प्रकृति की छत्रछाया में वापसी

October 1990

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गाय का बच्चा जब तक धीमी गति से नियम कायदे के अनुरूप दूध पीता रहता है तब तक गाय उसे पेट भर पीने देती है और दुलार से चाटती रहती है। पर जब वह उद्दंडता पर उतरता है और थन काटकर उन्हें लहूलुहान करने लगता है तो माता के तेवर बदलते है और वह करारी लात जमाकर दूर धकेल देती है। एक पक्ष का व्यवहार बदलते ही दूसरा पक्ष अपने तौर तरीके देखते देखते बदल लेता है।

प्रकृति हमारी माता है। उसी के अजस्र अनुदानों के कारण शरीर के ढाँचे से लेकर मानसिक विकास तक की जीवन को समुन्नत बनाने वाली अनेकानेक उपलब्धियां हस्तगत हुई। निर्वाह से लेकर लोक सुविधा के साधनों का भण्डार उसी की खदान से हाथ लगा है। जिस पर गर्व किया और अहंकार जताया जाता है वह समस्त साधन सामग्री प्रकृति का अनुदान भर है। इसे सीमित मात्रा में लिया और भले मानस की तरह सदुपयोग में लाया जाय तो सामान्यक्रम ठीक तरह चलता रहता है। मनुष्य को भी कुछ कभी नहीं रहती और प्रकृति संतुलन भी बिगड़ता नहीं। अदृश्य जगत में विक्षोभ की उत्पन्न नहीं होता। पर जब अतिवादी उद्दंडता अपनाई जाती है और एक सोने का अंडा देने वाली मुर्गी का पेट चीर कर देखते देखते स्वर्ण भंडार हथिया लेने की ललक उठती है तो उसका पेट चीरा जाता है और वह भी गँवा बैठा जाता है। जो सहज सरलतापूर्वक मिलता चला जाता था। यही अनौचित्य इन दिनों प्रकृति के साथ मनुष्य द्वारा अपनाया जा रहा है।

द्रुतगामी वाहनों और कारखानों के लिए तेल कोयला जैसी खनिज ऊर्जा का दोहन असाधारण गति से हो रहा है। फलतः वायुमण्डल में प्रदूषण तो भरता ही है साथ ही वह संचित भंडार भी चुकता चला जाता है। जो भूगर्भ में चिर संचय के रूप में जमा था। इस व्यतिक्रम से भूकम्पों एवं अन्यान्य प्रकृति प्रकोपों का सिलसिला बढ़ा है और वह स्थिति समीप आती जा रही है कि इस शताब्दी के भीतर वह संचय समाप्त हो जाएगा और कारखानों, दूतवाहनों के समक्ष ऊर्जा के अभाव में कबाड़खाने मात्र बन जाने की विभीषिका सामने आ खड़ी होगी।

मदिराजन्य उन्माद प्रसिद्ध है। उसकी अति मात्रा लेने पर मनुष्य नालियों में मुँह रगड़ता अनर्गल वचन बोलता ओर बावलों जैसी हरकतें करता है। दूसरा नशा सफलताजन्य अहंकार का है। जो उसे पचा नहीं पाते वे उद्दंडता का अनाचार अपनाते हैं। शरीर में बलिष्ठता आने पर गुण्डागर्दी सूझती है। पैसा बढ़ने पर दुर्व्यसनों की भीड़ दौड़ पड़ती है। अहं बढ़ने पर लोग दबाने ठगने की बात सोचते है। प्रकृति की परतों को असाधारण रूप से उधेड़ने में यत्किंचित् सफलता मिल जाने पर भी यही हो रहा है। विज्ञान को अणुबम रासायनिक बम बनाने की सूझी। विश्व विजय के सपने देखने वालों की पूरी चाण्डाल चौकड़ी जम गई। सर्वसाधारण भी अनुकरण में पीछे कैसे रहता। उसने अपना रहन सहन आहार विहार ऐसा अपनाया जिसे एक प्रकार से मुँह चिढ़ाना ही कहा जा सकता है।

