विशेष लेख माला-१५ - महिलाओं की महानता उभरे

April 1990

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इक्कीसवीं सदी को महिला शताब्दी घोषित किया गया है। इसे विश्व की आधी जनता का स्वाधीनता आन्दोलन भी कह सकते हैं और नव जीवन स्तर का पुनरुत्थान भी। नारी के रूप में जीवनयापन कर रही आधी जनसंख्या को भविष्य में भी गई गुजरी स्थिति में पड़ा रहने नहीं दिया जा सकता, अन्यथा अर्धांग पक्षाघात पीड़ित की तरह अपंग स्थिति में रहने वाला समुदाय स्वयं तो पिछड़ी, परावलम्बी स्थिति में रहेगा ही। समर्थ पक्ष के ऊपर भी गले का पत्थर बनकर लटकेगा और प्रगति का मार्ग अवरुद्ध ही बना रहेगा। एक पहिये की गाड़ी किस प्रकार आगे बढ़ सकेगी? भगवान ने नर और नारी को एक सिक्के के दो पहलू के रूप में बनाया है। दोनों की समता तो अभीष्ट है ही साथ ही दोनों को समान रूप से शिक्षित, समर्थ, स्वावलम्बी, कुशल एवं प्रगतिशील भी होना चाहिए। यह हो भी रहा है। संसार भर में एक नयी लहर चल पड़ी है जो हर किसी को मानवीयता से वंचित न रहने के लिए दैवी प्रेरणा की तरह उकसा रही है। तदनुसार वातावरण बना रही है और ऐसे साधन जुटा रह है ताकि भविष्य में दोनों परस्पर पूरक इकाइयों में से कोई भी किसी की तुलना में किसी भी दृष्टि से दीन, दुर्बल होकर न हरे।

सहायकों की आवश्यकता सदा रही है और अब भी है, किन्तु इसके लिए उत्साह और साहस उठने वाले का ही रहे। बच्चा स्वयं उठने और चलने का प्रयत्न न करे तो अभिभावक ही जन्म भर उसे गोदी के लिए कहाँ फिरेंगे? स्वावलम्बन भी भाग्योदय का एक समर्थ पक्ष है।

लम्बे समय से नारी की अगणित क्षमताओं और विशेषताओं का शोषण नर द्वारा होता रहा है। समय आ गया कि अब उस अनाचार का पश्चाताप, प्रायश्चित करने के लिए नये सिरे से नये प्रयत्न किये जायँ और जो अपहरण हुआ है उसकी पूर्ति करने के लिए समय रहते भावनापूर्ण प्रयास किये जायँ अन्यथा अब तक हुई क्षति आगे और भी बढ़ेगी और ऐसा संकट खड़ा करेगी जिससे दोनों पक्षों को अपार हानि सहनी पड़े।

पुरुषों में से प्रत्येक के मन में वह न्याय निष्ठा और उदारता जागनी चाहिए जो गहरे घावों पर मरहम लगाने के रूप में सदाशयता का परिचय दे सके। अनीति को आगे भी चलते रहने के लिए आग्रह करना और उठने की संभावनाओं को निरस्त करना जले पर नमक छिड़कने जैसा पाशविक अनाचार माना जायेगा।

नर और नारी की अनिवार्य समता का वातावरण बनाने के लिए आवश्यक है कि कन्या और पुत्र में, बेटी और वधू में अन्तर करने की कुप्रथा का अब पूरी तरह अन्त कर दिया जाय। दोनों की प्रगति एवं सुविधा का हर प्रसंग में समान व्यवहार, समान सम्मान का प्रचलन अपनाया जाय। शिक्षा, स्वावलम्बन, दक्षता, श्रेय सम्मान दोनों को ही समान रूप से मिलने चाहिए। परिवार का हर सदस्य इसी नीति को अपनाये और भेदभाव की अनीति जहाँ पर भी जितने अंशों में चल रही हो उसे समाप्त करने में अनुदारता न दिखाये।

