भगवान से सफाई किस बात की माँगें?

April 1990

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ईश्वर संबंधी वर्तमान मान्यताओं एवं उपासना से जुड़ी भ्रान्तियों से घिरे आज के समाज को देखकर मन में कई प्रश्न उठते हैं कि क्या वास्तव में ईश्वर ऐसा ही है? यदि वह पुजारियों को निहाल करने की मान्यता का प्रतिवाद नहीं करता, विदूषकों-चारणों-बहुरूपियों को-कर्तव्य पालन में उपेक्षा बरतने वालों को प्रश्रय देता है तो उस पर न्यायनिष्ठ ईश सन्तानों को पक्षपात का महाभियोग उसी तरह लगाना चाहिए जैसा कि कभी कभी राष्ट्रपति-प्रधानमंत्रियों पर लगाने की चर्चा होती रही हैं।

इन दिनों यह मान्यता पनपकर प्रौढ़ होती चली गयी है कि जो भजन के नाम पर अपना सारा समय आलस्य-प्रमाद में गुजार देते हैं और जनता से अपना शानदार निर्वाह के लिए चन्दा वसूल कर डकार तक नहीं लेते, अपने को भगवान का मध्यवर्ती एजेण्ट बताते हैं, उन्हें ही ईश्वरभक्त कहा जाना चाहिए। मन में एक प्रश्न उठता हैं कि जो ईश्वर अन्तर्यामी हैं, वह भावसंवेदनाओं आकांक्षाओं, उद्देश्यों, आदर्शों को देख परख कर ही किसी के भले-बुरे भक्त-अभक्त होने का निर्णय क्यों नहीं कर लेता? जो ईश्वर इलहाम कर सकता है, धर्मधारणा के नियम उपनियम बना सकता है, ऋषियों को प्रेरणा दे सकता है, मनीषियों को अशुभ निवारण हेतु उत्तेजित कर सकता है, वह अपने ऊपर लगने वाले इन आक्षेपों का निराकरण करने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाता? यह क्यों नहीं स्पष्ट करता कि उसकी सरकार में सत्ता के दलालों के लिए कोई स्थान नहीं हैं?

जब वह सर्वज्ञ है, सभी भाषाओं का विद्वान है तो फिर कोई व्यक्ति अपनी मातृभाषा में ही क्यों नहीं अपने मन की बात कह सकता। क्यों उसे बाइबिल के लिए सहस्राब्दी पुरानी अँग्रेजी तथा आर्षग्रन्थों के लिए जटिल व दुरूह भाषा ही सुहाती हैं? अपने शिष्टाचार-सम्मान हेतु वह भावनात्मक आदान प्रदान के स्थान पर झंझट भरे कर्मकाण्डों का आश्रय क्यों लेता हैं?

भजन और कर्म में से किसे प्रमुखता दी जाय? इस सीधे किन्तु इन दिनों अति जटिल बने हुए प्रचलन में गहरी जड़ जमाए बैठे, एक प्रकार की ग्रन्थि बने हुए मन्तव्य पर कोई दो टूक निर्णय क्यों नहीं किया जाता? इस मौन साधना से, मूकदर्शक बने रहने से लोगों की यह सहज मान्यता बनती हैं कि ‘मौन को अर्धस्वीकृति’ क्यों न मान लिया जाय, और ईश्वर को क्यों न उसका समर्थन मान लिया जाय? बड़ों की बड़ी बातें छोटों की समझ में नहीं आतीं, कहकर उत्कट जिज्ञासा बालों को भी चुप तो किया जा सकता हैं, पर इस भ्रम-संदेह की आग को भीतर-ही-भीतर सुलगने से नहीं रोका जा सकता है कि जो समय, श्रम-साधना द्वारा सत्प्रवृत्ति संवर्द्धन में लग सकता था उसे भजन परक विडम्बनाओं में इस हद तक क्यों सहन किया जाता है कि प्रायः साठ लाख पूरे समय के पेशेवर और न्यूनाधिक मात्रा में उसी के लिए ढेरों समय लगाने वाले कोटि-कोटि व्यक्ति नाम रटन को ही ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्ति का एक मात्र साधन मान लें। बहाना मिल जाने पर प्रायः पूरा ही समय उसी प्रयोजन में गुजारते रहें?