एयर कंडीशन्ड कमरों में रहने वाले तात्कालिक मौज तो उठाते है पर शरीर की प्रतिरोधक शक्ति बुरी तरह गँवा बैठते है और आये दिन जुकाम जैसी बीमारियों के शिकार बने रहते है। पकवान मिष्ठान्न माँस व्यंजन जैसे स्वादों से स्वादिष्टता तो मिली पर पेट का कचूमर निकल गया और तज्जनित रक्त विकारों से अनेकानेक बीमारियों की झड़ी लग गई। यह चटोरेपन की प्रतिक्रिया है। धन लिप्सा ने कमाई के ऐसे तरीके ढूंढ़े निकाले जिनसे ढेरों सम्पदा कुछ ही समय में जमा कर लेने की ललकने ऐसा अनाचारों का ढेर लगा दिया जिनमें प्रयोक्ता को तो मनमाना लाभ हुआ पर अन्य असंख्यों को उस कुचक्र में पिसकर कंकाल भर रह जाना पड़ा। विनोद मनोरंजन के नाम पर कामुकता छद्म आक्रमण और शोषण के दृश्य देखने को मिले। फलतः आँखों को रस जरूर आया पर चिन्तन और चरित्र में निकृष्टता का दौर बढ़ता चला गया। सोचा गया कि नियन्ता की प्रकृति की कोई व्यवस्था तो है नहीं फिर संकीर्ण स्वार्थ की पूर्ति के लिए कुछ भी कर गुजरने में क्या हर्ज है। इसी ढीठता के अंतर्गत पेड़ बुरी तरह कटे और प्राणियों को घासपात की तरह उदरस्थ कर जाने की प्रथा पड़ी। कृत्रिम खाद कीटनाशक, कृत्रिम प्रजनन आदि से किसी को तात्कालिक लाभ भले ही मिले पर इनके दूरगामी परिणाम हानिकारक ही हो सकते है। होते हुए देखे भी जा रहे है।

प्रकृति के साथ बलात्कार अभी तथाकथित वैज्ञानिकों मूर्धन्यों को अपने कौशल की ध्वजा फहराने का निमित्त कारण भले ही प्रतीत होता है पर तत्वदृष्टि से देखने पर यही प्रतीत होगा कि स्वल्प सफलता के आधार पर उद्धत हुआ मनुष्य नशेबाजों की तरह ऐसा कुछ कर रहा है तो उसके लिए ही नहीं समूचे समुदाय के लिए घातक सिद्ध होगा?

आकाश में उपग्रहों का कबाड़ जमता जा रहा है। वायु में प्रदूषण भर गया है। जल शुद्धता गँवा रहे है। भूमि रेगिस्तान बनती जा रही है। दूसरों के साथ अनाचार बरतने का अभ्यासी अपनों के साथ भी वह दुष्टता बरतने में कोई अन्तर कर नहीं पा रहा है। फलतः शालीनता को भारी क्षति पहुंच रही हैं इस प्रकार के अनेकों कारण मिलते जाने पर समस्याओं और कठिनाइयों के अम्बार लगते जा रहे है।

यह अतिवादी उद्दंडतर प्रकृति एक सीमा तक ही सहन कर सकती है। अतिवादी व्यवहार किसी को भी क्षुभित कर सकता है प्रकृति को भी। समझदारी यदि वापस न लौटे तो फिर कान उमेठने और चपत जड़ने का काम दयालु माता को ही करना पड़ता है।

यह अनुभव कराने वाले अनेकों घटनाक्रम सामने आ रहे है जो बताते है कि कही कोई बड़ी भूल हो रही है। अवाँछनीयता की प्रतिक्रिया ही कई बार इतनी कठोर हो जाती है कि राह बदलने के लिए बाधित करती है। डायबिटीज, ब्लडप्रेशर आदि के रोगी अपनी खुराक पर नियंत्रण करने के लिए मन मार कर बाधित होते है असंयमी साधारण स्थिति में तो किसी के रोके नहीं रुकते पर जब उसकी प्रतिक्रिया प्राणघातक रोग खड़े कर देती है तो आपरेशन का कष्ट सहने से लेकर पैसा पानी की तरह बहाने के लिए बाधित होना पड़ता है। इसे मजबूरी भी कह सकते है प्रकृति की प्रताड़ना भी और नियन्ता की कठोरतापूर्वक शिक्षा देने की पद्धति भी।

मनुष्य में इतनी समझदारी अभी बाकी है कि वह एक सीमा तक ही उच्छृंखलता बरतता है। जब उसे संकट की भयंकरता सामने प्रत्यक्ष दीख पड़ती है तब वह सम्हलता और चाल बदलते भी देखा जाता हे। इसे समझदारी भी कह सकते है और विवशता भी। मस्ती में दौड़ने वालों के मार्ग में जब कोई बड़ा खड्डा आ जाता है तब वे बचने की बात सोचता है। सर्प सिंह का आभास मिलते ही अतिउत्साही भी वापस लौट पड़ते है। समय आ गया कि पिछली शताब्दी में प्रकृति के साथ जो अतिवादी अनाचार बरता गया है उसके परिणामों को समझा जाय और नवयुग की प्रभात किरणें आते जाते उस रवैये को बदल दिया जाय तो नींद की मीठी खुमारी में उचित और मनभावन की लगता था।

ड़ड़ड़ड़़ ईश्वरीय अनुशासन है। उसी की प्रकृति का नियंत्रण और सन्तुलन भी कहा जा सकता है। अब इसी सुधार परिष्कार का दौर चलेगा। शालीनता की रीति नीति अपनाये जाने का परिवर्तन एकाकी देखने वालों द्वारा महान परिवर्तन जैसा कहा जाएगा और अध्यात्म की भाषा में उसे “सतयुग की वापसी” नाम दिया जायेगा। इसकी उपयुक्त बेला अब आ पहुँची ही देखी जा रही हैं

