बड़ा विलक्षण-अद्भुत हैं, मानवी मन

April 1990

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यदा-कदा व्यक्ति को ऐसी सत्प्रेरणाएँ मिल जाती हैं, जिनसे उसका कोई बड़ा नुकसान टल जाता है, प्रियजन अथवा स्वयं उसकी आत्मरक्षा हो जाती हैं। इसे वह बड़ा चमत्कार मानने लगता है और तरह-तरह की संज्ञा-संबोधन इसे देने लगता है। कभी भगवान की अहेतुकी कृपा मान बैठता है, पर इस बात को भुला देता हैं कि जिसे वह अचम्भा मान बैठा है, वस्तुतः इसमें वैसा कुछ है नहीं। परिष्कृत अन्तःकरण ही वह कारण है जिसकी उपलब्धि बन पहने पर ऐसी घटनाएँ घटने लगती हैं, जो सामान्य स्थिति में कभी-कभी ही दिखाई पड़ती हैं, किन्तु तनिक उच्च भाव-भूमि की उपलब्धि हो जाने पर यह घटनाएँ सामान्य जीवनक्रम का अभिन्न अंग बन जाती है और फिर व्यक्ति अनवरत रूप से ऐसी सूक्ष्म तरंगों से संबंध स्थापित बनाये रह सकता हैं।

आये दिन ऐसी घटनाएँ घटित होती ही रहती हैं। एक घटना साउथगेट, कैलीफोर्निया की है। वहाँ के एक सज्जन समाजसेवी श्री आर. एल. बेनडिक्ट अपनी एक सहयोगिनी श्रीमती एम. बी. जीन के साथ फिलाडेल्फिया के लिए अपनी कार में यात्रा कर रहे थे। कुछ खराबी के कारण एक स्थान पर कार खड़ी करनी पड़ी। कार पार्किंग के लिए वहाँ विशाल क्षेत्र था। श्रीमती जीन कार खड़ी कर रही थी तभी अचानक श्री बेनेडिक्ट के अन्तःकरण में एक प्रवाह आया और वह स्वाभाविक रूप से कहने लगे कृपया यहाँ गाड़ी खड़ी न करें, कुछ अनर्थ हो जायेगा।” जीन उस पर विश्वास करती थी उन्होंने स्थान बदल दिया। सभी उतर कर आवश्यक जब वे लोग वापस लौटे, तो दृश्य देखकर आश्चर्य का ठिकाना न रहा। जिस स्थान पर कार खड़ी करने के लिए मना किया गया था, उस स्थान पर खड़ी दूसरी कार बिल्डिंग गिरने से चकनाचूर हो गई। सभी बाल-बाल बच गये। यह दैवी प्रेरणा का ही मार्गदर्शन था।

दूसरी घटना का उल्लेख करते हुए श्री आर. एल. बेनडिक्ट यात्रा कर रहे थे और एक ऊँचे सदस्यगण यात्रा कर रहे थे और एक ऊँचे पहाड़ी एवं घनघोर जंगल से गुजर रहे थे। मेरा छोटा लड़का कार चला रहा था। अनायास ही मैं अनुभव करने लगा कि कुछ दुर्घटना होने वाली है मैं जोरों से चिल्लाया “मिक्। तुरन्त गति कर करो, ऐसा न करने पर कोई बड़ी दुर्घटना होने वाली है, इसके कारणों की व्याख्या करने के लिए समय नहीं हैं।” “तुरन्त की मिक् ने आज्ञा का पालन किया और गति कम की। दूसरे मोड़ पर तीस फीट सामने हिरणों का झुण्ड गुजर रहा था। यदि गति कम नहीं की जाती तो सुनिश्चित रूप से दुर्घटना घटती। ब्रेक लगाने पर कुछ इंच की दूरी पर अपनी गाड़ी रुक गई और बड़ी दुर्घटना टल गई।” ऐसे ही अनेकों विधेयात्मक निर्देश प्रत्येक मनुष्य को कोई महत्वपूर्ण कार्य करने से पहले प्राप्त होते हैं, किन्तु जो अपने स्वच्छ अन्तःकरण के पट को खोले रहते हैं, ऐसे निश्छल हृदयों को इसका लाभ मिलता रहता है, कषाय कल्मष एवं लोभ मोह, अहंकार जैसी वृत्तियाँ स्फुरणा के उन रास्तों को बन्द कर देती है, जहाँ से दिशा निर्देश का प्रवाह फूटता है।

