सूक्ष्म सत्ता की सामर्थ्य और भी प्रचण्ड

October 1990

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महामानवों की प्रकृति परमार्थपरायण होती है। वे सदा दूसरों को आगे बढ़ाने ऊँचा उठाने की ही बात सोचते हैं, पर इनके प्रति लोकमानस में सदा एक भ्रान्ति बनी रहती है कि जब तक शरीर है, तब तक तो उनका प्रत्यक्ष मार्गदर्शन, सहयोग और सहकार मिलते रहेंगे, इसमें दो मत नहीं है, किन्तु उनके मृत्योपरांत? उसके बाद यह क्रम किस प्रकार अक्षुण्ण बना रह सकेगा? ऐसी शंका-कुशंका करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं। सामान्य लोगों के लिए यह परिधान-परिवर्तन जैसी घटना हो सकती है, जिसमें पुराने वस्त्र को त्यागने और नया वस्त्र धारण करने की तरह शरीर को परिवर्तित कर लिया जाता है, किन्तु महामानव स्तर के लोग मृत्योपरांत भी लम्बे काल तक बिना शरीर धारण किये सूक्ष्म अवस्था में बने रह सकते हैं, ताकि लोगों की वे और अधिक सेवा-सहायता कर सकें, स्थूल जगत में भौतिक शरीर के बन्धन के कारण जैसे अति सामर्थ्यवान शरीरों में रहते हुए पूरा कर सकें। आये दिन ऐसी घटनाएँ देखने को मिलती ही रहती हैं, जिससे यह मान्यता और भी दृढ़ हो जाती है एवं लोगों को बाधित होकर इस पर विश्वास करना पड़ता है कि महामानवों की सेवा-सहायता वाली प्रवृत्ति सदा वैसी ही बनी रहती है, जैसी जीवनकाल के दौरान थी। उसमें राई-रत्ती भर भी कमी नहीं आती, वरन् बढ़ोत्तरी ही होती है।

घटना अमेरिका की है। कैलीफोर्निया के ब्रिटीवर्थ कस्बे की महिला रोजमेरीब्राउन अपनी आत्मकथा “डू वी रियली डाई” में लिखती हैं कि तब वह सात वर्ष की थीं। एक सुबह कमरे में अकेली पड़ रही थीं कि यकायक बिजली कौंधने जैसा प्रकाश हुआ। वह चौंक गई। तभी सामने एक परिचित व्यक्ति प्रकट हुआ। उसने अपना परिचय विश्व प्रसिद्ध संगीतकार फ्रेंजजित्ज के रूप में दिया। संयोग से ब्राउन को इतना मालूम था कि फ्रेंजलित्ज अब इस संसार में नहीं हैं। सो, उसने उस व्यक्ति से इस आशय की सहज की जिज्ञासा प्रकट की। फ्रेंजलित्ज नामधारी व्यक्ति ने उत्तर दिया “हाँ, तुम सही कहती हो, यह मेरा सूक्ष्म शरीर है। मैं तुम्हारी संगीत के प्रति रुचि देख कर ही यहाँ आया हूँ, पर अभी तुम्हारी वह आयु नहीं कि तुम कठिन संगीत सीख सको। समय आने पर मैं फिर उपस्थित होऊँगा।” इतना कह कर वह आत्मा अन्तर्ध्यान हो गई।

श्रीमती ब्राउन लिखती हैं कि वही आत्मा 1964 में 20 वर्ष बाद पुनः प्रकट हुई, पर उस बार वह अकेली नहीं थी। विश्व प्रसिद्ध संगीतकार आत्माओं को भी साथ में लायी थी, जिनमें चोपीन, स्क्यूबर्ट स्कूमेन, बीथेवेन, बेच, मोजार्ट, ग्रीज, बर्ललियोज, स्ट्रेबिनस्की, रैकमेनिआफ आदि प्रमुख थे। रोजमेरी लिखती हैं कि पहले तो वह उन्हें देख कर डर गई पर संभवतः मेरे विचार को पढ़ कर उन सभी ने आश्वासन दिया -”डरो मत। हमें तुम्हारे माध्यम से अपनी इच्छा पूरी करनी है, सो अपनी संगीत की योग्यता बढ़ाती जाओ, उसमें हम सभी तुम्हारी मदद करेंगे।”