अगले ही दिनों बछड़ा लात खाने के बाद सही रीति से थन चूसते का प्रयत्न करेगा। आहार में शाकाहार की ही प्रधानता होगी। लोग भूमि का भी सदुपयोग सीखेंगे। हरीतिमा उगायेंगे। शाकाहार पर निर्भर हरने में ही भलाई अनुभव करेंगे। बच्चों से लदे घरों में घुसे और कृत्रिम प्रकाश के बीच जीने के अभ्यासी नये निर्णय करेंगे कि गाँव के वातावरण में सूर्य और पवन का आश्रय लेकर स्वस्थ जीवन क्यों न जिया जाए? अगली शताब्दी शहरों से गांवों की ओर वापस लौटने की है। अधिकाँश का मानस यही चाहेगा और ऐसी ही योजनाएँ बनायेगा। गाँ बढ़कर कस्बे हो चुके होंगे। उपजाऊ भूमि नये सिरे से खोज निकालने पर इतनी गुँजाइश निकल आयेगी कि मनुष्य, पशु और पेड़ साथ-साथ सही अनुपात में जीवित रह कर एक दूसरे को संतुलित पोषण प्रदान करते रहें।

शहरों का विकास अभी तो सुरसा के मुँह की तरह फैलता जा रहा है। पर वह विस्तार अगली सदी में इस रूप में रहेगा नहीं। वे खंडहर होते जायेंगे। जिस प्रकार गाँवों का विकास नये ढंग से नये स्तर पर होने जा रहा है, उसी प्रकार शहर भी जन निवास के लिए किन्हीं उपयोगी प्रवृत्तियों के लिए सीमित प्रयोगशालाएँ, अनुसंधान-शोध संस्थान बनकर रह जायेंगे। विश्व विद्यालय-कालेजों के संस्थान बड़ी इमारतों का उलट-पुलट कर बनाये जायेंगे। पर लोग निवास के लिए ग्रामीण क्षेत्रों का ही चयन करेंगे। आखिर लौटना तो प्रकृति की समीपता की दिशा में ही है।

खाली समय में दिमाग पर चढ़ने वाली खुराफात ही कामुकता है। उसे उत्तेजना अश्लील साहित्य, संगीत कला से ही मिलता है। जब नर-नारी मिल कर सृजन प्रयोजनों में लगेंगे सगे भाइयों की तरह रहेंगे और मनोरंजन के लिए उच्च आधार उपलब्ध होने लगेंगे तो कामुकता एक हेय और उपेक्षणीय प्रवृत्ति भर रह जायेगी। ऐसी दशा में नर नारियों का स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा। समय भी पर्याप्त होगा। बच्चे सीमित होंगे और उन्हें समर्थ सुसंस्कारी बनाने के लिए आधार भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध रहेंगे। प्रकृति प्रेरणा का अवगाहन करने की प्रवृत्ति जैसे ही बढ़ेगी, वैसे ही जनसंख्या का विस्फोट जा आज एक अति भयानक संकट बनकर सामने खड़ा है, सहज, सरल और सीमित होता चला जायेगा।

प्रतिभाएँ धनोपार्जन और दर्प प्रदर्शन की निस्सारता समझेंगी भी और वे उन प्रयासों में लगेंगी जिनके माध्यम से लोक मानस के परिष्कार की अनेकानेक विधाओं का उत्पादन और अभिवर्धन होता रहेगा। प्रबुद्ध लोग मनीषी बनने में अपनी उच्चस्तरीय उन्नति हुई अनुभव करेंगे। नये युग के मनुष्य को नये ढाँचे में ढालने के लिए जिस प्रकार के साहित्य की आवश्यकता है, आज उसका अभाव भले ही दीखता हो पर वह अगले दिनों पर्याप्त मात्रा में मिलने लगेगा और उसका स्तर क्रमशः अधिकाधिक दार्शनिकता और यथार्थवादिता का पुट लिये हुए होगा। मनोरंजन के भी ऐसे साधन निकल आयेंगे जो लोकरंजन और लोक मंगल की उभयपक्षीय आवश्यकता पूरी करते चलें।

प्रकृति की शरण में वापस लौटने का उद्घोष जब जन-जन के मन मन में प्रवेश करेगा तो प्रकृति पर आधिपत्य जमाने की वर्तमान उद्दंडता को पलायन करते ही बन पड़ेगा। संतों सज्जनों जैसा सादगी एवं शालीनता का जीवन कैसे जिया जाए, इसकी शिक्षा और प्रेरणा महाकाल जन-जन के मन जन में ठूंसता चला जायेगा।


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