साधु वे, जो समय को धन्य कर दें

April 1990

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उसका मन ध्यान की निमग्नता से उबरा ही था कि सामने नदी में स्नान करने वालों की आवाजें कानों में पड़ीं। उनमें से कोई कह रहा था नहीं रहे अब साधु, समाप्त हो गई साधुता।

इन वाक्यों ने अन्तर भावों में डूब उतरा रहे उसके मन को खींच कर बाहर कर दिया। वह उठा, उलट कर द्वार खोल कर बाहर आया। देखा दो नवयुवक बात करते चले जा रहे है। पहले ही बात पर दूसरा बोला क्या कहते हो दादा इतने लाखों साधु जो हैं। इन्हें साधु कहेंगे? पहले ही वाणी रोष पूर्ण थी। फिर क्या कहेंगे?

काहिलों का समुदाय, बहुसंख्यक ऐसे हैं। जो इक्के दुक्के तपस्वी साधक हैं, वे भी करुणाविहीन पूँजीपतियों का तरह साधना की पूँजी बटोरने में जुटें हैं। इन्हें कुछ भी कहो भैया पर इनमें से कोई साधु नहीं हैं। साधु भला बिलखती मानवता को देख कर निष्क्रिय कैसे रह सकता है। गीता में भगवान भी कहते हैं “न निरग्निचाक्रिय” आग छोड़ने से कर्मठता को त्यागने से भला कोई साधु होता है। युवक कुछ क्षण रुका बराबर चल रहे अपने भाई की ओर देखा। फिर बोला एक साधु थे आचार्य शंकर जिन्होंने समूचे भारत में साँस्कृतिक क्रान्ति कर दी। लाखों मस्तिष्कों में उलट फेर कर दी। हजारों हजार की जीवन शैली बदल दी। हिमालय से सागर तक अपनी प्राण सरिता के माध्यम से बहा दिया विद्या का प्रवाह। कहीं रुकें नहीं कहीं टिके नहीं। नंगे पाँव भागते रहे। घूम-घूम कर बाँटते रहे जीवन बोध, और उन्हीं के अनुयायी कहने वाले ये हृदय के उमड़ रहे भावों ने गला रुद्ध कर दिया। एक ने दूसरे की ओर देखा।

गला साफ करके बोलना शुरू किया। ये छत्र चंवर धारण करते हैं। सिंहासन पर बैठते हैं। स्वयं को धर्म की जागीर के मालिक होने की मुनादी करते हैं। आज आचार्य शंकर की जन्मभूमि की छाती उनकी याद में फट रही हैं। हिमालय उनके बिछोह में अपने को गला रहा है। सागर गरज-गरज कर हरेक से पूछ रहा है, कहाँ खो दिया तूने उस साधु को, कहाँ गंवा डाली साधुता। पर कोई तो नहीं दिख रहा जो गर्व से कह सके कि हम साधु हैं सही अर्थों में आचार्य शंकर के अनुयायी, जो दे सकें कुचली, रौंदी, मसली जा रही मानवता को नया जीवन। हम जैसे अनेकों का कल्याण कर सकें।

ठीक कहते हो दादा-दूसरे ने कहा।

वह भी इन्हीं के पीछे दबे पैरों जा रहा था। सुनाई पड़ रही थी इनकी आवाजें। झकझोर रही थीं उसको। वह भी तो अपने आप को साधु कहता था। कावेरी तट पर बने इस उटज में योगाभ्यास और शास्त्रचर्चा की निमग्नता में उसे वर्षों बीत गये। पर वेश के अतिरिक्त क्या उसमें साधुता की पहचान बाकी है?

प्रश्न अंतर्मन को खरोंचने लगा कुरेदने लगा। उसके पास स्वस्थ शरीर है प्रखर प्रतिभा है निर्मल प्रज्ञा है। किन्तु किस की दी हुई? ईश्वर की दी हुई मन के किसी कोने से जवाब उभरा।

फिर क्या अधिकार है उसे इन सबको काले धन के रूप में जमा रखने का। प्रश्न उसे मथते रहे। आज कावेरी का शीतल प्रवाह भी उसे शीतलता न दे सका। ध्यान की गम्भीरता मन की हलचलों को विराम न दे सकी। पोथियों के फड़फड़ाते पन्ने उसे एक-एक करके चिढ़ाते रहे। समूचा समाज उससे साधुता माँग रहा है। इसका जन-जन याद दिला रहा प्रव्रज्या के उस व्रत को जिसके तहत उसे घूम-घूम कर ज्ञान देना हैं। सामाजिक साँस्कृतिक जीवन का कायाकल्प करना है।

शाम को वह उटज में न बैठ सके। जाग्रत साधुता पुनः याद आयी संकल्प भला बैठने कैसे देता? निकले उन युवकों का पता लगाने हेतु। पता चला कि वे पास के ही गाँव के हैं। रात्रि होते ही पहुँच गए उनके द्वार पर अन्दर से आवाज आई- कौन?

