विशेष लेख माला-४ - हम बिछुड़ने के लिये नहीं जुड़े है

April 1990

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ध्वंस के सरंजाम तो माचिस की एक तीली आग की छोटी चिनगारी भी कर सकती हैं। पर निर्माण एक झोंपड़े का करना हो तो भी ढेरों साधन सामग्री और श्रमशीलों की कुशल तत्परता चाहिए। बिगड़ बहुत चुका। मनुष्य खोखला, उन्मादी और इस स्तर तक अनाचारी हो गया है कि उसे नर पशु तक नहीं कहा जा सकता मरघट में प्रेत-पिशाच कोलाहल करते रहते हैं। डरना और डराना ही उनका प्रधान कार्य होता है। मनुष्यों में से एक बड़ी संख्या आज ऐसे ही लोगों की दीख पड़ती हैं।

भ्रष्ट चिन्तन ही दुष्ट आचरणों का निमित्त कारण है। उस आधार पर विनिर्मित वातावरण ही उन अनेकानेक विभीषिकाओं, विपत्तियों, कठिनाइयों और अभावों अवरोधों का प्रमुख कारण है। इस कठिनाई को साधनों के सहारे दूर नहीं किया जा सकता। अनुदानों से अभाव दूर नहीं हो सकता। कहने भर से नासमझों को उलटी चाल अपनाने से कहाँ विरत किया जा सकता हैं। इसके लिये ऐसे प्रतिभावान व्यक्तित्व चाहिए जिनने अपने को ऊँचा उठा लिया हो और दूसरों को पतन पराभव से उबारने लायक बल कौशल उपलब्ध कर लिया हो। ऐसे ही लोग देवमानव कहलाते है और उनके कार्य क्षेत्र में उतरने पर वे साधन विनिर्मित होते चले जाते हैं, जिन्हें अभ्युदय के नाम से जाना जा सके।

इन दिनों पतन और पराभव की विपन्नता को बढ़ाने में निरत हेयजनों की बहुलता, प्रबलता होने का आकलन गलत नहीं हैं। फिर भी यह नहीं समझा जा सकता है कि मानवी गरिमा को उबारने सुरक्षित रख सकने वाले देवमानवों का सर्वथा अभाव हो गया है। वे हैं, रहे हैं और रहेंगे। अन्यथा यह धरती रसातल को चली जायेगी। भावी नवसृजन के लिए ऐसे ही उत्कृष्टता के पक्ष धर आदर्शवादियों की आवश्यकता पड़ेगी। उन्हीं के प्रयत्न-पुरुषार्थ से पुण्य परमार्थ से समय को बदला और वातावरण को श्रेष्ठता से युक्त बनाया जा सकेगा। उन्हीं को तलाशना, संगठित, सुगठित एवं सुशिक्षित किया जाना अपने समय की सबसे बड़ी आवश्यकता है। इस दिशा में अपने प्रयत्नों ने अपने ढंग का कीर्तिमान स्थापित किया है। युगशिल्पियों का एक बड़ा समुदाय मिशन की पत्रिकाओं के साथ सम्बद्ध करके इस स्तर का विनिर्मित किया है जो स्वयं उठ सकने की सफलता प्राप्त करने के उपरान्त दूसरों को सहारा देने उबारने, उभारने, में समर्थ हो सके। जिनके लिए गिरों को उठाने और उठों को उछालना एक स्वाभाविक विषय बन गया है। इन्हीं को नवयुग के अग्रदूत नवसृजन के कर्णधार भी कहा जाता रहा है।

