चाहिए! अग्रगामी बलिदानी

October 1990

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“ बलि! महाबलि!! भारत माता बलिदान चाहती है-मस्तिष्क वाले युवकों की पशुओं की नहीं।” सन्नाटे को चीरकर उनकी वाणी उपस्थित शिष्य समुदाय के दिलों को बेधती हुई वायुमण्डल में गूँज उठी। वह कह रहे थे क्या तुम्हें इस देश की धरती से प्यार है? सदियों के अत्याचार के फलस्वरूप पीड़ा, दुःख, हीनता, दारिद्रय की जो आह भारत गगन में गूँज रही हैं क्या इनसे तुम्हारा अन्तःकरण विकल हुआ है? यदि हाँ तो आओ अपने समस्त जीवन की बलि दो- उन दीन हीनों उत्पीड़ितों के लिए जिनके लिए भगवान स्वयं युग-युग में दौड़े चले आते है। आओ! आगे बढ़ो आज के इस महायज्ञ को पूरा करने। पीछे मुड़कर मत देखो। मत परवाह करो यदि सब कुछ छूट रहा है।

सुनकर जैसे सभी को साँप सूँघ गया। सारी सुसुर-पुसुर शान्त हो उठी। श्मशान का सन्नाटा छा गया। कौन बोले? क्या बोले? बोलने का काम भी क्या रहा? आज तो करने की वेला है, करने की, कौन आग आए?

आज प्रातः से ही वे अपने गुरु के आह्वान पर इकट्ठे हुए थे। उनमें से प्रत्येक जानता था कि उन्हें कुछ करना है देश के लिए समाज के लिए। गुरु के प्रति प्रत्येक की श्रद्धा थी, उनकी वाणी सभी के विश्वासों का प्रतीक थी। किन्तु इस क्षण श्रद्धा चरमरा उठी विश्वास डावांडोल हो उठा। बात ही कुछ ऐसी थी प्राणों का मोह आ पड़ा था। उठा नहीं जाता। हाथ और पाँव जैसे हथकड़ी बेड़ियों से जकड़ गए हों। कण्ठ सूख रहा था, जीभ तालू से चिपक गई।

गुरु वीर देश में थे मानो साक्षात महारुद्र मानव का जामा पहन कर आ खड़े हुए हों। उनकी धधकती आँखें ज्वालाएँ फेंक रही थी। एक तेज दृष्टि सभी पर घूमी। यहीं हैं वे जो शास्त्रों के मर्म को जानने का दावा करते हैं। न जाने इन्होंने कितनी बार जीवन की अनित्यता संसार की नश्वरता का प्रवचन दिए होंगे लच्छेदार बातें वक्ता होने का अभिमान प्रवचन! प्रवचन!! प्रवचन!!! धिक्कार है ऐसे प्रवचनों पर। वह फिर मुखरित हो उठे। हाथ में थमी शमशीर हिल उठी “धिक्कार, सौ बार धिक्कार है तुम पर। तुमने सारा जीवन सिर्फ बेकार की बातें करना सीखा है। व्यर्थ बकवाद करने वालों तुम लोग क्या हो? संघर्ष की घड़ी में पलायनवादी बने खड़े हो।” उनकी वाणी में दर्द छलछला उठा। “तो क्या कोई भी नहीं? कोई भी नहीं जो भारत की मिट्टी माथे पर लगा कर कहने का साहस जुटा सके-मेरा सर्वस्व माँ! तुझ पर न्योछावर है। “ नजरें एक बार फिर घूमी। अबकी बार एक तरुण भीड़ में से कदम बढ़ाता हुआ निकला। उनके सामने आ मस्तक झुकाकर बोला “शीश हाजिर है गुरुदेव।”

“ठीक से सोच ले फिर दुःखी मत होना। “ “दुःखी! दुःख तो इस बात पर है कि इतनी देर सोचता रहा। ऐसी विषम घड़ी में भी सोच विचार करना आगा पीछा ताकना धिक्कार है मुझ पर।” उसकी वाणी में कठोरता थी पर दिल बलिदान के लिए तत्पर युवक के प्रति प्यार से उमंग रहा था। उसकी कलाई पकड़ वह पास में बनी झोंपड़ी में गए। अगले ही पल सबने उन्हें वापस लौटते देखा। हाथों में रक्त रंजित कृपाण थी। वाणी फिर गूँजी कोई और....। एक! दो!! तीन!!! चार!!!! नवयुवक एक क्षण में सन्न खड़ी उस भीड़ में से निकल कर उनके सामने आ खड़े हुए। प्रत्येक के साथ वह झोंपड़ी में गए एवं रक्त से भीगी कृपाण लेकर लौटे।

कुछ ही क्षणों बाद आश्चर्य! महाआश्चर्य!! यह क्या? गुरुदेव तो साक्षात् उन पाँचों के साथ आ रहे हैं। तो क्या यह मरे नहीं थे? तब क्या वह मरण नहीं था। फिर? अब तो सभी कह उठे “हम भी हाजिर हैं? हमें भी बलिदान करना है।”

एक हँसी गूँज उठी। वह मुस्कराते हुए कह रहे थे “अवसर चूकने पर पछताना ही शेष रह जाता है।” अवसर पहचानने वाले ये दयाराम, धर्मदास, मोहकमचन्द, हिम्मत राय तथा सहाबचन्द मेरे प्यारे हैं इतिहास इन्हें पंच प्यारों के नाम से जानेगा। गुरु के प्यारे कह इनकी चरण रज को लोक श्रद्धा से माथे पर धारण करेगा। यदि सीख सको तो सीखो। अपनी आलसी, कर्महीन, कटुभाषी, ईर्ष्यापरायण, डरपोक तथा विवादप्रिय प्रकृति को छोड़कर निष्ठा परायण बनो। गुरु के वचनों का यथावत् पालन करना सीखो मेरे बच्चे। सिक्खों के दशम गुरु गोविंद सिंह की वाणी करुणा और वात्सल्य से विगलित हो उठी। अब अवसर को खोना मत। कह कर वह मौन हो गए।

अवसर पुनः आ खड़ा हुआ है। पंच प्यारों की तलाश जारी है। नरमेध यज्ञ होना है। देखना यह है कि कौन आगे आता है?


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