विशेष लेख माला-१४ - सहस्र कुण्डी महायज्ञों का देशव्यापी सरंजाम

April 1990

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शासन व्यवस्था संसार भर पर आच्छादित है, पर उसका क्रम खण्ड-खण्डों में विभाजित होकर लागू होता है। दुनिया एक है पर उसमें देश अनेक है। देश में प्रान्त, प्रान्तों में जिले, जिलों में मंडल बँटते हैं और उनके तदनुसार शासनाध्यक्ष नियुक्त होकर कार्यरत होते हैं। थाने, तहसील, परगने आदि इसी विभाजन के अंतर्गत आते हैं। केन्द्रीय शासन के अंतर्गत विधानसभाएँ, जिलापरिषदें, परिषदों आदि के चुनाव होते हैं। तभी विकेन्द्रीकरण के साथ-साथ केन्द्रीकरण का तारतम्य बैठता है।

धर्मतंत्र अथवा समाज तंत्र का भी इसी प्रकार विभाजन बन पड़ता है। छोटी इकाइयाँ मिलकर एक बड़ी इकाई बनती हैं। यों इन दिनों सम्प्रदायों और मत मतांतरों का भी बोलबाला है और तीर्थों, धर्मकेन्द्रों का विभाजन विघटन स्तर का हो गया है, फिर भी ऐसी अराजकता प्राचीनकाल में नहीं थी और भविष्य में भी न रहेगी। राजतंत्र और धर्मतंत्र दोनों मिलकर एक सुरक्षा, सुव्यवस्था, स्वास्थ्य, शिक्षा, संचार, मुद्रा, अर्थतंत्र आदि का संचालन करेगा, पर मानसिकता, भावना, आचार संहिता, प्रथा प्रक्रिया आदि का दायित्व धर्मतंत्र को सँभालना पड़ेगा। भौतिकता से मनुष्य को लाभान्वित करने का सरंजाम शासन जुटाये और अध्यात्मिकता, नीतिनिष्ठा, समाजनिष्ठा, आदर्श, अनुशासन आदि को करने की जिम्मेदारी धर्मतंत्र के कन्धे पर रहे। इतने पर भी आवश्यक है कि दोनों के बीच एकता भी रहे और दोनों एक दूसरे को परिष्कृत-व्यवस्थित करने में अपनी-अपनी भूमिका निबाहें। समग्रता इसी आधार पर बन पड़ेगा।

शासनतंत्र अपने ढंग से चल रहा है। उसकी उठक-पटक राजनीतिक पार्टियाँ करती रहतीं है। सुधार परिवर्तन होते रहते हैं, पर दुर्भाग्य यही हैं। कि मानसिकता, भावना और आदर्शवादी अनुशासन को सुस्थिर समुन्नत रखने वाला धर्मतंत्र इन दिनों अन्य क्षेत्रों की तुलना में विकृतियों से अधिक भर गया है, जबकि उसके अधिक परिचित, प्रभावी एवं संगठित होने की आवश्यकता थी ताकि शासन क्षेत्र में जो गड़बड़ी चले, उसे संतुलित करने में उसकी प्रभाव क्षमता का परिचय मिल सके। धर्मतंत्र से लोक शिक्षण की प्रक्रिया इसी आधार पर चल पड़ी है। इक्कीसवीं सदी की युगपरिवर्तन योजना के अंतर्गत इसी प्रक्रिया को प्रमुखता दी गई हैं। युगसन्धि के नवनिर्धारणों में इसी प्रसंग को प्रमुखतापूर्वक उभारा गया है। जन-संपर्क के जनजागरण के अनेकानेक कार्यक्रम इसी लक्ष्य को आगे रख कर संचालित किये गये हैं।