मनुष्य के मस्तिष्क क्षेत्र में इतनी क्षमता है कि वह अपने मित्र, परिजन, सम्बन्धी अथवा वैचारिक साम्यता वाले लोगों तक अपनी सूक्ष्म संवेदना का अंश भेज सकता है, जिससे उन्हें मार्गदर्शन मिले एवं गलत कदम न उठाकर परिस्थितियों से लड़ने की शक्ति प्राप्त करें। इसी आधार पर ऋषि मनीषी अपने परिकर में जुड़े लोगों को वैचारिक दबाव देकर सन्मार्ग की ओर प्रेरित करते थे। यही हे विचार सम्प्रेषण पूर्वाभास, अब पूर्णतः विज्ञान सम्मत माना जाता है। एरलिंगटन टेक्सेस की श्रीमती बी. एन. केन्योन अपने जीवन में घटी घटनाओं से इसकी पुष्टि करती है। वे लिखती है मेरे पति वैचारिक तनाव से गुजर रहे थे। उन्हें महत्वपूर्ण कार्य के लिए बैंक से लोन लेना पड़ा, जिसको समय पर पूरा करने के लिए उनके बड़े भाई ने आश्वासन दिया किन्तु समय पर पूरा न होने के कारण बैंक मैनेजर दबाव देने लगे। परिस्थिति इतनी बिगड़ गई कि मेरे पति को कुछ सूझ ही नहीं पड़ता था। वे रात्रि में देर तक काम करते रहे और फिर कमरे से बाहर चले गये, किन्तु उनका यह व्यवहार मुझे विचित्र नहीं लगा, क्योंकि वे प्रायः ऐसा किया करते थे। रात्रि में टहलने के लिए पास के पार्क में चले जाया करते थे किन्तु उस रात जब पुत्र सो गया, मुझे ऐसा लगने लगा कि कुछ अनर्थ होने वाला है। मैं उठ बैठी और जोर से कहने लगी “टोवी कृपया ऐसा मत करो।” अचानक उठने वाले ये भाव अत्यन्त गहराते चले गये और अपना विचार प्रवाह उन तक पहुँचाने की मनःस्थिति बनाकर कहने लगी” टोवी! जल्दी घर आओ हमें इस तरह छोड़कर न जाओ। अपने बच्चों के बारे में सोचो ऐसा मत करो। मुझे आपकी आवश्यकता है, जल्दी आओ। मैं ऐसा अनुभव करने लगी कि उन्हें बुला रही हूँ। इतने मैं दरवाजा खुला और उनके आते ही में बोल दरवाजा खुला और उनके आते ही में बोल पड़ी। कृपया वादा कीजिए ऐसा कभी नहीं करने के लिए सोचेंगे। उन्हें आश्चर्य हुआ पूछा “तुम कैसे जानती हो, तुम्हें कैसे मालूम कि यहाँ से दूर मैं क्या योजना बना रहा था।” “मैंने उनसे कहा कि मैं नहीं जानती कि मुझे कैसे भान हुआ पर, कुछ अनिष्ट होने वाला है। इसकी स्पष्ट अनुभूति हो रही थी।” उन्होंने बताया कि उनके टेबल की दराज में पिस्तौल थी और वे योजना बना रहे थे कि इससे आत्मा हत्या की जाय, किन्तु अचानक एक तीव्र प्रवाह आया और ऐसा लगा मानों कोई उन्हें खींच रहा है इस तीव्रता से कि रुकते ही नहीं बना और वे घर की ओर चल पड़े।”

इन घटनाओं से सुस्पष्ट है कि मनुष्य चाहे तो दूसरों तक अपना विचार प्रवाह सम्प्रेषित कर उसे आवश्यक मार्गदर्शन दे सकता है एवं स्वयं मौका पड़ने पर इस तरह की विचार तरंगें ग्रहण कर सकता हैं। यह क्षमता हर व्यक्ति में सन्निहित हैं, पर भाव संस्थान अनगढ़ होने के कारण यदा-कदा ही संयोग अथवा भाग्यवश अपनी इस क्षमता का व्यक्ति लाभ उठा पाता है। यदि वह अपनी भावनाओं को तनिक उच्चस्तरीय बना ले, तो फिर अनायास ही उसे इस प्रकार के सूक्ष्म मार्गदर्शन एवं प्रेरणाएँ मिलते रह सकते हैं, जिससे आड़े समय में वह इससे लाभ उठा सके। इतना बन पड़ने पर वह न सिर्फ दूरस्थ व्यक्ति से ही संपर्क साधने में समर्थ हो सकेगा, वरन् आस-पास उमड़ते घुमड़ते उन समस्त श्रेष्ठ विचार प्रवाह के अतिरिक्त ब्राह्मीचेतना से भी तादात्म्य स्थापित करने में सफल हो सकेगा, जो उसके आत्मिक विकास में सहायक हो सके।


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