न जनता से गाफिल न मालिक से

October 1990

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छत्रपति को अपने राज्य के लोगों की सुख-सुविधाओं का बड़ा ध्यान रहता था। हर समय वे कष्ट पीड़ितों और समस्याग्रस्तों की सेवा-सहायता के लिए तत्पर रहते। समूचे शासन क्षेत्र में उन्होंने घोषणा करा दी थी कि कोई भी दुःखी व्यक्ति उनके पास पहुँच कर अपनी तकलीफें कह सकता था। वे उसकी परेशानियों को हल करने में कोई कोर-कसर न उठा रखेंगे।

स्वयं के साथ अपने राज कर्मचारियों को भी ऐसी ही हिदायतें दे रखी थी कि वे प्रतिपल लोगों की कष्ट-कठिनाइयाँ सुनने के लिए तत्पर रहें। राज्य के सभी किलेदारों से उन्होंने कह रखा था कि ऐसी कोई शिकायत न आए जिसमें कि प्रजाजन की तकलीफ न दूर की गई हो। जन सेवा से मुख मोड़ने वालों को सख्त से सख्त सजा देने की व्यवस्था भी की गई थी और अब तक किसी भी कर्मचारी को दण्डित करने का अवसर नहीं मिला था।

एक दिन की बात है-बृहस्पतिवार की रात को कोई व्यक्ति पुरन्दर के किलेदार के पास रात को बारह बजे पहुँचा। वह किसी काम से आया था। सम्भवतः उसे कोई ऐसा काम रहा होगा, जिसके कारण उसे वहाँ गये रात आना पड़ा। किलेदार के पास सम्बन्धित कर्मचारी आगन्तुक की सूचना लेकर पहुँचा तो उसने कहला दिया कि -”यदि बहुत ही आवश्यक काम हो तो वे बाहर आएँ, नहीं तो वे सुबह आकर शिकायत सुन लेंगे।”

सुनकर आगन्तुक को किलेदार पर गुस्सा आया कि उसके रात को चलकर आने को कोई महत्व ही नहीं दिया गया। उसने घर जाने के बजाय क्षत्रपति के पास जाकर उक्त किलेदार की शिकायत करने का निश्चय किया।

सुबह जब वह क्षत्रपति के पास पहुँचा और अपनी शिकायत दोहराई तथा किलेदार की घटना भी कह दी। सुनकर उन्हें आश्चर्य तथा आक्रोश दोनों की एक साथ अनुभूति हुई। आश्चर्य इसलिए कि उक्त किलेदार बड़ा ही कर्तव्यनिष्ठ तथा ईमानदार था। उसी के द्वारा यह गलती होने के कारण दुःख हुआ और क्रोध भी आया। उन्होंने फौरन उस किलेदार को बुलाया और जवाब-तलब किया कि-”आप कहीं लोगों का काम करने से मना तो नहीं कर देते?

ईश्वर साक्षी है- किलेदार ने कहा- ”मैंने कभी किसी को काम के लिए मना नहीं किया।”

“पर गुरुवार की रात तो तुमने इस आदमी को मना किया था।” क्षत्रपति ने फरियादी की ओर इशारा कर कहा तथा पूछा -क्या यह झूठ बोलता है? “नहीं महाराज! यह सच कहता है? पर उस गुरुवार की रात में किसी अन्य काम में व्यस्त था, फिर भी पुछवा लिया था कि यदि अत्यावश्यक हो तो मैं बाहर आऊँ। फिर से सीधे, आपके पास चले आये। शिवाजी ने पूछा- “आप कहाँ व्यस्त थे? ऐसी क्या मजबूरी थी?”

“महाराज! उसे न पूछिए मेरा, राज खुल जायेगा।” क्षत्रपति ने फरमाया- “गुप्त वे बातें रखी जाती हैं, जो अनुचित होती हैं। गुप्त रखना भय का द्योतक है। फिर जन-सेवक को तो काई बात गुप्त नहीं रखनी चाहिए। आप अपनी उस दिन की व्यस्तता का कारण बताइए।”

किलेदार ने बड़े संकोच के साथ उत्तर दिया। “मैं सप्ताह भर कर्तव्य पालन करने में लगा रहता हूँ। मात्र गुरुवार के दिन मुझे रात्रि में फुरसत मिलती है। उस दिन मैं वस्त्रों की सफाई करता हूँ। अपने एक मात्र वस्त्रों के जोड़े को गुरुवार की रात धोकर सुखाता हूँ तथा सुबह पहनता हूँ। इस बात को मैं लोगों से छिपाता हूँ ताकि कोई अपने एक मात्र हिन्दू राज्य का मजाक न उड़ाए और मैं सप्ताह भर नियमित उपासना भी नहीं कर पाता सो गुरुवार को उपवास और रात्रि में ध्यान करता हूँ। यही वह कारण है।” किलेदार ने जमीन में आंखें सुनकर क्षत्रपति की आँखों से आँसू झड़ पड़े। वह भावुक हो बोले-”धन्य हो तुम जो न जनता से गाफिल हो और न उस मालिकों के मालिक से। वेतन भी इससे अधिक नहीं लेते कि कपड़ों का दूसरा जोड़ा बन सके।” उन्होंने सिंहासन से उठकर किलेदार को छाती से लगा लिया। आगे से सभी को सप्ताह में एक दिन अवकाश की व्यवस्था बनादी। अपने कर्तृत्व से अनेकों में प्रेरणा भरने वाले यह किलेदार थे मुरार जी बाजी प्रभु। जिनका शौर्य भरा सादगीयुक्त प्रेरक जीवन मराठा इतिहास में सोने के अक्षरों में टैंका है।


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