यह घोषणा देश के, विश्व के कोने-कोने में सुनी गई है कि सन् ७० से २००० के बीच दस वर्षों में जनजाग्रति का-लोकमानस का परिमार्जन का लक्ष्य पूरा कर एक लाख दीपयज्ञों और एक करोड़ सृजन शिल्पियों की भागीदारी नियोजित किये जाने का इतना बड़ा कार्यक्रम बना है जिसे अभूतपूर्व असाधारण एवं ऐतिहासिक कहा जा सकता है। अपेक्षा की गई है कि इस कार्यक्रम के आधार पर देश भर के कोने-कोने तक युगचेतना का प्रकाश पहुँचाया जायगा। इससे कुछ कदम आगे बढ़ते ही विश्व भर में बिखरे भारतीय मूल के प्रवासियों और इसके बाद अनेक धर्मावलम्बियों, भाषा-भाषियों मान्यताओं वाले लोगों को उनकी अभिरुचि के साथ संगति बिठाते हुए इसी प्रयास को व्यापक बनाया जायगा। प्रस्तुत ६०० करोड़ मनुष्यों को मानवी गरिमा की छत्र छाया में लाने की यही योजना है। शान्तिकुञ्ज से संबंधित सभी परिजन इस विशालकाय योजना के कार्यान्वित करने में इन्हीं दिनों जुट गये हैं। जो बच गये हैं इन्हें आग्रहपूर्वक इस प्रयास में सहभागी बनाने के प्रति योजनाबद्ध आन्दोलन चलाया जा रहा है। परिजनों पाठकों तक ही नहीं, अपरिचितों को भी इस माध्यम से एक जुट करने और प्रगति पथ पर चल पड़ने के लिए आन्दोलित किया जा रहा है। सन् ९० को शुभारंभ वर्ष माना गया है। अगले दस वर्ष इस प्रयोजन को व्यापक और परिपक्व बनाने में लगेंगे। फिर सन् २००० के आगमन के साथ इक्कीसवीं सदी का सूत्रपात हो ही जाएगा।

सन् ९० का निर्धारण यह है कि जहाँ भी प्रज्ञापीठें, प्रज्ञामंडलियाँ, जाग्रत शक्तिपीठें विद्यमान हैं, उन सभी में एक-एक हजार दीपयज्ञों के आयोजन हों। उसमें एक मण्डल के लोगों को आमंत्रित ही नहीं सम्मिलित भी किया जाय। मण्डलों के गठन आवश्यक है। राजनीतिक क्षेत्र वाले भी तो अपने विभाजन इसी प्रकार करते हैं। धर्मतंत्र वालों को भी अपने मंडल संगठित करने चाहिए और उसके आधार पर दीपयज्ञों के समारोह होने चाहिए। उस क्षेत्र की विचारशील जनता को इनमें प्रयासपूर्वक अधिकाधिक संख्या में सम्मिलित किया जाना चाहिए।

हर मंडल में कई-कई हजार वेदी के दीपयज्ञ हों। इसके लिए संपर्क साधने, उद्देश्य एवं महत्व बताने, संभावनाओं पर ध्यान केंद्रित कराया जा सके तो निश्चय ही दो दो, तीन तीन मील के फासले पर उपरोक्त स्तर के आयोजनों की धूम मंच सकती है और उस परिधि के लाखों व्यक्ति नवयुग के, नवजीवन के आधारों को अपनाने के लिए आन्दोलित हो सकते हैं।

कुछ प्रभावशाली प्रतिभाएँ यदि इन आयोजनों को सम्पन्न बनाने के लिए कटिबद्ध हो सकें तो इतने भर से ही उज्ज्वल भविष्य से जुड़े हुए नवयुग आन्दोलनों की तूफानी लहर पैदा हो सकती है। समर्थ प्रतिभाओं को कार्यक्षेत्र में उतारने का संदेश शान्तिकुञ्ज से सभी दिशाओं में देश के कोने-कोने में भेजने की प्रक्रिया सुनिश्चित संभावना के साथ योजनाबद्ध रूप से आरंभ कर दी गई हैं।