शिक्षा मनुष्य की आरम्भिक आवश्यकता है। इसे लड़कों की तरह लड़कियों को भी उपलब्ध कराने में कहीं किसी प्रकार का दुहरा मापदण्ड न अपनाया जाय। हर व्यक्ति को आर्थिक दृष्टि से स्वावलम्बी होना चाहिए ताकि कोई किसी पर भार बनकर न रहे, वरन् एक दूसरे की सहायता करते हुए इस महँगाई भरे और आर्थिक संकट भरे, बढ़ती आवश्यकताओं वाले समय में एक दूसरे की सहायता करते हुए समूचे परिवार में खुशहाली ला सकें। देखा गया है कि विधवाएँ एवं परित्यक्ताएँ कई छोटे बच्चे गोदी में होने की स्थिति में ससुराल अथवा पितृगृह से कारगर सहायता न मिलने पर कितनी दुर्गति भुगतती हैं। हर भुक्तभोगी यह जानता है। ऐसी स्थिति में किसी भी लड़की को न पड़ना पड़े। इसी कमजोरी के कारण नारी को हर प्रकार से दबाव भी सहने पड़ रहे हैं क्योंकि वह दूसरों की सहायता कर सकना तो दूर, अपने खर्च के लिए भी दूसरों पर अवलम्बित रहती है। कुटीर उद्योग से लेकर अध्यापन तक का कोई न कोई सारेत उसके हाथ में विवाह से पहले ही थमा देना चाहिए ताकि उसे आर्थिक दृष्टि से सर्वथा पराश्रित न रहना पड़े। पैतृक संपत्ति, परिवार की सम्पन्नता अथवा पति की कमाई जैसे माध्यमों को आड़े समय में उपयोग कर सकने का सुयोग मिलता ही रहेगा, इसका अब कोई विश्वास रह नहीं गया है। शिक्षा-स्वावलम्बन के अतिरिक्त स्वास्थ्य, दक्षता कुशलता, अनुभव आदि के साधन भी नारी के लिए जुटने ही चाहिए। परिस्थितियों के अनुसार हर किसी को यह प्रयत्न करना चाहिए कि कोई महिला परावलम्बन के लिए सर्वथा विवश होकर अशिक्षित अनगढ़ स्तर की रहे, ऐसी विपत्ति में न फँसने पाए। इस के लिए जो उपाय संभव हों वे करने चाहिए।

एक दूसरा वज्रपात है- बाल विवाह। इस उतावली में लड़कियों को सुयोग्य बनाने का अवसर ही नहीं मिलता। मनोबल एवं कौशल विकसित होने की तो गुंजाइश ही नहीं रहती। कच्ची आयु में काम-क्रीड़ा का दबाव सहने से उसका शरीर और मन तो निचुड़ ही जाता है साथ ही बच्चों का पालन कर सकने की दक्षता न रहने पर वे भी अनगढ़ स्तर के रह जाते है। प्रसव पीड़ा में अधिकांश महिलाओं को मौत के मुँह में जाना पड़ता है। भयंकर आपरेशन की व्यथा सहने की तरह वह आपत्ति यदि जल्दी-जल्दी उन पर टूटे तो जबानी में बुढ़ापा जा धमकने, अकाल मृत्यु का ग्रास बनने, आये दिन दुर्बल और बीमार रहने की व्यथा तो उसी कारण उसके गले बँध ही जाती है। इसलिए बाल विवाह लड़कियों का आधा मरण समझकर उस विपत्ति से उन्हें बचाया ही जाना चाहिए। पढ़ने और बढ़ने के लिए उन्हें भी उपयुक्त सुविधा और समय मिलना चाहिए। बाल विवाह इस संभावना में सबसे अधिक बाधक है।

तीसरी विपत्ति है धूमधाम वाली शादियाँ लड़के वालों की ओर से दहेज और लड़की वालों की ओर से जेवर की माँग। यह दोनों ही प्रचलन सर्वथा मूर्खता और अनीतिपूर्ण हैं। इस निमित्त होने वाले खर्च में दोनों परिवार खोखले हो जाते हैं। दहेज को लेकर आये दिन जो झंझट होते हैं, हत्या, आत्महत्या जैसी दुर्घटनाएँ होती हैं। इसलिए शादी को नितान्त सादगी के साथ घरेलू उत्सव की तरह सम्पन्न किया जाना चाहिए। दहेज या जेवर के स्थान पर उस रकम को एकत्रित करके कन्या के नाम फिक्स डिपॉजिट के रूप में जमा कर दिया जाय तो वह निधि बनी रहे और सुदूर भविष्य में किसी आड़े वक्त पर काम आये।