हर मनुष्य जब अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए जब अपने ही श्रम साधना में निर्वाह के आवश्यक साधन जुटा लेता है तो फिर कुछ लोग इस प्रकार का दावा क्यों करते रहे कि उन्हें भजन समर्थक होने के कारण यह छूट मिल गई है कि वे जनता को इसी एक कारण को सब कुछ बतायें और अपने लिए मुफ्त में खर्चीले साधन जुटाये? यदि इस प्रवाह की दिशा बदली जा सकी होती तो लाखों करोड़ों परमार्थ प्रेमी सृजन प्रयोजनों में लग सकते थे और अपने खाली समय का ऐसा सुनियोजित उपक्रम अपना सकते थे कि उतने भर से दोष दुर्गुणों में, अभाव, अनाचार में भारी कटौती हो सकी होती और ऐसे आधार खड़े हो सकते थे कि संव्याप्त अवांछनीयता के स्थान पर नवजीवन संचार के लिए बहुत कुछ बन पड़ा होता।

ईश्वर की पूजा प्रार्थना के बदले मनोकामनाएँ पूरा कर देने की मान्यता अब इतनी प्रबल हो गई हैं कि अधिकांश उपासना केन्द्र अब इसी एक बिन्दु पर केन्द्रित होकर रह गये हैं। यह प्रवाह प्रचलन दिन-दिन अधिक तेजी से चलने वाले तूफान की तरह बढ़ रहा है। मनोकामना पूरी करने का दावा करने वाले देवी देवताओं, जंतर-मंतर ओर तथाकथित सिद्धपुरुषों की, दाढ़ीवाले भगवाधारियों की ऐसी बाढ़ आई है कि जल-थल उसी में डूब गए प्रतीत होते हैं। वरदान आशीर्वाद पाने का प्रमुख माध्यम उसी प्रतिपादन को माना जाने लगा हैं। फलतः उसी निमित्त धनशक्ति, समयशक्ति और भावचेतना का नियोजन होते रहना स्वाभाविक सा बन गया हैं। स्थिति की तूफानी बाढ़ को देखते हुए हर विचारशील का शंका शंकित मन यह जानना चाहता है कि आखिर वस्तुस्थिति का निर्णय निर्धारण क्यों नहीं हो पा रहा?

वस्तुतः उपरोक्त सारे प्रश्नों का समाधान एवं महाभियोग लगाने की आतुरता का प्रत्युत्तर तब मिलने लगता है जब मनःस्थिति को थोड़ा सा मोड़ देकर विचार किया जाय। मनोकामना की पूर्ति वाला ईश्वर तो मनुष्य ने ही गढ़ा है न, किसी और ने तो नहीं, फिर वह उसी अपनी कृति पर आरोप कैसे लगा सकता है? परमेश्वर परब्रह्म, परमात्मा जिन्हें अचिन्त्य, अगोचर अगम्य कहा गया है, तो वे हैं जिनने इस सृष्टि के कण-कण की, वृक्ष वनस्पतियों की, जन-जन की काया व मन की ग्रह-नक्षत्रों की अनुशासन रूपी सीमेन्ट से संरचना की है। यह परब्रह्म वह है जिसने सारी सृष्टि को सृजा है। उसी का स्पन्दन जड़-चेतन के कण-कण में सतत् होता रहता है। यह स्पष्टीकरण ईश्वर तो करने से रहा कि “मुझ से संबंधी मान्यताओं के भ्रमजंजालों में फँसे हे मनुष्यों! कम से कम विचार करके तो देखो कि सही मायने में मेरी सत्ता कौन सी है, क्या है?” यह तो हमें ही अपनी दूरदर्शी विवेकशील को जगाकर, औचित्य की स्थापना कर अपने ही हृदय में झाँककर तलाशना होगा कि सच्चा भगवान कौन सा हैं?

यदि निराकार परब्रह्म को समझने में हमें, हमारी बुद्धि को कुछ कठिनाई आती हो तो हमें वेदान्त के कुछ सूत्रों ‘सोऽहम्’ अयमात्मा ब्रह्म’ सच्चिदानंदोऽहम् तत्त्वमसि, ‘जीवोब्रह्मव नापरः’ का चिन्तन-मनन कर लेना चाहिए एवं अपनी जिज्ञासा का समाधान करते हुए भ्रमजंजालों की मृग-मरीचिका से उबर आना चाहिए।


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