उपरोक्त आयोजन न तो अत्यधिक श्रम साध्य हैं और न खर्चीले। इच्छाशक्ति की प्रबलता और व्यवस्थित दौड़-धूप से आयोजन में सम्मिलित होने वालों की अभीष्ट संख्या एकत्रित हो सकती है। प्रचार कार्य के लिए कई सरल मार्ग हैं। साइकिल और रिक्शों के सहारे चलने वाली तीर्थयात्रा योजना, ज्ञानरथों द्वारा गली-मुहल्ले-हाट-बाजारों में संदेश गुँजाया जाना कुछ अर्थ रखता है। उस आमंत्रण पर एक दिन में क्षेत्रीय जनता को सरलतापूर्वक एकत्रित किया जा सकता है। इसी संदर्भ में दो प्रचार प्रयोजन और भी प्रभावी सिद्ध होते हैं। इनमें एक है स्लाइड प्रोजेक्टर। जो घरों में गली-मुहल्लों में प्रकाशचित्र दिखाते हुए अभीष्ट उद्देश्य की जानकारियाँ जन-जन तक पहुँचा सकती हैं दूसरा माध्यम है टेपरिकार्डर पेटिका जिसमें एंप्लीफायर भी है जिसके माध्यम से घरों में अच्छा-खासा संगीत सम्मेलन हो सकता है। सुनने के लिए क्षेत्र के लोग सहज ही पहुँच सकते हैं। साथ ही वे यह जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं कि निकट भविष्य में किस निकट एवं समीपवर्ती गाँव में सहस्रकुण्डीय दीपयज्ञ को सम्मिलित होने के लिए ऐसा दैवी निमंत्रण प्राप्त हो रहा है एवं जिसे किसी को भी अस्वीकृत नहीं करना चाहिए।

संयोजकों को छाया का प्रबंध करने के लिए शामियाना, बैठने के लिए फर्श, घेरा बन्दी के लिए कनात जैसी आवश्यकताएँ पड़ेगी। लाउडस्पीकर का भी प्रबंध करना होगा। प्रवचनमंच तथा पूजावेदी की व्यवस्थित तखत एकत्र करके बनाई जा सकती है। ऐसा भी हो सकता है कि एक क्षेत्र के लिए एक सेट की व्यवस्था कर ली जाय और उसी का प्रयोग फिर समीपवर्ती सैकड़ों कार्यक्रमों में काम आता हरे। बड़ी संख्या में जन उपस्थिति के लिए पीने का पानी और पेशाबघरों का प्रबंध भी करना पड़ता है। सज्जा तथा सुव्यवस्था के लिए अपने ही लोगों में से कुछ को स्वयंसेवक स्तर की जिम्मेदारी संभालने के लिए प्रशिक्षित कर दिया जाय। अगरबत्ती दीपक लोग अपने पैसे से खरीद लें। इनकी दुकानें यज्ञशाला क्षेत्र में भी लगाई जा सकती हैं।

एक दिन का यह आयोजन प्रायः सवेरे से शाम तक चलेगा। इतने लम्बे समय तक सम्मिलित रहने वालों के लिए एक बार का भोजन प्रबंध बन पड़े तो ठीक है। यह मुश्किल तब पड़ेगा जब एक ही जगह पूड़ी सब्जी जैसी खर्चीली व्यवस्था बनाई जाय और पंक्तिबद्ध रूप से सबको बैठा कर खिलाया जाय। यह प्रीतिभोज शैली अपने कार्यक्रमों में अपनाये जाने की तनिक भी आवश्यकता नहीं हैं।

नया निर्धारण यह हैं कि हर घर से एक दो रोटी तथा शाक सब्जी लाने के लिए प्लास्टिक की थैलियाँ बाँट दी जाय और कहा जाय कि इसमें अपनी सामर्थ्यानुसार कुछ बना हुआ भोजन भी आयोजन में आने के समय साथ लेते आवें। रोटी संग्रह करने वाली थैलियों पर छपा रहे स्वेच्छापूर्वक बना-शाकाहारी भोजन’ इस प्रकार का भोजन सब लोग पंक्तिबद्ध होकर प्रीतिभोज की तरह खायें तो उससे जाति-वशं सब एक समान’ के आदर्श की पूर्ति होती है और जातिगत ऊँच-नीच का जो भेद-भाव चल रहा है उससे निवृत्ति मिलती है।

सहभोजन के सम्बन्ध में एक प्रयोग यह भी हो सकता है कि खिचड़ी या दलिया एक जगह बना लिया जाय और उसे पत्तलों में परोस कर खाया जाय।

