कार्य के प्रति समर्पित (Kahani)

October 1990

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कार्ल मार्क्स लन्दन में निर्वासित जीवन जी रहे थे। फ्रांस और जर्मनी की सरकारों ने उन्हें क्रान्तिकारी घोषित कर देश निकाला दे दिया था। यहीं पर रहकर उन्होंने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ “दास कैपिटल” की रचना की थी। लन्दन प्रवास के दौरान मार्कस्् को घोर आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस बीच उन्हें गरीबी और भूख के कारण दो बच्चों से भी हाथ धोना पड़ा था।

समय पर किराया न चुकाने के कारण कई बार मकान मालिकों ने घरों से भी निकाल दिया था। रोटी के लिए बिस्तर भी बेचने पड़े किन्तु श्रमिकों के उद्धार का संकल्प उन्होंने उठाया था। उसे भूखे रहकर आजीवन निभाया। उसमें राई रत्ती भर शिथिलता नहीं आने दी।

उन्हीं दिनों जर्मनी में विस्मार्क का प्रभुत्व था। वे जर्मनी के प्रधान मंत्री भी थे। पूँजीवादी राष्ट्रों में जर्मनी अग्रणी था। विस्मार्क को डर था कि यदि मार्क्स् के विचार समाज में फैल गये तो मजदूरों को काबू में रख पाना सम्भव न होगा। पूँजीवाद की नींव जर्मनी से सदा के लिए उखड़ जायगी। विस्मार्क को एक उक्ति सूझी। क्यों न मार्क्स को प्रलोभन देकर खरीद लिया जाय और उसके बढ़ते प्रभाव को समाप्त कर दिया जाय। मार्क्स के पुराने साथी बूचर को लालच देकर अपने पक्ष में कर लिया। उसके हाथों गुप्त पत्र भिजवाया। जिसमें कार्ल मार्क्स को सरकारी समाचार पत्र का सम्पादक बनाने की बात कही थी। इस पत्र में पारिश्रमिक की मोटी रकम अदा करने की बात कही गई थी तथा सुरक्षा का पूरा आश्वासन भी दिया गया था। पत्र के अन्त में कहा गया था कि सरकार के समर्थन से राष्ट्र की सेवा और अच्छी तरह हो सकती है।

किन्तु मार्क्स खरीदे नहीं जा सके। विस्मार्क अपने कुटिल इरादों में असफल रहा। मार्क्स श्रेष्ठ सिद्धान्त और पवित्र लक्ष्य तथा जन कल्याण की भावना लेकर कार्य के प्रति समर्पित थे। इसलिए अभाव भरे जीवन से भी उन्हें कोई शिकायत नहीं थी। कार्ल न झुके न बिके। यह प्रलोभनों पर आदर्शों की महान विजय थी जो मार्क्स को सदा के लिए महान बना गई।


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