पाँच लाख को पच्चीस लाख बनाने-इसी गुणन प्रक्रिया को निरन्तर जारी रखने और कार्तिक अमावस्या की रात्रि को सघन तमिस्रा से उबारकर जगमगाती दीपावली बनने की चर्चा होती और योजना बनती रहती है। नवसृजन के आधार, उपकरण औजार या साधन यही वह समुदाय हैं, जिसे शान्तिकुञ्ज के महागरुड़ ने अण्डे बच्चों की तरह अपने डैनों के नीचे छिपा रखा है। उनको समर्थ एवं परिपुष्ट बनाने के प्रक्रिया इसी तन्त्र के अंतर्गत चल रही है। कहना न होगा इस प्रयोजन के लिए नवयुग के अर्ध्वय ने अपने जीवन के अस्सी पुष्प सुनियोजित गुलदस्ते के रूप में समर्पित किए हैं और देव मानवों की एक ऐसी समर्थ मण्डली विनिर्मित की है जो नवयुग के अवतरण में ब्रह्ममुहूर्त की तरह अपना परिचय दे सकें, भोर का उद्घोष करने वाले कुक्कुटों की भूमिका निभा सकें। शान्तिकुञ्ज में इन दिनों यही सृजन कार्य होना है। उसके संपर्क में आए प्रभाव क्षेत्र में ऐसी ही बहुमुखी गतिविधियों का सूत्र संचालन होना है। हर वसन्तपर्व इसी की स्मृति ताजा कराता है। इस बार उसका वह नया स्वरूप निखरा है जिसे नया पौधा कहा जा सकता हैं। जहाँ से अब तक बन पड़े प्रयासों की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण निश्चय निर्धारण होने जा रहे हैं।

विगत बसन्त पर्व पर ऐसे ही परिजनों को सूक्ष्म संकेतों से आमंत्रित किया गया अथवा वे अपनी निजी उमंगों से विवश होकर उस आयोजन में सम्मिलित होने के लिए चल पड़े, इसी का संक्षिप्त विवरण इन पंक्तियों में यत्किंचित् प्रस्तुत किया जा रहा है।

जो नहीं आ सके उनका आवश्यक निजी परिश्रम एवं स्तर जानने के लिये एक पत्र भेजा गया है ताकि उस जानकारी के आधार पर यदि घनिष्ठता में कोई कमी रह गई हो तो पूरी हो सके। आदान-प्रदान का सिलसिला इस रूप में चल सके, जिसमें सबके लिए एक प्रकार से श्रेय साधना ही सन्निहित है।

प्रत्यक्ष पधारने या अपने व्यक्तित्व के स्तर को लिपिबद्ध व्यवस्थित भेजने वाले दोनों ही वर्गों की संख्या में वर्तमान उत्कृष्टता सम्पन्न लोगों की सज्जनता है जिस पर गर्व भी किया जाता है और नवसृजन के उज्ज्वल भविष्य का आधार स्तम्भ भी माना जा सकता हैं।

इन दोनों ही वर्गों के साथ लेखनी या वाणी के माध्यम से प्रयत्न या परोक्ष सम्बन्ध बने रहे हैं और उस आधार पर युगचेतना का प्रकाश अधिकाधिक विशिष्ट विस्तृत, सार्थक एवं सफल होता रहा है।

विगत वसन्त से कुलपति के एकान्त साधना में चले जाने, अन्तः चेतना के विशेष प्रयोजन के लिए नियोजित कर देने पर एक असमंजस यह खड़ा होता है कि इतने बड़े और इतने समर्थ समुदाय के साथ जो घनिष्ठता पनपती और प्रगति की प्रक्रिया चलती रही है उसमें विक्षेप, गतिरोध लगेगा, व्यवधान पड़ेगा। पारस्परिक जोड़ने वाला स्नेह, बन्धन टूट जाने पर वह उपक्रम कैसे बनेगा, जिससे पतंगे की तरह उज्ज्वल भविष्य के आकाश पर छाया और अपनी सक्रियता का परिचय देते रहा जा सके?

इस सम्बन्ध में सभी परिजनों को उपलब्ध माध्यमों से यह सूचित किया गया है कि कोई यह न समझे कि दीप बुझ गया और प्रगति का क्रम रुक गया। दृश्य शरीर रूपी गोबर की मशक चर्मचक्षुओं से दिखे या न दिखे, विशेष प्रयोजनों के लिये नियुक्त किया गया प्रहरी अगली शताब्दी तक पूरी जागरूकता के साथ अपनी जिम्मेदारी बहन करता रहेगा।

