इन दिनों विचार क्रान्ति के तूफानी झकोरों से अधजगे उनींदे आँखें मलते मानव समाज की अकुलाहटें साफ नजर आ रही है। साथ ही ध्वनित होते है ये सवाल क्या जरूरत आ पड़ी इस क्रान्ति की? विगत इतिहास में हो चुकी अनेकों क्रान्तियों की अपेक्षा इसमें क्या खासियत है? सवालों की जटिलता के बावजूद इनकी सामयिकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। मानव जीवन के इतिहास की पोथी क्रान्ति के अक्षरों से रंगी पड़ी है। मानवीयता के महाउदधि में क्रान्ति के अनेकों ज्वार उठे और राय हुए। इतने पर भी वर्तमान क्रान्ति जो स्वर्ण युग की संदेशवाहक है की अपनी मौलिकता है। इसे अतीत के पृष्ठों में झाँके वर्तमान से संबंध में सूत्र जोड़े बिना नहीं परखा जा सकता है। समुज्ज्वल भवितव्यता की चिरस्थाई संस्थापना पर विश्वास जमाने का और आधार भी क्या है?
क्रान्तियों के इतिहास के अन्दर हम दो सिद्धान्तों को काम करते दीखते है। एक तो सातत्य का सिद्धान्त है दूसरा परिवर्तन का। ये दोनों सिद्धान्त परस्पर विरोधी लगते है परन्तु ये विरोधी है नहीं। सातत्य के भीतर परिवर्तन की झलक है। इसी प्रकार परिवर्तन भी अपने अन्दर सातत्य का कुछ अंश छिपाए रखता है। असल में हमारा ध्यान उन्हीं परिवर्तनों की ओर जाता है जो क्रान्ति के रूप में अचानक फूट पड़ते है फिर भी प्रत्येक भूगर्भ शासे जानता है कि धरती की सतह पर जो बड़े बड़े परिवर्तन होते हे उनकी चाल बहुत धीमी होती है। इसी तरह क्रान्तियाँ भी धीरे धीरे होने वाले परिवर्तन और रूपांतरण की एक बहुत लम्बी प्रक्रिया का बाहरी प्रमाण भर होती है। इस तथ्य के मुताबिक पिछली क्रान्तियों को इन दिनों सम्पन्न हो रही महाक्रान्ति की तैयारी के रूप में समझा जा सकता है।
पहली क्रान्ति उस समय घटी जब क्रान्तिधर्मी मानद अपने आरम्भिक काल में छोटे छोटे समूह बनाकर रहता था। सर्वथा अव्यवस्थित किन्तु उसके पास वे सारे उपकरण थे जिनसे जीवन में क्रान्ति घटे। हुआ भी ऐसा ही। राधाकुमुद मुखर्जी की एन्सिएण्ट इण्डिया के अनुसार समूहों की व्यवस्था के सविधि संचालन के लिए राज्य का उदय हुआ। राजतन्त्र पनपा। परस्पर के सम्बन्ध उदारतापूर्वक निभ सके इस हेतु समाज नीति निर्धारित हुई। विनियम व्यवस्था ने अर्थनीति को जन्म दिया और मनुष्य के अन्तरंग उन्नयन की प्रणाली ने आध्यात्म का रूप धारण किया। यह मानव जीवन की पहली क्रान्ति थी जिसका तथ्यपूर्ण विवेचन डॉ. राँगेय राधा ने अपनी रचना आदि से इन्द्र तक में सफलतापूर्वक किया है। उस समय के राजा और राज्य व्यक्ति ओर समाज की कल्पना वैदिक साहित्य का अवगाहन किए बिना अशक्य है।
न केवल भारत में बल्कि यूनान मिश्र रोग जहाँ भी मानव ने निवास किया समष्टि मन का यही चमत्कार घटा। प्रथम क्रान्ति से जीवन तीन अंगों में व्यवस्थित हुआ राज्य अर्थ बुद्धि राज्य का नियंत्रक राजा अथवा प्रशासक अर्थ के नियंत्रक व्यापारी और बुद्धि का नियामक मनीषी। मनीषियों का धन्धा कर्तव्य मनोरंजन कुछ भी नाम दे एक ही था जीवन की समस्याओं का हल। इसी वर्ग ने हर कही मेजिनी वाल्टेयर शीक्यू लेनिन गाँधी की भूमिका निभाई। अन्य दो में से प्रथम तो जड़ता से ग्रसित होकर क्रान्ति का विरोधी ही साबित हुआ दूसरे ने तटस्थता बरतने अथवा अवसरवाद अपनाने में अपनी सार्थकता मानी।
