यह सुनिश्चित तथ्य है कि मनःस्थिति ही परिस्थितियों की जन्मदात्री है। मान्यताएँ और भावनाएँ ही व्यक्तित्व का गठन करती हैं और मनुष्य को उसी स्तर का बना देती हैं। विचार बीज और कार्य उसके द्वारा उत्पादित पौध। व्यक्ति का नीतिवान, समाजनिष्ठ, कर्तव्यपरायण, धर्मात्मा एवं परमार्थी बन सकना तभी संभव है, जब उसके अन्तःकरण में उत्कृष्ट आदर्शवादिता ने गहरी जड़े जमा ली हों। भ्रष्ट चिन्तन तो दुष्ट आचरणों को ही जन्म देगा और उस विषवृद्धि के समर्थ होने पर परिस्थितियाँ अनर्थकारी स्तर की ही बन कर रहेंगी।
इन दिनों विज्ञान और बुद्धिवाद की अभिवृद्धि ने सुविधा-साधनों के अम्बार खड़े कर दिये हैं। पूर्वजों की तुलना में भौतिक दृष्टि से हम कहीं सुविधा सम्पन्न हैं। सम्पदा की उपलब्धि को यदि प्रगति कहा जाय, तो मानना पड़ेगा कि पूर्वजों की तुलना में हम कहीं आगे हैं, पर वस्तुतः ऐसा है नहीं। जनसाधारण का शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह गड़बड़ा रहा है। दुर्बलता और रुग्णता दिन-दिन तूफानी गति से बढ़ती जा रही है। अस्पताल, डॉक्टर और औषधि आविष्कारों ने हमें स्वस्थ और समर्थ बनाने में कोई सहायता नहीं की हैं, कारण कि आहार-विहार में बढ़ा हुआ असंयम स्वस्थ जीवन के मूलभूत आधार को ही नष्ट किये दे रहा है। पैसा बढ़ा हैं, पर उसके साथ ही दुर्व्यसनों और प्रदर्शनों के निमित्त होने वाले अपव्यय की इतनी वृद्धि है कि हर कोई अपने को अभावग्रस्त अनुभव करता है। कामचोरी, हरामखोरी को प्रश्रय मिलते रहने पर किसी भी क्षेत्र में वास्तविक एवं अभीष्ट रहने पर किसी भी क्षेत्र में वास्तविक एवं अभीष्ट प्रगति को नहीं सकती। गुण, कर्म, स्वभाव में घुसे हुए दुर्गुण आये दिन ऐसे संकट खड़े करते रहेंगे, जिसका समाधान करने में भौतिक उपचार एवं अनुदान कुछ काम न आ सकें। बढ़ते हुए अविश्वास, असहयोग अनाचार के पीछे चरित्रभ्रष्टता ही मूल कारण है। क्रोध और अनाचार से अनाचार बढ़ता है। यह विपन्नता आज संसार के समूचे जलाशय पर जल कुम्भी-काई की तरह छायी दीखती है और जलाशय से मिलने वाले लाभों का अन्त हो रहा हैं। पथभ्रष्ट को किस प्रकार कँटीली झाड़ियों से संत्रस्त होना पड़ता है, इसे हममें से प्रत्येक को सर्वत्र घटित होते देखा जा सकता हैं।
प्रदूषण, विकिरण, पर्यावरण, अपराध, छल आदि के जो संकट व्यापक रूप से गहरा रहे हैं, उनकी परिणति की कल्पना और चिन्ताजनक हैं। बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए आवश्यक साधन जुटा सकना कठिन प्रतीत होता हैं। अवांछनीयता और वातावरण में संव्याप्त विपन्नता कैसे पनपी? इसका उत्तर वस्तुओं की कमी होने की बात कहने से नहीं मिल सकता। मानना यही पड़ेगा कि विचार क्षेत्र में बढ़ती हुई उद्दण्डता, आपाधापी का प्रदूषण ही उन समस्याओं के लिए उत्तरदायी है, जो अप्रसन्नता और अव्यवस्था का निमित्त कारण बनी हुई हैं।
