सम्पूर्ण सृष्टि मेरा विधान, मैं ही अदृश्य, मैं दृश्यमान, मैं उद्गम मैं ही विलय स्वयं, फिर क्या मेरा उद्भव-पयाण?
तन की सीमा के आर-पार, बिल्कुल अछोर मेरा प्रसार। मैं अखिल विश्व का स्वयं मूल, मैं ही कारण, मैं ही निदान।
स्वयं धैर्य, मैं हूँ अधीर, मैं स्थूल-सूक्ष्म-कारण शरीर, सुगम-अगम हूँ एक साथ, मैं हूँ लघुतम, मैं हूँ महान।
मैं आदि मध्य हूँ, और अन्त, मैं हूँ अनादि, मैं हूँ अनन्त, मैं सुबह और दोपहर मैं ही, मैं ही संध्या दिवसावसान।
मैं चाहूँ तो बढ़ चले सूर्य, मेरी इच्छा से ढले सूर्य, पाकर मेरा संकेत मात्र, रुक जाता नभ में अंशुमान।
मैं सविता का स्वर्णिम प्रकाश, प्राणों में बहता हुआ श्वास, जन-जन, अणु-अणु में विद्यमान, चेतनता ही मेरा प्रमाण।
मेरी इच्छा से बनी सृष्टि,मेरी समष्टि, प्यारी समष्टि, मैं अंधकार मैं दिशाज्ञान, हर संशय का मैं समाधान।
मैं स्वयं बना नश्वर शरीर, हरने को जग की गहन पीर, संघर्ष असुरता से करके, करने धरती का परित्राण।
मेरे वंशज सपूत! बढ़ चलो, क्रान्ति के अग्रदूत! पुरुषार्थ तुम्हारा सावधान, लाएगा कल नूतन विहान।
-शचीन्द्र भटनागर
*समाप्त*