पुण्य परमार्थ के लिए कौन सा क्षेत्र चुनें? किस दिशा धारा को अपनाएँ, अपने लिए क्या कार्यक्रम भावी जीवन के नियोजन हेतु अपनाएँ? समयदान की श्रद्धाञ्जलि किस देवता के चरणों में अर्पित करें? प्राणवान परिजनों के सामने प्रस्तुत इन समस्त प्रश्नों का उत्तर एक ही है कि जन जीवन में गहराई तक घुसी हुई विकृतियों का उन्मूलन। क्योंकि व्यक्ति और समाज की, स्थानीय। क्योंकि व्यक्ति और समाज की, स्थानीय एवं संसार में संव्याप्त अगणित विपन्नताएँ आस्था संकट के कारण ही उत्पन्न हुई हैं। भ्रष्ट चिन्तन ही दुष्ट आचरणों की जन्मदात्री हैं और उसी के कारण समूचा वातावरण अवांछनीय विपन्नता से भर गया है। यदि प्रचलित मानसिकता को बदला जा सके तो उन अगणित समस्याओं का सहज समाधान निकल सकता हैं जो सर्वत्र हाहाकार मचाए हुए है और सर्वनाश की चुनौती दे रहा है।
लोक मानस का परिष्कार अनुपयुक्त प्रचलनों का परिवर्तन, शालीनता की रीति-नीति को प्रश्रय इस एक ही उद्देश्य को विचारक्रान्ति-महाक्रान्ति-जनमानस का परिष्कार “युग परिवर्तन” आदि नामों से जाना जा सकता हैं। बात एक ही है पर उसे नाम कितने ही अन्य भी दिये जा सकते हैं। धर्मधारणा, सेवा साधना भी यही है।
यों सुविधा संवर्द्धन के लिए बनाये हुए अवलम्बन भी दान-पुण्य की परिधि में आते हैं। निर्धनों को अनुदान और संकट निवारण में आर्थिक स्तर का सहयोग भी परमार्थ की परिधि से बाहर नहीं है। पर इन्हीं दिनों जिस प्रयत्न को प्रमुखता के साथ प्रश्रय मिलना चाहिए, जिसे लोकशिक्षा या जनजागरण कहा जा सकता हैं, वही निकृष्टता की पक्षधर मानसिकता को बदल सकने में समर्थ हो सकती है। इस एक कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न कर लेने से अन्य परमार्थिक कहे जाने हैं जो अनायास ही अपनी पटरी पर लुढ़कने लगे।
मानसिकता को सुधारने उभारने में लेखनी और वाणी को प्रधान माध्यम माना जाता है। इसी को स्वाध्याय और सत्संग भी कहते हैं। लेखनी स्वाध्याय का सरंजाम जुटाती है और वाणी से कानों के छिद्र में मान्यताओं को प्रवेश कराने के रूप में मस्तिष्क को झकझोरा जाता है। धर्मतंत्र के अंतर्गत इन्हीं दोनों को प्रमुखता दी गई हैं। कथा, प्रवचन, कीर्तन आदि में वाणी काम करती है। पाठ, स्वाध्याय आदि में लेखबद्ध प्रशिक्षण का प्रभुत्व है। पढ़े और बिना पढ़े दोनों ही वर्गों में इन माध्यमों से किसी न किसी रूप में प्रकाश पहुँचाया जा सकता हैं। पढ़े लिखे लोग युग साहित्य को अनपढ़ों को पढ़ कर सुना सकते हैं।
इस संदर्भ में संजीवनी विद्या का, परिवर्तन प्रयोजन का व्यावहारिक प्रशिक्षण भी आता है। इसके लिए पाठ्यक्रम चलाने और साधन प्रयोजनों में व्यक्तित्व को झकझोरने का कार्य भी ऐसा है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती हैं।
क्रिया–कलापों में एक कार्य देव मानवों की संयुक्त शक्ति का विकास भी है, जिसे दिव्य-संगठन कहा जा सकता है। इसके लिए जनसमूह को एकत्रित करके, धार्मिक कर्मकाण्डों आदि माध्यम से समुन्नत विचारधारा वाले वर्ग को एकत्रित करने की आवश्यकता पड़ती है। घनिष्ठता, सामूहिकता, संगठन को उद्भूत करने के लिए प्रदर्शन, आयोजनों की भी आवश्यकता रहती हैं।
उपरोक्त निर्धारण प्रतिपादन को वर्गीकृत किया जाय तो उसके चार चरण बन पढ़ते हैं। (१) स्वाध्याय के लिए युग साहित्य का प्रयोग (२) सत्संग के लिए प्रवचन, परामर्श, विचार विनिमय आदि की व्यवस्था (३) प्रशिक्षण एवं साधना के लिए नियोजित किये जाने वाले सत्रों में सम्मिलित होना (४) सामूहिक समारोह, दीपयज्ञ, तीर्थयात्रा, जुलूस, प्रदर्शन आदि प्रयोजनों द्वारा अलख जगाने जनसंपर्क साधने की क्रिया प्रक्रिया को अपनाया जाना। युग परिवर्तन के लिए इन चारों ही माध्यमों को समुचित प्रश्रय मिलना चाहिए।