एक साधु! स्वर शान्त और दृढ़ था।

साधु! आश्चर्य चकित हों दोनों भाई निकल पड़े। हाँ साधु जिसे अपनी साधुता वापस मिल गई हैं। जिसको अपना संकल्प पुनः याद आ गया है। जिसको मालूम हो गया कि उसका स्थान राष्ट्र के प्रत्येक घर का द्वार है। जिसका कार्य-वैचारिक क्रान्ति का प्रवर्तन है।

उसके स्वरों की गम्भीरता, चेहरे का तेजोवलय बता रहा था कि वह सिर्फ वेश से ही साधु नहीं हैं वरन् अन्तर चेतना भी साधुता से अनुप्राणित है युवकों ने प्रणाम किया कुछ संकोच के स्वर में बोले आज्ञा दें।

तुम दोनों को अपना प्रातःकाल का वार्तालाप याद है। माथे पर बल डालते हुए दोनों ने कहा-हाँ तो मैंने पहला कदम बढ़ाया हैं, दूसरा कदम तुम्हें बढ़ाना हैं। बढ़ा सकोगे?

अवश्य स्वरों में वज्रवत संकल्प गूँज रहा था। क्या करना होगा, लोकजीवन को गढ़ने सँवारने हेतु स्वयं के जीवन का अर्पण।

युवकों ने स्वीकार किया। रात्रि भर कार्य की रूप रेख बनती रही। अगले दिनों से प्रारम्भ हो गया छोटे-छोटे मण्डलों को गठित करके लोक जीवन की धरती पर भाव गंगा को उतार लाने की तपश्चर्या। अनेकों भगीरथों ने कमर कस ली भावों की जाह्नवी उतर कर रहेगी। न जाने कितनी अनुसुइया व्रतशील हो गई कि सद्विचारों की पयस्विनी को प्रवाहित करके दम लेना है। यह सब था साधु में साधुता के जागरण का परिणाम।

परिवर्तन का चक्र घूमा पहले धीरे फिर तेज और तेज यहाँ तक कि इतना तेज कि सब कुछ बदला हुआ नजर आने लगा। इस चक्र की धुरी थे वह साधु जिनकी तप शक्ति ने इसे गति दी। और उनके पहले सहयोगी थे हरिहर राय और बुक्काराय नाम के युवक। जिनको उन्होंने प्राण शक्ति दे दक्षिण के उस अंचल में संचालित क्रान्ति का नायक बनाया। महान कार्य में जुटने वाले को विधाता पुरस्कृत किये बिना नहीं रहता। ये ही दोनों अपने गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर विजय नगर साम्राज्य के सम्राट हुए। जहाँ की उन्नत सामाजिक स्थिति का विवेचन करते हुए उस समय भारत आए एक फारसी यात्री ने लिखा है “सम्पूर्ण विश्व में यहाँ जैसी सामाजिक स्थिति न देखी है और न सुनी है। चोरी, व्यभिचार, अत्याचार जहाँ जनकोश में न मिलकर शब्दकोश में मिलते हैं। सचमुच यह धरती का स्वर्ग हैं और इस स्वर्ग के अवतरणकर्त्ता उन युवकों के गुरु थे

स्वामी विधारण्य। जिनकी जाग्रत साधुता ने समूचे दक्षिण अंचल की मृतप्राय सामाजिक साँस्कृतिक काया में प्राण संचार किया। उसे स्वस्थ और सुपुष्ट बनाया।

सन् १३७७ में श्रृंगेरी आकर विद्या विस्तार के कार्य को गति देते रहे। सद्विचारों की फसल लहलहाए इस हेतु अनेकों ग्रन्थों का सृजन भी किया। उनकी प्रत्येक श्वास, रक्त का प्रत्येक बिन्दु शरीर का प्रत्येक कोश अन्तिम क्षण तक समाज को निखारता सँवारता रहा।

आज का वर्तमान कल के सुनहरे भविष्य सृजन हेतु साधु माँग रहा हैं। वेश हो या न हो पर अन्तर में साधुता अवश्य हों।


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