अवशेष संक्षेप में यही निष्कर्ष निकलता है कि नीतिनिष्ठा और समाजनिष्ठा के आदर्शों की अवहेलना करने पर ही समूचा मनुष्य समुदाय उस विपत्ति में फँसा है, जिससे निकलना और उबरना असंभव नहीं तो कम से कम सहज तो प्रतीत नहीं होता है। आशा की किरण एक ही हैं-लोकमानस का परिष्कार, आदर्शों का परिपालन, विचारों का परिशोधन, चरित्र और प्रयासों में आदर्शों का सम्पुट लगाया जाना। उसके बिना प्रस्तुत असंख्यों समस्याओं में से एक का भी सीधा समाधान मिलना नहीं हैं।
इसी महान प्रयोजन की पूर्ति अध्यात्म तत्त्वज्ञान से होती हैं। भावनाओं और मान्यताओं का उदात्तीकरण इसी आधार पर संभव हैं। प्रस्तुत विश्व समस्याओं का निराकरण भी यही हैं। व्यक्तियों को भ्रान्तियों एवं अवांछनीयता से मुक्त करके ही उन्हें मौज से रहने, और रहने देने की स्थिति में आया जा सकता है। हँसती-हँसाती जिन्दगी मिल बाँट कर खाने की प्रवृत्ति, झपटने-हड़पने की अपेक्षा सेवा सहायता में रुचि लेने की रीति-रीति ही मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बना सकती है और उन सारी विपत्तियों से एक बारगी छुटकारा दिला सकती हैं जिनके कारण कि महाविनाश की आशंका पनप रही हैं।
उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रचलित भाषा में जिसे विचार क्रान्ति कहा जाता है और पुरातन सोच के अनुसार जन मानस का परिष्कार कहा जा सकता है, इस मर्यादा को अन्तःकरण ही गहराई तक पहुँचाने में मात्र अध्यात्म तत्त्वदर्शन ही समर्थ हो सकता हैं। इस प्रकार समर्थ एवं प्रखर अध्यात्म से ही यह आशा की जा सकती हैं कि व्यक्ति और समाज के सामने प्रस्तुत असंख्यों विपन्नताओं-विभीषिकाओं का समाधान वह कर सकेगा।
इसके अतिरिक्त वह शक्ति भी जीवन्त अध्यात्म में ही है जो सर्वतोमुखी समर्थता और प्रगतिशीलता से जन साधारण को लाभान्वित कर सके। अध्यात्म की चर्चा सिद्धियों के संबंध में भी होती रहती है और कहा जाता रहा है कि सतयुग की वापसी जैसा सुखद वातावरण यदि उससे विनिर्मित करना हो तो मनुष्य को समझना और समझाना पड़ेगा कि जिस प्रकार शरीरबल, धनबल, बुद्धिबल, कौशल बल आदि के सम्पादन कर प्रयत्न किया जा रहा है, उससे बढ़ कर आत्मबल का उपार्जन-अभिवर्धन होना चाहिए। उज्ज्वल भविष्य की संरचना इसी आधार पर हो सकेगी। इक्कीसवीं सदी में जिन सुखद भवितव्यताओं की अपेक्षा की जा रही है, उसके लिए दैवी शक्ति के रूप में अध्यात्म का सर्वतोमुखी संवर्द्धन होना चाहिए। आज की सबसे बड़ी आवश्यकता एवं दूरदर्शिता यही हैं। कठिनाई यह है कि परिस्थितियों को देखते हुए अध्यात्म के संबंध में उसकी प्रामाणिकता संदिग्ध हो चली है। भौतिक विज्ञान और प्रच्छन्न अध्यात्म ने मिलजुल कर ऐसा वातावरण बनाया है। जिससे श्रद्धा डगमगाती है और आत्मसाधना का कोई सर्वसाधारण की प्रवृत्ति को मोड़ना अतिशय कठिन हो रहा है।