मानव की प्रबल अभीप्सा रही है उन्नयन। जब यह अन्तर में घटित हुआ है तब वह चेतना के गंभीरतम शिखरों पर बैठा है। जब बाहर हुआ है तब आत्म विस्तार पनपा है। इस विस्तार का रूप देश काल के अनुरूप कुछ भी हो। धीरे धीरे राज्य बढ़े समाज विशाल हुआ जीवन जटिल। संकीर्णताओं की जकड़न और विवशता की बेबस सिसकियाँ गूंजी। ऋषि मनीषी क्रांतिदर्शी थे और सामान्य जन क्रान्तिधर्मी। इन दोनों में जब जो अपना पथ भूला तब तब मानवता विकल हुई। जन विकलता की तड़प ही तो क्रान्ति की तड़ित है। यह तथ्य देशव्यापी क्षेत्रव्यापी जाति व्यापी न होकर जीवन व्यापी है।
आदमी की तकलीफ के दो कारण है पहला साधनों का अभाव दूसरा व्यवस्था का वह स्वरूप जो अपने लौह पाश के द्वारा स्वाभाविक विकास को रोकना चाहता है। ये चाहे शासन के शोषक हो अथवा रूढ़ियों कुरीतियों के पृष्ठपोषक दोनों एक ही थैली के चट्टे बट्टे है। इन दोनों कारणों के पीछे वह अज्ञान है जो व्यक्ति और समाज के बीच असन्तुलन की सृष्टि करता है। राजतन्त्र के चरमराते ढाँचे ने जब व्यक्तिवाद का रूप लिया शोषणवाद को प्रश्रय दिया वही से विश्व इतिहास में क्रान्ति की श्रृंखला चल निकली। फलतः न केवल भारत बल्कि फ्राँस रूस इटली अमेरिका जापान सहित लगभग समूचे विश्व ने कसम खाली कि राजतन्त्र को उखाड़ फेंकना है। व्यक्तिवाद को बिस्मार करना है। हुआ भी यही जहाँ कही भी क्रान्तियाँ हुई उनका पहला प्रकोप राजतन्त्र पर हुआ। चूँकि राजसत्ता ने अपनी पूरी प्रभाविकता में अर्थ और समाज पर अपनी पकड़ जमा रखी थी। इसलिए उसके प्रभाव अर्थव समाज पर पड़े बिना न रहे।
ऐन इलस्ट्रेटेड आउट लाइन हिस्ट्री आँव मैनकाँइड के सम्पादक के कूपर कोल के संकेतानुसार ये सभी क्रान्तियाँ संख्या की दृष्टि से भले अनेक हो पर स्वरूप और सिद्धान्त की दृष्टि से एक सी है। राजतन्त्र के विकल्प के रूप में लोकतन्त्र व साम्यवाद प्रकाश में आए। लोकतन्त्र की शुरुआत वैशाली के गणतन्त्र से हुई जिसकी श्रृंखला अभी तक प्रवाहमान है। व्यवस्था परिवर्तन के अलावा पुनर्जागरण काल में वैज्ञानिक क्रांति सम्पन्न हुई जिसने आगे चलकर औद्योगिक क्रान्ति से अपना सहचरत्व निभाया। जीवन मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिकता की सीधा आघात धर्म पर हुआ और जीवनशैली के क्षेत्र में औद्योगिक क्रान्ति ने उथल पुथल मचा कर रख दी।
इन सब के बावजूद क्या मानव की विकलता थमी, वेदना कम हुई? यदि नहीं तो अवश्य इन परिवर्तनों में कुछ मूलभूत कमियाँ रही होगी। यदि ऐसा न होता तो व्यक्तिवाद की समाप्ति का दावा करने वाली लोकतान्त्रिक व्यवस्था में वे न होते जिन्हें अपनी रोटी दूसरों के साथ खाना मंजूर नहीं। जिन्हें पूरी रोटी सिर्फ अपने लिए चाहिए बल्कि बस चले तो औरों की भी रोटियाँ छीन कर बेच डाले और मिले धन से घूँट भर शराब पीने में चैन महसूस करें। साम्यवाद व्यक्ति की मौलिकता पर कुठाराघात करने वाला सिद्ध न होता। विनियम और अर्जन की प्रणाली इतनी दुर्बल कैसे होती?
