हमारे आत्म स्वरूप (Kahani)

October 1990

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ईसा अपनी शिष्य मंडली समेत प्रधान प्रयास पर जा रहे थे। सन्ध्या को उन्हें एक स्थान पर विराम लेना पड़ा। भोजन की आवश्यकता सामने आई। प्रबन्ध कुछ था नहीं।

ईसा ने कहा “तुम लोगों के पास जो कुछ है उसे इकट्ठा कर लो और मिल बाँट कर खाओ”। ऐसा ही किया गया। सब के सामग्री इकट्ठी करने पर मात्र पाँच रोटी इकट्ठी हुईं। मंडली बड़ी थी। पर भोजन सामग्री को एक जगह जमा कर के जब मिल जुलकर खाया गया तो सभी का पेट भर गया।

इसे कहते हैं सम्मिलित शक्ति का चमत्कार।

कितना सही अध्ययन है एक व्यक्ति की मनःस्थिति का एवं तदनुरूप उसके समाधान का? जबतक बुद्धि सक्रिय हो, तर्क श्रद्धा-समर्पण में आड़े आता हो तब तक समाधान किस स्तर का दिया जाना चाहिए, इसे वे भली भाँति समझते थे। प्रतीकपूजा, मूर्तिपूजा, गुरुवरण पर भाँति भाँति के विचार रखने वाले परिजनों के लिए उनका इसी स्तर का मार्गदर्शन रहा करता था।

प्रत्येक पत्र स्वयं में एक पाठ्य सामग्री होता था गूढ़ विवेचना एवं व्यावहारिक तर्क सम्मत मार्गदर्शन से युक्त भी, यह लिखने वाले उस मनीषी की ही विशेषता थी। कभी यह आग्रह नहीं होता था कि सामने वाला उनकी बात को माने ही। वे अपना विनम्र निवेदन प्रस्तुत कर देते, आत्मीयता भरा अनुरोध भी तथा लिखते कि जो लिखा, वह आपको ठीक लगे तो ही ग्रहण करें।

यज्ञ की व्याख्या एक तार्किक जिज्ञासु को लिखते हुए उनने स्पष्ट - “यज्ञ मनुष्य का प्रधान कर्त्तव्य है। धर्म का प्रमुख आधार है। गीता के अनुसार यज्ञ कई प्रकार के हैं। उनमें से एक अग्निहोत्र भी है। कोई अग्निहोत्र को ही यज्ञ मानते हैं परंतु ज्ञान यज्ञ आदि भी उतने ही पवित्र हैं जितना अग्निहोत्र। रुचि भिन्नता के अनुसार सभी उत्तम हैं, सभी फलदायक हैं। हो सकता है कि महर्षि दयानन्द ने मूर्तिपूजा के पाखण्ड से लोगों का चित हटाने के लिए हवन की पद्धति के कर्मकाण्ड पर विशेष जोर दिया हो। वर्तमान समय में हमारे देश के दो प्रधान रोग हैं-(1) अज्ञान (2) दरिद्रता इन दो को हटाने के कार्य में जो क्रिया सहायक न होती हो, वह सामयिक युगधर्म के अनुसार शायद यज्ञ न ठहराई जा सकेगी। ज्ञानयज्ञ विचारक्राँति शायद उसका सही स्वरूप होगा।”

उपरोक्त पत्र उनने एक अक्टूबर 1943 को एक साधक को लिखा था। तब उनकी आयु थी 32 वर्ष, वे आर्य समाज (चौक) मथुरा के प्रधान थे एवं संभवतः पूछे गए प्रश्न का उत्तर इससे समुचित सटीक व अधिक कोई और नहीं हो सकता था।

समय-समय पर नर मानवों को उनकी प्रसुप्त सुसंस्कारिता जगाने के निमित्त वे लिखते “आप साधारण परिस्थिति में गुजर जरूर कर रहे हैं, पर वस्तुतः अत्यन्त उच्च कोटि की आत्मा हैं। रोटी खाने और दिन गुजारने के लिए आप पैदा नहीं हुए। विशेष प्रयोजन ले कर ही अवतरित हुए हैं। उस प्रयोजन को पूरा करने में ही लग पड़ना चाहिए। आत्मबल द्वारा ही साहसपूर्ण कदम उठाये जाते है। आप अब उसी की तैयारी करें और हमारे सच्चे उत्तराधिकारी की तरह हमारा स्थान सँभालें।

स्वयं अपने संबंध में बार-बार परिजनों के लिखने पर वे उन्हें प्रत्युत्तर देते “भविष्य वाणियाँ (जो आपने लिखीं) हमारे अपने ही संबंध में हैं। लोग पहचान नहीं पा रहे हैं समय निकल जाने पर पहचानेंगे और पछतायेंगे। आपको इस संदर्भ में क्या करना होगा से हम मिलने पर बतायेंगे।” (18-3-70)। इसी प्रकार एक साधक को 11-9-1963 को लिखते हुए उनने स्पष्ट किया- “रामकृष्ण परमहंस का चित्र पूजा के स्थान पर रखने में कोई हर्ज नहीं। अब से तीसरा पूर्व शरीर हमारी ही आत्मा ने रामकृष्ण परमहंस का धारण किया है। वही आत्मा आपके वर्तमान गुरुरूप में विद्यमान है।

हमारे आत्म स्वरूप,

पत्र मिला। कुशल समाचार मिला अशुभ स्वप्नों का डडडड कर दिया हैं। अभी चिन्ता न करें। सभी कृपया परमहंस का पत्र पूजा के सम्मान पर रखने में हर्ज नहीं। उसने तीसरा पूर्व शरीर हमने ही आत्मा के ग्रहण ड़ड़ड़ड़ का धारण उस है। नहीं आत्मा आपने वर्तमान मुझ रूप में विद्यमान है।

प्रस्तुत है इस पत्र की फोटो प्रतिलिपि।

इन सब विस्तृत जानकारियों के बाद भी क्या किसी के मन में कोई संदेह होना चाहिए? एक युग पुरुष के संबंध में उस उच्च मार्गदर्शक सत्ता के विषय में जो उन्हें उँगली पकड़ कर चलना सिखाती रही व अपने साथ नाव में बिठा कर उन्हें जन्म जन्मान्तरों के लिए निहाल कर गयी।


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