वास्तविकता और अवास्तविकता के बीच बने रहस्य उद्घाटित करने के लिए परोक्ष-दैवी नियोजन ने सर्वसाधारण के सामने एक सुयोग प्रस्तुत किया है। शान्तिकुञ्ज की भूतकालीन गतिविधियों में यदि कुछ आनन्ददायक और उत्साहवर्धक है, तो उसका श्रेय आत्मशक्ति को ही जाता है। भले ही प्रयोक्ता कोई भी व्यक्ति क्यों न रहा हो? भूतकाल में सभी का उल्लेख हो चुका। इन दिनों जो तैयारी चल रही है उसे भी इसी स्तर का समझा जा सकता है कि कोई सर्वशक्तिमान नियोजन कार्यान्वित होने जा रहा है। अगले दिनों जो होने जा रहा है, जो नियोजन बन रहा है, उसे भी इस भाषा में कहा जा सकता है मानों कोई सत्ता असंभव को संभव करने जा रही हो।
युगपरिवर्तन के भूत कालीन, आज के और भावी प्रयत्नों को जोड़कर देखा जाय तो इसे आत्मशक्ति से समाज संरचना के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है। इतने पर भी पूर्व असमंजस जहाँ का तहाँ अड़ा रह जाता है कि बात यदि ऐसी है तो इतने बड़े समुदाय द्वारा अपनाई जा रही प्रक्रिया अपने द्वारा किसी महत्वपूर्ण संरचना का परिचय क्यों नहीं दे रही हैं?
यह साधारण असमंजस नहीं हैं। इसके निराकरण के ऐसे समाधान कारक प्रमाण चाहिए जो अविश्वास को विश्वास में बदल सके। साथ ही यह रहस्योद्घाटन भी कर सके कि सशक्त और सही अध्यात्म का स्वरूप क्या हो सकता है जो अपनी प्रखरता का परिचय दे सके और साथ ही इस तथ्य से भी सर्वसाधारण को अवगत कराया जाना चाहिए कि वे अभाव क्या हैं, जिनकी उपेक्षा के कारण पूजा पत्री और कथा-वार्ता मात्र विडम्बना बनकर रह गई और दिग्भ्रान्त लोगों को किस कारण से असफलताएँ हस्तगत हुई, जो केवल उनको असमर्थ और उपहासास्पद बनाती रहीं, लोक श्रद्धा, डगमगाती रहीं विचारशीलों को उस उत्साह से वंचित भी करती रहीं कि वे सही दिशा धारा अपना कर अपने को और अपने समूचे समूह को कृतकृत्य बनाते।
इन समस्त साधनों के लिए शान्तिकुञ्ज के संचालकों को निजी जीवन में अपनाये गये उन तथ्यों पर प्रकाश डालना पड़ रहा है जिनसे वह भूतकाल को साक्षी रूप में प्रस्तुत करते हुए, वर्तमान क्रिया–कलापों के औचित्य पर विश्वास करने की मनःस्थिति पैदा कर सकता है। साथ ही भावी योजना के लिए जितनी जनशक्ति और साधनाशक्ति की अपेक्षा होगी उसे सफल सम्पन्न कर सकता है। इससे शक्ति संचय हेतु किये गये पुरुषार्थ और तद्नुरूप दैवी अनुकम्पा के सहयोग की सम्भावना का रहस्य आसानी से समझा जा सकता हैं।
प्रस्तोता ने पूजा अर्चा की उपेक्षा की हो सो बात नहीं। इस दिशा में सघन विश्वासी जो कर सकता है, वह भी उनने दुस्साहस स्तर का पूरा किया है। पर साधना को ही उन प्रयोगों में अपनाया है जिन्हें अध्यात्म का प्राण कहा जा सकता है।