पक्षी सुदूर अन्तरिक्ष में इतनी दूर उड़ जाते हैं कि खुली आँखों से दीख नहीं पड़ते फिर भी वे अपने घोंसले का दुधमुँहे बच्चों का पूरा ध्यान रखते हैं। बच्चे भी समय पर उनके द्वारा खुराक मिलने की प्रतीक्षा करते रहते हैं। गाय अपने बछड़े सहित जंगल में चरने चली जाती है। संयोगवश कभी दोनों बिछुड़ भी जाते हैं, फिर भी एक दूसरे को ढूँढ़ने और पुकारने में कमी नहीं रहने देते। वर्तमान पत्रिका पाठकों का अपने परिवार का परिकर अगले दिनों बढ़ तो सकता है पर घटेगा नहीं। मिशन की पत्रिकाओं के रूप में प्रकाश चेतना हर महीने अपने पाठक परिजनों के यहाँ अप्रत्यक्ष रूप से जा पहुँचती है। हर दिन के एक लेख को एक प्रवचन समझा जाय तो यह मान्यता उचित है कि परिजनों और अभिभावकों के बीच दैनिक मिलन सत्संग संभव हैं। इसलिये परिजन एक महीने में ढाई रुपये का व्यक्तिगत अनुदान पत्रिका के चन्दे के रूप में प्रदान करते हैं इस प्रकार प्रत्यक्ष न सही परोक्ष मिलन एवं नियमित आदान प्रदान का क्रम चलता रहता हैं। इसी माध्यम से विचारों का ही नहीं, प्राणचेतना का शक्ति प्रत्यावर्तन भी बन पड़ता हैं।

अब इस संदर्भ में आगे भी यही प्रक्रिया चलेगी सभी परिजनों के परिचय, जन्मतिथि, फोटोग्राफ संग्रह कर लिये गए हैं। इस आधार पर शान्तिकुञ्ज से जन्मदिन के अवसर पर एक प्रेरणापूर्ण सन्देश एवं अनुदान पहुँचा करेगा। मिलन की आँशिक पूर्ति इस प्रकार हो जाया करेगी। शान्तिकुञ्ज परिवार में संचालक अपना सूक्ष्म शरीर-अदृश्य अस्तित्व बनाए रहेंगे। आने वाले रहने वाले अनुभव करेंगे कि उनसे अदृश्य किन्तु समर्थ प्राण प्रत्यावर्तन और मिलन आदान-प्रदान भी हो रहा है। इस प्रक्रिया का लाभ अनवरत रूप से जारी रहेगा।

युगसन्धि पुरश्चरण के अंतर्गत सभी साधकों को अपने-अपने यहाँ कुछ साधना करते रहने के लिए कहा गया है, वह तो चलेगी ही। साथ ही एक अनुबन्ध यह भी जोड़ा गया है यदि संभव हो तो वर्ष में कभी भी पाँच दिन के लिए शान्तिकुञ्ज आकर एक सत्र सम्पन्न कर लें और लगभग वही लाभ प्राप्त कर लें तो बैटरी को बिजली के साथ जुड़कर नये सिरे से चार्ज होने एवं धीमी पड़ी शक्ति को नये सिरे से फिर अर्जित करने के रूप में मिलता हैं।

कहने, सुनने, करने, कराने की प्रक्रिया चलती रहने के सम्बन्ध में इस वसंत पर्व पर उपस्थित परिजनों के ऊपर से उतरे आदेश के अनुसार यह कहा गया था कि “हममें से कोई किसी से अगले दिनों बिछुड़ न सके। जो प्रमाद और उपेक्षा बरतेगा उसे शान्तिकुञ्ज की संचालक शक्ति झकझोरेगी, उसके कान उमेठेगी और बाधित करती रहेगी। हर व्यक्ति सक्रिय होकर ही चैन से बैठ सकेगा”। कहा भले ही अलंकारिक भाषा में गया हो पर इसे एक सच्चाई मानकर चलना चाहिए कि ऐसे सशक्त सूत्र मजबूती के साथ परस्पर बाँधे गए हैं जो बिछुड़ने की स्थिति आने नहीं देंगे, भले ही हम लोगों में से किसी का दृश्यमान शरीर रहे या न रहे।


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