श्रीमती ब्राउन तब दो बच्चों की माँ थी और विधवा जीवन बिता रही थी। सन् 1964 के एक अन्य अवसर का वर्णन करते हुए लिखती हैं कि एक दोपहर को वह अपने कमरे में बैठी कुछ पढ़ रही थीं कि एक घने बालों वाले वृद्ध व्यक्ति की आकृति कमरे में प्रकट हुई एवं कमरे में रखे पियानो की ओर संकेत करने लगी। जब वह पियानो बजाने बैठी, तो अतिविशिष्ट धुनें थोड़े से प्रयास से ही निकलने लगीं। बीच-बीच में उस आकृति का मार्गदर्शन मिलता रहा। बाद में उसने अपना परिचय ‘लिज्क’ नाम से दिया और कहा कि इन लिपिबद्ध भी करती जाना, ताकि भूलने की गुंजाइश समाप्त हो जाय।

वह आगे कहती हैं कि इसके बाद प्रायः प्रतिदिन कोई न कोई संगीतकार आ जाते और संगीत का मर्म सिखा कर चले जाते। हर संगीतज्ञ अपने प्रिय वाद्य की ही शिक्षा देते। इसकी अनुभूति का वर्ण करती हुई ब्राउन कहती हैं कि जब चोपीन संगीत शिक्षा के लिए आते, तो बड़े सज-धज कर आते। उनका स्वभाव विनोदी था और बीच-बीच में हँसी-मजाक भी किया करते। एक बार तो वे वाद्ययंत्र सहित अदृश्य हो गये, पर उसकी धुन स्पष्ट सुनाई पड़ती रही। कुछ क्षण बाद वे पुनः प्रकट हुए और वही तर्ज सिखाने लगे।

स्क्यूबर्ट के बारे में ब्राउन लिखती है कि वे मधुर प्रकृति के थे। सब कुछ बड़े भोलेपन से सिखाते। कभी कोई तर्ज समझ में नहीं आती, तो वे उसे बार-बार बजा कर सुनाते। लिस्उट का स्वभाव इनसे भिन्न था। जब उन्हें ऐसा लगता कि उनका उचित सम्मान नहीं किया जा रहा है, तो वे तत्काल तिरोहित हो जाते और फिर उस दिन दुबारा लौट कर नहीं आते। रिचमेनिआफ पास बैठने की अपेक्षा खड़ा रहना अधिक पसंद करते। डेबूसे दाढ़ी रहित रूखे स्वभाव के थे। कम बोलना उनके स्वभाव का अंग था। बीथोबेन नम्र प्रकृति के परिश्रमशील व्यक्ति थे। घंटों वे साज का अभ्यास करवाते रहते।

ब्राउन लिखती है कि यह क्रम लगभग 15 वर्षों तक चलता रहा और जब वह संगीत के विभिन्न वाद्ययंत्रों में निष्णात् हो गई तो सभी ने यह कह कर विदाई ली कि “अब तुम इस क्षेत्र में समर्थ हो गई हो। अब और किसी प्रकार के मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं है, फिर भी यदि कभी इसकी जरूरत महसूस हुई तो हम मार्गदर्शन के लिए प्रस्तुत होते रहेंगे, पर एक बात का ध्यान रखना, तुम इस क्षेत्र में कृपण कभी न बनना। जिज्ञासुओं को इसकी शिक्षा उसी प्रकार देती रहना, जैसी कि हम लोगों ने तुम्हें परिश्रमपूर्वक दी है।” इतना कह कर सभी आत्माएँ गायब हो गई। तभी से रोजमेरी ब्राउन अनेकों को संगीत-शिक्षा देने में लगी हुई है।