कपड़े को धोने के बाद ही उस पर रंग चढ़ता है। लोहा तो भट्टी में गलने के उपरान्त ही अभीष्ट स्तर के उपकरण ढलने योग्य बनता हैं पात्रता के अनुरूप ही अनुदान मिलते हैं। इन उदाहरणों की चर्चा इस संदर्भ में की जा रही हैं कि अध्यात्मवादी को निजी व्यक्तित्व के परिष्कार को प्राथमिकता देनी चाहिए और उसकी शोभा सज्जा के लिए जप-तप को प्रश्रय देना चाहिए। यही है प्रयोक्ता का अनुभव और प्रतिदान जो साक्षी रूप में इसलिए प्रस्तुत किया जा रहा है कि जिसने इस दिशा में चलने का साहस जुटा लिया है उसे यह भी जानना चाहिए कि समग्र साधना सम्पादन के लिए किन तथ्यों को अविस्मरणीय मानते हुए अपनाने की तैयारी करनी चाहिए।
इन पंक्तियों के लेखक ने अध्यात्म विज्ञान के रहस्यों की प्रेरणा, अनुसंधान, अनुभव के आधार पर यह जाना ओर माना है कि आत्म विज्ञान की त्रिवेणी संगम की तरह तीन दिशा धाराएँ हैं। (१) उपासना (२) साधना (३) आराधना। तीनों के समन्वय से ही एक पूरी बात बनती हैं।
मनुष्य अन्न पानी, और हवा के आधार पर जीता हैं। तीन लोक प्रसिद्ध है। तीन देवता प्रमुख कहे गये हैं। भूत, वर्तमान और भविष्य समय के तीन काल माने जाते हैं। जीव, ईश्वर, और प्रकृति के समन्वय से संसार चल रहा है। इसी प्रकार यह भी माना जाना चाहिए कि (१) उपासना (२) साधना (३) आराधना का समन्वय ही आत्मशक्ति के उपार्जन को सुनिश्चित करता है। इन्हें समान रूप से अपनाया जा सके तो कोई कारण नहीं कि जिन चमत्कारी ऋद्धि-सिद्धियों को अध्यात्म की परिणति माना जाता है, वे अक्षरशः सही सिद्ध न हों। तीनों की संक्षिप्त विवेचना यहाँ प्रस्तुत हैं।
(१) उपासना-निकट बैठना। ईश्वर को सर्वतोभावेन आत्मसमर्पण करना। उसके निर्देश और अनुशासन को इस सघनता के साथ अपनाना मानों आग और ईंधन, नाला और नदी एक हो गये हों। एक ने अपनी इच्छा, अस्तित्व और सत्ता समाप्त कर दी हो और दूसरे में अपने को लय करने में कोई कमी न रखी हो। पूजा पाठ इसी मनःस्थिति को विनिर्मित करने का एक माध्यम है, अपनाया उसे भी जाय किन्तु सद्भावनाओं, सत्प्रवृत्तियों का समन्वय अर्थात् ईश्वर। विराट ब्रह्म विशाल विश्व अर्थात् ईश्वर। इसका कोई नाम रूप नहीं। व्यापक सत्ता निराकार ही हो सकती है। फिर भी कोई उसकी इच्छित कल्पना एवं स्थापना अपने मन से कर सकता है। प्रस्तोता उसका नाम गायत्री मंत्र के शब्दों में और सविता उदीयमान स्वर्णिम सूर्य के रूप में अपनाता रहा है। दूसरे अपनी इच्छानुसार और अन्य नाम रूपों को भी मान्यता में सन्निहित कर सकते हैं।
साम्प्रदायिक प्रचलनों, रीति रिवाजों को भी ईश्वर की वाणी कहते रहे हैं। यह समयानुसार परिवर्तनशील है। इसलिए इन्हें भी सामयिक उपयोगिता की कसौटी पर कसते हुए मान्यताओं के रूप में स्थिर किया जा सकता हैं।