अगले दिनों नारी प्रगति की भारी संभावनाएँ सामने आ रही हैं। उन्हें प्रत्येक महत्वपूर्ण प्रसंग में आरक्षण मिलने जा रहा है। राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक क्षेत्र में उनकी प्रगति के लिए सरकारी और गैर सरकारी अनेकानेक उपहार दौड़ते हुए चले आ रहे हैं। सरकार बड़े अनुदान भी दिला रही है। नये अवसर भी अनेकों बन रहे हैं। इन से लाभ उठाने के लिए आवश्यक है कि नारी सुयोग्य और समर्थ हो अन्यथा बिचौलिए ही उस सुविधा को हड़प लेंगे अनेक कुरीतियाँ, मूढमान्यताएँ प्रतिगामिताएँ विषाणुओं की तरह दुर्बल शरीर पर सरलतापूर्वक चढ़ दौड़ती हैं। इन त्रासों से भी उन्हें बचाने के लिए विचारशीलों द्वारा गुण-दोष का अन्तर कर सकने के लिए उन्हें सुयोग्य बनाया जाना चाहिए। इसके लिए उपयुक्त अवसर मिले, यह तभी संभव है जब विवाह की अवधि अधिकाधिक बढ़ाई जाय। भारत के केरल प्रान्त की महिलाओं ने तो लड़ झगड़ कर महिलाओं की विवाह आयु न्यूनतम २५ और लड़के की अट्ठाइस करवा ली है। इसी का सत्परिणाम हे कि वहाँ नारियाँ प्रगति के हर पक्ष का अवसर प्राप्त कर रही हैं और परिवारों को समर्थ बना रही हैं। शिक्षा का स्तर और प्रगति भी वहाँ देश के अन्य भागों की तुलना में कहीं अधिक हैं। ऐसे ही प्रयत्न सर्वत्र होने चाहिए।

विवाह के उपरान्त वर कन्या को कई वर्ष का अवसर ऐसा मिलना चाहिए कि वे एक दूसरे की योग्यता-समर्थता बढ़ाने में योगदान दे सकें। इसके लिए आवश्यक है कि विवाह के बाद कम से कम पाँच वर्ष तक बच्चे उत्पन्न करने के संकट न लादें। यह अवधि ससुराल वालों की ओर से समर्थता प्रदान करने के लिए नियत रहनी चाहिए। अभिभावकों ने इतने दिन उसकी योग्यता वृद्धि में योगदान दिया। विवाह के बाद कम से कम पाँच वर्ष तो ससुराल वालों को भी ऐसा ही अनुदान देना चाहिए। उस अवधि में बच्चे पैदा करने की विपत्ति से नहीं लाद देना चाहिए। बढ़ती हुई जनसंख्या इन दिनों पृथ्वी पर हर प्रकार से एक दुर्घटना की तरह संकटपूर्ण बन रही है। यह तभी टल सकती है जब प्रजनन यदि आवश्यक हो तभी किया जाय और यह अवसर किसी नारी पर तीस वर्ष आयु के लगभग होने पर ही आना चाहिए। देश की विश्व की सुव्यवस्था के लिए भी इस प्रकार का प्रचलन अपनाया ही जाना चाहिए।

यह सामान्य प्रचलन की विधा हुई। नारी को अवगति से उबार कर प्रगति के पथ पर घसीट ले चलने के लिए महिला वर्ग में से भी कुशल नेतृत्व उभरना चाहिए। देश को स्वतंत्र कराने में नारी नेतृत्व की अग्रणी भूमिका रही है। कितनों ने कितने संकट झेले हैं और कितने विकट संघर्ष किये हैं, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए नारी वर्ग के भावनाशील पक्ष को आगे बढ़ना चाहिए और ऐसा कुछ करना चाहिए जिससे उनकी योग्यता घर की चहार दीवारी में रसोईदारिन धोबिन, मेहतरानी, धाय नौकरानी की तरह ही गुजारा न देनी पड़े, वरन् कम से कम अपने समुदाय ऊँचा उठाने, विवाह बंधनों से छुड़ाने के लिए वे लग सकें।

इसके लिए वे महिलायें अधिक उपयुक्त हो सकती हैं जो छोटे बच्चों की जिम्मेदारी से मुक्त हो चुकीं। रिटायर्ड स्तर की अध्यापिकाएँ तथा दूसरी कार्यरत महिलाएँ घर का भार दूसरों के कन्धे पर खिसका कर यह कर सकती हैं कि छोटी बड़ी टोलियाँ बनाकर महिला संपर्क आन्दोलन के लिए निकल पड़ें और उनमें कितनी ही सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन हेतु बढ़-चढ़ कर काम करें। उनके लिये विशाल कार्य क्षेत्र खाली पड़ा है।