सहगान कीर्तन से भी एकता के भाव विकसित होते हैं। साथ-साथ गायत्री मंत्र के उच्चारण में भी जहाँ एकता और समता का प्रतिपादन है वहाँ उससे सूक्ष्म जगत का ऐसा परिष्कार भी जुड़ा है जो नवयुग के अवतरण में सहायता करेगा।

इन आयोजनों में सम्मिलित होने वालों को कुछ उपयोगी प्रतिज्ञाएँ भी करनी चाहिए। जैसे हर साक्षर द्वारा दो निरक्षरों को साक्षर बनाया जाय। नशेबाजी छोड़ी और छुड़ाई जाय। प्रगति कार्यक्रमों में सहयोगी बनने के लिए समयदान-अंशदान का पुण्य छोटे-बड़े किसी न किसी रूप में निबाहा जाय।

धर्म के चार-चरण भी व्याख्या करने योग्य हैं और प्रतिज्ञा में सम्मिलित रखने योग्य भी। १-समझदारी २-ईमानदारी ३-जिम्मेदारी ४-बहादुरी पाँच नियम ऐसे हैं जिन्हें अपने प्रभाव क्षेत्र में सुविस्तृत किया जाना चाहिए।

१-श्रमशीलता २-शिष्टता ३-मितव्ययिता ४-सुव्यवस्था ५-सहकारिता व्याख्यानों में इन सद्गुणों को अपनाने की उपस्थितजनों को प्रेरणा दी जानी चाहिए। विवाहों में दहेज-जेवर और धूम धाम का परित्याग करने का व्रत लेना भी ऐसा है जिसे सभी लोगों को संकल्प रूप में निबाहने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए।

दीपयज्ञ में उपस्थित जन अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र में ऐसे ही छोटे-बड़े आयोजन करने कराने की प्रतिज्ञा ले तो इस प्रक्रिया का व्यापक प्रचार हो सकता है और धर्मधारणा के लिए-सेवा साधना के लिए एक नया वातावरण विनिर्मित हो सकता है।

इस योजना से कुछेक प्रतिगामियों को छोड़कर अन्य किसी की कोई असहमति नहीं हो सकती है। एक दिन का समय निकालना और घर से कुछ खाद्य पदार्थ लेकर चलना भी इतना कुछ वर्णित नहीं है, जिसके लिए कोई यदि समुचित प्रचार किया जाय तो बड़ी संख्या में लोगों को सम्मिलित न किया जा सके। इस प्रकार एकत्रित हुए लोगों का एक परिवार समुदाय गठित होता है जिसकी संयुक्त शक्ति को अवांछनीयताओं से जूझने और एक जुट हो कर कोई उपयोगी कार्य सम्पन्न होने के निमित्त लगाया जा सकता है और उसके दूरगामी सत्परिणाम कुछ ही दिनों में सामने आ सकते हैं।

इस आयोजनों को गठित करने वाले जन साधारण के सम्मुख एक लोकसेवी और सुधारवादी के रूप में सामने आते हैं। छवि बनती है और उस छवि का लाभ व्यक्तिगत और सामूहिक प्रगति के रूप में अनेक आधार लेकर सामने आ सकती है। नेतृत्व के अभिलाषी से इन आयोजनों के सहारे अपनी मनोकामना योग्यतापूर्वक सहज पूरी कर सकते हैं।

समर्थ शाखा संगठनों के लिए कुछ उपकरण खरीदना और अपने तथा अन्धों के क्रिया–कलापों में उपयोग करना व्यय साध्य है। दीपयज्ञों के साथ धार्मिकता और पुण्य-परमार्थ के जुड़े होने के कारण खुशहाल लोगों से इतना पैसा भी आसानी से संग्रह किया जा सकता है जिसके सहारे तीर्थयात्रा ज्ञानरथ, स्लाइड प्रोजेक्टर, टेपरिकार्डर पेटी, बिछावन, आच्छादन आदि को खरीद सकना सरलतापूर्वक बन पड़े। दीपयज्ञों को सुनियोजित ढंग से आयोजित किया जा सके तो युग अवतरण के महान प्रयोजन में उनसे बड़ी सहायता मिल सकती है।


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