(२) ईश्वर प्राप्ति की पात्रता अर्जित करने का दूसरा अवलम्बन है-साधना-अर्थात् जीवन साधना। सध हुआ संयमी जीवन। मानवी गरिमा के अनुरूप क्रियाएँ, मर्यादाओं का अवलम्बन और वर्जनाओं का निरस्तीकरण, सभ्यता एवं सुसंस्कारिता की अवधारणा। उत्कृष्ट आदर्शवादिता के अनुशासन का अवधारण। संचित कुसंस्कारों का गुण, कर्म स्वभाव से निष्कासन। देव मानव स्तर के गुण, कर्म, स्वभाव का अवलम्बन, अभिवर्धन। सरकस के जानवरों जैसा आत्मशिक्षण, सुरम्य उद्यान स्तर का सुनियोजित जीवनयापन। संस्कारों को यह पवित्र बनाने वाली साधना है। तपश्चर्या की संयम साधना से तुलना इसी कारण की जाती हैं।
(३) आराधना-अर्थात् उदारता। देने में प्रसन्नता। लेने में संकोच। सादा जीवन उच्च विचार। न्यूनतम में निर्वाह। बचत का सर्वतोमुखी सुसंस्कारिता के लिए नियोजन। गिरों को उठाने और उठों को उछालने में अभिरुचि। इसी को पुण्य-परमार्थ कहा जाता है। दान की परम्परा यही है। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु' के दोनों सिद्धान्त इसी आधार पर विनिर्मित है। धर्म-धारणा और सेवा साधना का निर्वाह भी आराधना और सेवा साधना का निर्वाह भी आराधना के अंतर्गत आता है। देवत्व की प्रवृत्ति एवं रीति-नीति भी यही हैं।
अध्यात्म तत्त्वज्ञान उपासना, साधना, आराधना के समन्वय पर अवलम्बित है। इन तीनों को जीवनचर्या की हर क्रिया प्रक्रिया के साथ जोड़ना पड़ता है और ध्यान रखना पड़ता है कि इसके विपरीत तो कुछ नहीं बन पड़ रहा है।
आराधना का एक पक्ष है शुभ का संवर्द्धन और दूसरा है अशुभ का उन्मूलन। इन्हें सहयोग और संघर्ष के नाम से जाना जाता है।
बोने और काटने का सिद्धान्त आराधना विज्ञान के अंतर्गत ही आता है। न्यायनिष्ठा एवं औचित्य का नीर-क्षीर विवेक भी आराधना का ही एक भाग है।
पात्रता अर्जित करने के लिए उपासना, साधना और आराधना के त्रिविध प्रयत्न करते रहने की आवश्यकता होती है। इसी आधार पर आत्मिक स्वस्थता बन पड़ती है। पूजन, अर्जन, उपहार, आदि क्रिया-कृत्यों को भी आत्म साधना का अंग माना जाता है पर वह ऐसा ही है जैसा कि स्वस्थ शरीर पर धुले वस्त्र और श्रृंगार साधनों की सुसज्जा। आवश्यकता उसकी भी है पर उसे महत्व इतना ही देना चाहिए जितना कि अपेक्षित है। पूजा कृत्यों को कलेवर और आत्म साधना को यदि प्राण समझा जाय तो भी ठीक है। दोनों के बीच अविच्छिन्न संबंध है। पूर्णता तक पहुँचने के लिए जीवन शोधन की वह तत्व है जिसे शक्ति भावना की जड़ों के सहारे सींचा और आगे बढ़ाया जाता हैं।
इन पंक्तियों के लेखक के द्वारा भूतकाल में जो सफलताएँ पाई गई हैं। वर्तमान में जो योजनाएँ बनाई गई हैं और भविष्य के लिए जो तैयारियाँ की गई हैं, उनकी सफलताओं का रहस्य इस एक ही केन्द्र पर केन्द्रित समझा जा सकता हैं कि उसने आत्म परिष्कार के उपरोक्त तीनों आधारों का समग्र निष्ठा के साथ अपनाया है। इस संदर्भ में अन्य सफलता प्राप्ति के इच्छुकों को भी इसी समग्रता का अनुकरण करना चाहिए।