संवेदना बनाती है लेखनी को प्राणवान

October 1990

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‘ऐसा कौन सका जादू आपके पास है, जिसके बल पर प्रत्येक रचना जीवन्त सृष्टि हो जाती है। पात्र मुखर हो समाज का दर्द बयान करते हैं और पाठक एक स्थाई कसक अनुभव किये बिना नहीं रहता।” शब्दों के माध्यम से कहने वाले की स्वानुभूति टपक रही थी। वह अपनी पत्नी राधारानी के साथ उनके बगल में चल रहा था। रात्रि के ग्यारह बज जाने के कारण सड़क सूनी हो गई थी। कभी-कभार उन्हीं जैसा कोई इक्का दुक्का दिखाई पड़ जाता। बातों के कारण रास्ते की बोरियत दूर भाग रही थी। तीनों नपे तुले कदमों से अपने गन्तव्य की ओर बढ़ रहे थे।

“यह ठीक कह रहे हैं भाई साहब। पत्नी ने पति के कथन का समर्थन करते हुए अपनी दृष्टि ऊपर उठाई। कृष्ण पक्ष की द्वादशी होने के कारण चन्द्रमा अभी नहीं उगा था। आसमान की काली चादर में असंख्यों सितारे टंक चुके थे। “देवदास का देवा हो या पाथेर दावी के डॉ. साहब और भाती अथवा शुभदा-परिणिता के पात्र हों संसार में मनुष्य के कर्तव्य को समझाए बिना नहीं रहते। इन भावों की गहरी अनुभूतियाँ मस्तिष्क के विचारों द्वारा किया गया जीवन का विश्लेषण हम जैसे अल्प शिक्षितों को जीवन की राह पर अँगुली पकड़ कर चलाए बिना नहीं रहता।”

बातें करते-करते वे लोग मण्डतिया रोड के एक मोड़ पर आ पहुँचे थे। पहुँच कर उन्होंने देखा तीन-चार लोग एक वृक्ष के नीचे जोर-जोर से बातें कर रहे हैं। उन व्यक्तियों की बातें इन लोगों के कानों तक भी पहुँची सुनकर से ठिठक। साथी भी रुक गये। तभी वृक्ष के नीचे खड़े व्यक्तियों में से किसी एक ने कहा महोदय! जरा सुनिए तो।

तीनों उधर चल दिए। जाकर देखा लाल कपड़े में लिपटा एक नवजात शिशु पड़ा है। कहना न होगा पथभ्रष्ट यौनाचार के ही परिणाम स्वरूप कोई युवती अपने मातृत्व का गला घोट कर यह दुष्कृत्य कर गई थी। उनने सद्योजात उस शिशु को देखा तो उसके शरीर पर चींटियां रेंग रही थी और उनके काटने से उसकी देह में स्थान-स्थान पर लाल रंग चढ़ गया था। ऐसी स्थिति में वह घर कैसे जाते। उपस्थित अन्य लोग कोई झंझट उठाने को तैयार न थे। किन्तु उनका विचार बना कि बालक को अस्पताल भिजवा दिया जाय ताकि संसार में हाल ही आया यह अतिथि योंही न विदा हो जाए।

कुछ सोचते हुए अपने मित्र की ओर मुखातिब होते हुए बोले नरेन्द्र! पास के किसी कमान में जाकर अस्पताल बालों को फोन कर दो। खुद बच्चे को गोद में उठा कर उस के लिए आहार की व्यवस्था जुटाने लगे। दूध तो बच्चे ने नहीं पिया, शहद अवश्य उसके गले के नीचे उतरा फिर वे नरेन्द्र के पास पहुँच गए जो पास ही एक दुकान पर से अस्पताल वालों को फोन कर रहा था।

अस्पताल वालों ने इस प्रकार मिले अवाँछित बालक को लेने से इनकार कर दिया। नियमानुसार पहले इसकी सूचना पुलिस को देनी पड़ती। अतः पुलिस को फोन किया गया। पुलिस स्टेशन से तत्काल कोई आने को तैयार न हुआ। नरेन्द्र ने जब उनका हवाला दिया तो वहाँ से आदमी भेजने की व्यवस्था की गईं।

कुछ देर बाद दो सिपाही घटना स्थल पर आए। वह और उनके साथी तब तक वहीं खड़े रहे। बच्चे को पुलिस के सुपूर्द करने तथा उसकी व्यवस्था करने में रात के दो बज गए पर उनके चेहरे पर न विषाद आया न सुस्ती। वे उसी प्रकार बच्चे की उपयुक्त व्यवस्था में लग रहे। कलकत्ता जैसे शहर में इस प्रकार की घटनाएँ उस समय भी कोई खास महत्व नहीं रखती थी-पर उनके समक्ष कहीं कोई तड़प-तड़प कर प्राण छोड़ जाए उनसे सहन कैसे होता?

सारे काम से निवृत्त हो जाने के बाद अंगड़ाई लेकर एक गहरी साँस ली। मित्र और उसकी पत्ी की ओर देखते हुए कहा- ‘‘अब पता चला किस जादू के बल पर मेरी रचनाएँ जीवन और प्राण प्राप्त करती हैं।” मित्र और उनको पत्ी मौन थे। वह उन्हें समझाते हुए बोले-”किसी भी रचनाकार की कृतियाँ उसकी कलम से नहीं, हृदय से ही अनुप्राणित होती हैं। रचनाएँ हर क्यों जीवन के प्रत्येक कार्य में कारुणिक संवेदनशीलता का जादू प्राण फूँक देता है। कर्ता, कार्य और परिवेश अभिभूत हुए बिना नहीं रहते।” एक नजर घड़ी पर डालते हुए कहा “आओ चलें।” तीनों एक साथ चल पड़े। कारुणिक संवेदनशीलता के यह जादूगर थे शरत चन्द्र चटर्जी।


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