सन् 1971 में सर डोनाल्ड टोवे की एक संगीत कृति प्रकाशित होनी थी। इसका जिम्मा श्रीमती ब्राउन को सौंपा गया। महीनों की मेहनत से जब पाण्डुलिपि बन कर प्रेस में जाने के लिए तैयार हुई तो एक दिन दिवंगत टोवे स्वयं प्रकट होकर ब्राउन को पाण्डुलिपि की एक गलती की ओर इशारा करने लगे। बाद में सुधार के पश्चात् ही पुस्तक छापी गई।

17 अक्टूबर 1968 को बी.बी.सी. ने ब्राउन के संगीत पर आधारित एक वृत्तचित्र प्रसारित किया। विश्व के तत्कालीन संगीत विशारदों ने उसे देखने-सुनने के बाद एक ही निष्कर्ष निकाला कि यद्यपि यह सब ब्राउन की ही रचनाएँ हैं, इसमें शक की गुंजाइश नहीं है, तथापि यह निस्संदेह एक अविश्वसनीय घटना है। ‘न्यूयार्क मैगजीन’ के संपादक एलनस्पिटज लिखते हैं, क्योंकि इनमें से एक में भी उनकी मौलिकता नजर नहीं आती। ‘सटर्डे रिव्यू’ पत्रिका में इरविंग कोटडिंग कहते हैं कि एक व्यक्ति द्वारा विश्व के अनेक संगीतज्ञों की शैली में गूढ़ रचनाएँ प्रस्तुत करना निश्चय ही पितर स्तर की आत्माओं द्वारा प्रशिक्षण का उत्कृष्ट नमूना है।

इसी से मिलती-जुलती घटना सेण्टलुइस की एक महिला श्रीमती करेन से संबंधित है। 1913 में जब वह मात्र 6 वर्ष की थी, तभी उसे एक महान साहित्यकार की आत्मा का सहयोग प्राप्त हुआ था। इसी के कारण वह इस अल्पवय में भी सात उपन्यास, अनेक कहानियाँ एवं निबन्ध संग्रह लिखने में सफल हुई। तीन लाख शब्दों वाला उपन्यास “दि सारी टाल”को पढ़ कर उस समय के सभी साहित्यकार विस्मित हो गये थे कि इस अत्यल्प वय में इतना परिपक्व और शोधपूर्ण विचारों वाला ग्रन्थ कैसे संभव हो सका?

इस संबंध में मात्र इतना ही कहा जा सकता है कि महामानव कभी मरते नहीं और न सेवा सहायता के क्षेत्र में कृपणता का ही कलंक अपने ऊपर लगने देते हैं। पंचभौतिक शरीर का त्यागना जनसामान्य को मृत्यु जैसा प्रतीत हो सकता है, पर वास्तविकता यह है कि इस सूक्ष्म स्थिति में वे और समर्थ व सशक्त बन जाते हैं और उनकी सेवाएँ जो भौतिक शरीर के बन्धन के कारण सीमित परिधि में सीमाबद्ध थी, वह और असीमित-अपरिमित बन जाती है। शान्तिकुँज की सूत्र संचालक सत्ता के बारे में भी किसी को यह असमंजस नहीं करना चाहिए कि जो कुछ अभी प्रत्यक्ष मार्गदर्शन के सहारे सहज संभव बन पड़ रहा था वह उनकी अनुपस्थिति में कैसे गतिमान रह सकेगा? ऐसा सोचने वालों को उनका वह कथन विस्मृत नहीं करना चाहिए, जिसमें उनने बुद्ध की उक्ति दुहराते हुए कहा है कि जब तक इस धरित्री के एक-एक व्यक्ति की मुक्ति नहीं हो जाती, तब तक वे स्वयं भी मुक्त होना पसंद नहीं करेंगे और अगली एक शताब्दी तक निर्बाध रूप में सूक्ष्म व कारण शरीर के रूप में चौगुने-सौगुने वेग से सक्रिय बने रहेंगे।


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