वास्तविकता कुछ ऐसी ही है। क्रान्ति को संरचना और प्रक्रिया पर गौर करने पर स्पष्ट होता है कि इसका आरम्भ हमेशा कुछ विचारशील साहसी परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्व देने वाले व्यक्तियों के द्वारा होता है। आर्थिक ढाँचा या तो तटस्थ रहता है अथवा किन्हीं अंशों में सहयोगी अथवा विरोधी। राजसत्ता हमेशा विरोधी पाले में खड़ी मिलती है। क्रान्तिकारी सर्वहित में सर्वस्व दे डालने की मौलिक विशेषता के कारण व्यक्तिवान होते है। अपने इस गुण व अदम्य साहस से वह व्यवस्था बदल डालते है। प्रकाश में आती है क्रान्तिकारी सरकार। क्रांतियां क्षेत्रीय हे या राष्ट्रीय भारत फ्राँस का उदाहरण लें अथवा मिजोरम आसाम का। नेपाल इटली अमेरिका का कोई भी क्या न हो। हर कहीं अपने समय में क्रांतिकारी सरकारें आयी है। बस यहीं से क्रान्ति रुकी और गड़बड़ियां पनपी। रशियन विचारक प्रिंस क्रोपाटकिन ने “रिवोल्यूशनरी गवर्नमेण्ट” नामक निबन्ध में इसका सुंदर विवेचन किया है। उनके अनुसार ऐसी स्थिति में क्रान्तिधर्मी- क्रान्ति विरोधी का चोला ओढ़ लेते है। सामयिक निदान हो जाने के कारण कुछ दिन अमन चैन लगता है। जाग्रतजन फिर गाढ़ी नींद के खर्राटे में डूब जाता है। परथोडे दिन बाद पोल खुल जाती है। जर्जर व्यवस्था के ढाँचे आर्थिक रूढ़ियां आपस का विद्वेष कड़वी सामाजिकता अनगढ़ जनसमुदाय सब मिलकर ऐसा भोंड़ा प्रदर्शन करने लगते है कि विश्वास नहीं होता कि यहाँ कभी क्रान्ति हुई थी।
इसका एकमेव कारण है व्यक्ति और समाज की संरचना और अंतर्संबंधों को बिसार देना। जीवन का विकास मनोसामाजिक होता है। क्रान्ति क्यों नहीं ऐसी होनी चाहिए? व्यक्ति ढले नहीं समाज सुधरा नहीं ऐसी दशा में उलट फेर कितने दिन काम देगी। स्थाई समाधान एक ही है व्यक्ति बदले समाज सुधरे। आवश्यकता मनोसामाजिक क्रान्ति की है। होता यह कि व्यवस्था को बदलने वाले क्रान्ति दल के दो भाग होते है। एक नयी व्यवस्था में प्राण भरता दूसरा व्यक्ति गढ़ता है। समाज की प्रथा परम्पराएँ कुरीतियाँ सुधारता है। मात्र सामाजिक क्रान्ति से काम चलने वाला नहीं। जमाने को भारी तादाद में विवेकानन्द गाँधी मेजिनी चाहिए जब तक इस व्यक्ति निर्मा की फैक्ट्री में ताला लगा हुआ है तब तक क्रान्ति की पूर्णता सम्भव नहीं। व्यक्ति अच्छे होंगे हर बिगड़े ढाँचे को बना देंगे। यदि ये स्वार्थ लोलुप हुए तो बने ढाँचे को भी जर्जर हो चकनाचूर होना पड़ेगा।
आज की दशा में जर्जरिक ढाँचों में पिस रहे मानवी जीवन को देखने पर यही लगता है कि घूम फिर कर आदमी वहीं बल्कि उससे भी बदतर हालत में आ पहुँचा है जहाँ से उसने अपनी यात्रा शुरू की थी। अब उसे पुनः आवश्यकता पड़ गई है कि नई व्यवस्था का सृजन हो। परस्पर के सम्बन्ध नए सिरे से विकसित हो अर्थात् समाज नीति की नयी स्मृति बने। विनियम प्रणाली ऐसी हो जो हर किसी को सामान्य जरूरतें पूरी कर सके। मानवी चेतना के अवरोध बहिरंग जीवन को परिष्कृत करने वाली एक ऐसी प्रक्रिया विकसित हो अन्धविश्वास जिसके निकट न फटके।
इस आ पड़ी जरूरत को कौन पूरा करेगा? कहाँ है ये सब विशेषताएँ? इसके लिए क्रान्ति के उस नए आयाम को ढूंढ़ना पड़ेगा जो विगत की भूलों से मुक्त हो जिसमें व्यक्ति के मनोसामाजिक नवसृजन की अपूर्व क्षमता हो। क्रान्ति का वही नया आयाम विचार क्रान्ति है। इस नए आयाम द्वार सम्पन्न हो रही महाक्रान्ति ने अपना केन्द्र बनाया है, व्यक्ति को, उसकी परिधि है समाज। व्यक्ति की अन्तरशक्तियों को उजागर करे, समाज की प्रत्येक प्रणाली को नया रूप देने के लिए कटिबद्ध हो यह। विश्व के समस्त मानव समुदाय के क्षितिज पर क्रियाशील प्रथम अहिंसक महाक्रान्ति होगी हिंसा,विद्वेष मानवीय दुर्बलताओं को जो उखाड़ फेंकने के लिए तत्पर हो उस प्रक्रिया में इनका स्थान कहाँ?
