद्भुत क्रम कमण्डलु के कुण्ड कुण्ड से सरोवर और अब तो उसे सागर में छोड़ने के लिए बाध्य होना पड़ रहा था। प्रारंभ से वर्तमान क्षण तक की सारी घटनाएँ एक एक करके मन के चित्र पट पर उभर रही थी। वह एकटक देख रहे थे। मन सोचने में अक्षम हो रहा था। मीन शिशु से मत्स्य मत्स्य से महामत्स्य नहीं ...........नहीं........यह मत्स्य नहीं हो सकता है फिर है कौन यह? संसार भर का क्षेत्र घेरता जा रहा है।
वह इसी ऊहापोह से गुजर रहे थे कि एक वाणी गूँजी जिसने बैखरी मध्यमा पश्यन्ती परा के अनेक रूप धारण कर उनके समूचे अन्तः करण को सराबोर कर दिया, जीवन क्रम में हलचल मचा दी। वाणी अभी भी स्पष्ट थी मैं जीवधारी दीखता भर वस्तुतः युगान्तरीय चेतना हूँ। इस अनगढ़ संसार जब भी सुव्यवस्थित करना होता है तो उस सुविस्तृत कार्य को सम्पन्न करने के लिए अपनी सत्ता व नियोजित करता हूँ। आज वही समय है ठीक वही कार्य की सम्पूर्णता के लिए मुझे मानव सहचर चाहिए तुम आगे आ सकोगे?
सहायता नहीं साहचर्य चाहिए। उसी वाणी शंका का शमन किया युगान्तर कारी कार्य विराट चेतना करेगी पर उसकी अभिव्यक्ति के लिए मानव यंत्र चाहिए। आदर्शों नवीन मूल्यों व प्रतिष्ठापना के श्रेयधारक न केवल न स्वयं बनेंगे बल्कि अनेकों का पथ प्रशस्त कर सकेंगे। मनुष्य व भावी सतति युगों तक उनका यशोगान करेगी।
अब कहाँ कुछ कहना बाकी रह गया। वह सोचने लगे धन्य होती है वह घड़ियां अद्भुत हो हे वे पल जब प्रभु स्वयं देहधारी बन प्राणियों बीच विचरण करते है। मानवों को पुकारते है जाग्रत अग्रदूतों! आगे आओ! देखो! कब से तुम्हें पुकार रहा हूँ। पर हाय रे, अभागे मनुष्य तूने कब उस महाप्राण की पुकार सुननी चाही है वह तो तुझे सीन के चिपटाने के लिए आतुर है तू तो उसे बराबर ठुकरा रहा हैं सभी जो करते सो करें पर वह स्वयं.......। मैं सर्वथा तत्पर प्रभु। दिल के उद्गार वाणी से बह निकले।
युग का अवसान हुआ। महाविनाश महासृजन बदलता दिखाई देने लगा। भगवान मत्स्य एकाकी पथप्रदर्शक थे और उन्हें इस महागुरु के निर्देशन में नूतन सृजन के विश्वकर्मा बनने का सौभाग्य मिला। वह धन्य हो उठे। युग ने उन्हें आदिपुरुष स्वीकारा। मनु स्वयं को उनकी सन्तान कहने में कृतकृत्यता अनुभव करने लगा। कहना न होगा ये युगशिल्पी वैवस्वत थे। जिनका कर्तव्य हमारा मार्गदर्शक है।
नवयुग को पोषण पालन करने वाली पर चेतना हम सबके बीच मीन शिशु की भाँति लघुत्तम रूप से प्रादुर्भूत हुई थी। आज उसके लघु महान तुच्छ से विशाल होने में हमें अचम्भे जैसा व्यतिक्रम भले मालूम पड़े। पर जिस प्रयोजन लिए दिव्य सत्ता की योजना काम कर रही उसका द्रुतगामी विस्तार उपरोक्त मत्स्यावतार भाँति स्पष्ट। उसकी पुकार को सुन नवयुग मनु की भूमिका निबाहने आगे आना ही होगा।