ऐसा भी हो सकता है कि कुछ युवतियाँ विवाह के प्रलोभन से बचकर अपनी बहुमूल्य प्रतिभा नारी उत्कर्ष के लिए लगा दें। प्रजनन के कुचक्र में फंस कर उन्हें जितना त्रास सहना पड़ता हैं, उसका बीसवाँ भाग भी यदि साहस जुटा कर नारी उत्कृष्टता के लिए अपने को समर्पित कर सकें तो वह महामानवों वीर, बलिदानियों जैसा साहस होगा। घरेलू जिम्मेदारियों से बची रहने की स्थिति में वे विस्तृत क्षेत्र में बड़ी मात्रा में नारी कल्याण का काम कर सकती हैं। ऐसे साहस जिनने अपनाये ऐसी शूरवीर महिलाओं का किसी अंश में पुराण और बड़े अंश में अपने समय का इतिहास भरा पड़ा है। विवाह को अनिवार्य मानकर नहीं चलना चाहिए। साथी के बिना जिन्दगी कैसे कटेगी? सुरक्षा कैसे मिलेगी। इस प्रकार के आडम्बरों से आदर्शवादी महिलाएँ सहज ही बच निकल सकती हैं। सहेलियों की सघन मित्र भी मिलजुल कर इस आवश्यकता को बहुत अंश में पूरी कर सकती हैं। एक और एक मिलकर ग्यारह बनते हैं के सिद्धांत मात्र नर नारी के समन्वय तक ही सीमित नहीं है। नारी नारी का सहयोग भी इसी तथ्य की भली प्रकार पुष्टि कर सकता है।

अगले दिनों नारी शताब्दी का नवनिर्माण संभव कर सकने में देश के जहाँ पुरुषों का उदार सहयोग अपेक्षित हैं, वहाँ यह भी आवश्यक है कि उस आंदोलन का नेतृत्व सँभालने के लिए मनस्वी महिलाएँ अग्रिम पंक्ति में आयें। आन्दोलन को पुरुषों का सहयोग तो चाहिए ही कि वे नारी को समय, साधन, सहयोग और प्रोत्साहन प्रदान करें। पर साथ ही यह उससे भी अधिक आवश्यक है कि नेतृत्व समर्थ महिलायें भी सँभालें। अपने देश की प्रतिगामिता नर और नारी को मिल कर काम करने की सुविधा नहीं देती। इसलिए आवश्यक है कि महिलाओं की अपनी छोटी बड़ी मंडलियाँ बनें और घर घर में प्रवेश करें। संगठन खड़ा करें। वातावरण बनायें और ऐसे अनेकानेक कार्यक्रमों को चलायें जिससे युग संगठनों के अति महत्वपूर्ण नेतृत्व का श्रेय उन्हें ही हस्तान्तरित हो सके।

पुरुष चाहे तो घरेलू काम काज में महिलाओं को दिन-रात खटाते-रखने की अपेक्षा ऐसा प्रबंध करे कि परिवार के सभी नर नारी साथ मिल जुलकर घर के काम सीमित समय में समेट लिया करें। गरम भोजन खाने की सनक यदि सिर पर से उतारी जा सके तो थोड़ी देर पहले बने भोजन से काम चलाने में कोई हर्ज नहीं है। पुरुष भी इस कार्य में किसी हद तक हाथ बँटा सकते हैं। इस प्रकार गृह कार्यों को मिलजुल कर समेट लेने पर घर की महिलाओं को इतना समय उपलब्ध कराया जा सकता है कि वे अपनी और अपने संपर्क की महिलाओं को प्रशिक्षित, सुयोग्य बनाने के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए पर्याप्त समय मिल सके।

महिला सदी का बहुत बड़ा शुभारंभ शान्तिकुञ्ज से ही गतिशील होना है। इसलिए उसके सदस्यों और सदस्याओं को अपनी अपनी स्थिति के अनुसार यह योजना बनानी चाहिए कि महिलाओं की स्थानीय क्रिया प्रक्रिया किस प्रकार चले और उनकी बड़े क्षेत्र को सँभाल सकने वाली युग नेतृत्व की व्यवस्था किस आधार पर बने? इस संदर्भ में मात्र पुरुषों का ही सहयोग पर्याप्त नहीं। समर्थ महिलाओं को भी लालच, दबाव, और संकीर्णता की परिधि से ऊँचा उठकर घर से बाहर निकलने की बड़ी योजना भी बनानी चाहिए ताकि उनकी गणना महान प्रयोजन पूरा करने सकने वाली महान महिलाओं में हो सके।


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