इतने पर भी इसकी शक्ति ने समूचे विश्व को चकित कर रखा है। विचारो का जबरदस्त तूफान क्या कुछ नहीं कर रहा इन दिनों 1917 की बोल्शेविक क्रान्ति गायब हिटलर का उत्थान और पतन दोनों समाप्त। हेनीर ट्रमैन रोनाल्ड रीगन तक चलने वाला शीत युद्ध पिघल कर बह गया। अटलाँटिक सन्धि का रक्षातन्त्र रदद जर्मनी का बँटवारा समाप्त। धर्म और विज्ञान के कदम एक दूसरे से मिलने के लिए बढ़े। तनिक गहरे उतरे तो पता चलेगा कि विचार क्रान्ति की वीणा ने सद्भाव सहनशीलता सदाशयता की नयी रागनियां बजाई है। हो भी क्यों न? तलवार से हम मनुष्य को पराजित कर सकते है जीत नहीं सकते। मनुष्य को जीतना उसके हृदय पर अधिकार पाना है और हृदय पर अधिकार पाना है और हृदय की राह समर भूमि की लाल कीच नहीं सहिष्णुता का शीतल प्रदेश है उदारता का उज्ज्वल क्षीर समुद्र है।
विचारों की क्रान्ति यही राह प्रशस्त कर रही है टूटे दिलों को जोड़ रही है और पुराने घावों को सहला कर उन्हें भरती जा रही है। वारसा सन्धि संगठन उत्तर अटलांटिक संगठन जिन्होंने दो दुनिया ही बसा रखी थी इस तरह एक दूसरे को छाती से चिपटाने के लिए आतुर हो उठेंगे, किसने सोचा था? पश्चिम एशिया के घोर शत्रु ईरान और ईराक का भी निकट आने के लिए सोचने लगता, बर्लिन की दीवार का धराशायी होना यही नहीं इनकी मुद्राओं ओस्तमार्क दूशमार्क का एक हो जाना सिर्फ विचारों की शक्ति का चमत्कार है इसी ने रूप को वह बल दिया जिससे “पेरेस्त्रोइका” यानी पुनर्निर्माण और “ग्लासनोस्त” यानी खुलेपन रूपी दो सबल भुजदण्ड उठे और लौह परदे को एक ओर समेट दिया।
ये तो विचारों की महाक्रान्ति के कुछ बबूले है अभी तो ज्वार आना शेष है। जिसके लिए श्री अरविन्द ने अपने ग्रन्थ “हृामन साइकल” में कहा है मनुष्य के जीवन प्रवृत्ति जो सामुदायिक मन को वशीभूत कर ले तो उसका परिणाम निश्चित ही मानव जीवन के समस्त क्षेत्र में एक गम्भीर क्रान्ति होगा। वह उसे प्रारम्भ से ही एक नया रंग और वातावरण एक उच्चतर भावना एक महत्तर उद्देश्य प्रदान करेगी इस प्रारम्भ की परिणति होगी नया युग जो व्यवस्थाओं प्रणालियों नीतियों की दृष्टि से अद्भुत होने के साथ व्यक्तित्व संरचना की दृष्टि से भी अभूतपूर्व होगा। मनुष्य को देवत्व की अनुभूति कराए और स्वर्ग के नन्दन कानन को धरती पर उतारे बिना न रहेगा।