विशेष लेख माला-११ - महान लक्ष्य की विकेन्द्रीकरण योजना

April 1990

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उज्ज्वल भविष्य की विश्वव्यापी संरचना के लिए आवश्यक समझा गया है कि संसार भर में रह रहे ६०० करोड़ मनुष्यों में से प्रत्येक को मानवी गरिमा और मर्यादा के अनुरूप चिन्तन, चरित्र और व्यवहार अपनाने के लिए सहमत ही नहीं, बाधित भी किया जाय। दुर्बुद्धिजन्य अनीति अपनाने पर तो समग्र एवं समर्थ उत्कृष्टता की संभावना ही नहीं बनती। व्यापक लोक-मानस का परिष्कार यद्यपि बहुत बड़ा कार्य है, फिर उसे सम्पन्न किये बिना और कोई विकल्प नहीं।

इतना बड़ा काम कैसे किया गया जाय? कौन करे? इस संबंध में उथले विचार करने पर बिल्ली के गले में चूहे द्वारा घंटी बाँधे जाने की बात बनना असंभव ही लगता है, पर जब यह विचार सामने आता है कि एक छोटी नर्सरी में लगाये हुए पौधे जब स्थान-स्थान पर आरोपित किये जाते हैं, तो विशालकाय, अगणित वृक्षों से सजा उद्यान, सघन वन विनिर्मित होता है, तो साहस उभरता है, विश्वास होता है कि अच्छे शुभारंभ का परिणाम यह भी हो सकता है कि विश्व व्यवस्था में असाधारण परिवर्तन असंभव न रह कर संभव होगा।

शान्तिकुञ्ज ने जिस दिशा में जो श्रीगणेश शुभारंभ किया है, वह अपने पाँच लाख पंजीकृत और पच्चीस लाख सहयोगी समर्थकों द्वारा आरंभ होता है। इस देव समुदाय में से प्रत्येक को एक से पाँच में विकसित होने के लिए कहा गया है। पाँच से पच्चीस, पच्चीस से एक सौ पच्चीस, एक सौ पच्चीस से छः सौ पच्चीस वाली गुणन प्रक्रिया यदि अनवरत रूप से गतिशील रहे तो मिशन का प्रस्तुत समुदाय भी कुछ बड़ी छलाँगों से समूचे मनुष्य समुदाय तक संसार भर में अपना प्रकाश पहुँचा सकता हैं। इस विश्वास के साथ मजबूत कदम उठाये और समर्थ कार्यक्रम चलाये गये हैं।

मिशन की यह घोषित प्रतिज्ञा सर्वविदित है कि युगसन्धि के इन्हीं दस वर्षों में एक लाख से अधिक संगठन समारोह सम्पन्न करने हैं और अपने बलबूते ही युगसन्धि की पूर्णाहुति में एक करोड़ ऐसे लोग सम्मिलित करने हैं, जो नवसृजन के प्रति निष्ठावान् हो। यह आयोजन यदि अपनी पूर्णाहुति एक ही जगह सम्पन्न होकर रह जाय तो यह सचमुच बहुत कठिन होगा। इसीलिए इसे स्थान-स्थान पर करने की योजना बनी है।

सन् ५८ में गायत्री तपोभूमि, मथुरा में सम्पन्न हुए एक हजार कुंड वाले यज्ञ का जिन्हें स्मरण है, उन्हें विदित है कि उसमें चार लाख याजक और १० लाख दर्शक उपस्थित हुए थे। उनके ठहरने आदि की व्यवस्था दस मील के दायरे की भूमि घेरने पर सम्पन्न हुई थी। इन दिनों सम्बद्ध व्यक्तियों को यह आश्चर्य होता होगा कि इतने बड़े समारोह से संबंधित अनेकानेक जटिल व्यवस्थाएँ किस प्रकार जुटायी जा सकी होंगी, किस प्रकार इतने साधन एकत्रित हो सके होंगे, पर इन आश्चर्यचकित लोगों में से प्रत्येक को यह एक तथ्य स्वीकार करना पड़ा था कि दैवी शक्तियों के मनोरथ सचमुच ही ऐसे होते हैं, जिनमें “असंभव” शब्द का प्रयोग कहीं नहीं हो सकता। आकाश के ग्रह नक्षत्रों को, धरती की वनस्पतियों और प्राणियों जलाशयों की लहरों पर खेलते जल-जीवों को संकल्प मात्र से जो सत्ता सृजन कर सकती है, उसके लिए इतने बड़े आयोजन-समारोह का संयोग बिठा देना क्यों कुछ कठिन होगा। उस समारोह की सफलता देखते ही बनती थी।

उस अनुमान के आधार पर जो मनोबल और संकल्प उभरा है, उसने एक प्रकार से निश्चित ही कर दिया है कि अगले बड़े कदम भी डगमगायेंगे नहीं। एक लाख समारोह संगठन-एक करोड़ भागीदार जिस आयोजन में सम्मिलित हो सकते हैं, वह अपनी गति बढ़ाते हुए वायु रोशनी, गर्मी, वर्षा की भाँति अपना विस्तार संसार भर में भी कर सकता है और नये संसार की नई संरचना का स्वप्न साकार होने में कोई अवरोध बाधक नहीं हो सकता। साधारणजनों से भी असंख्य गुना दृढ़ विश्वास इस संदर्भ में उन्हें है जो शान्तिकुञ्ज जैसी छोटी कुटीर में बैठकर इक्कीसवीं सदी के साथ जुड़े हुए उज्ज्वल भविष्य की सतयुगी वातावरण के अवतरण की आशा सँजोये बैठे हैं।

युग सन्धि महापुरश्चरण की जो क्रिया पद्धति इन दिनों चल रही हे उसमें आवश्यक साधना, उपासना, सृजनात्मक संरचना के साथ साथ वह संकल्प भी क्रियान्वित किये जाने का ताना-बाना बुना जा रहा है जिसमें एक लाख संगठन, समारोह तथा एक करोड़ सृजन शिल्पी सम्मिलित किये जाने की योजना भी समग्र तत्परता के साथ चल रही हैं।

विचार उतरा कि एक स्थान पर इतना बड़ा आयोजन करने पर प्रयोग कुम्भ जैसे अनेकों समारोह एकत्रित करने जैसी व्यवस्था बनानी होगी, साधन जुटाने होंगे और पर्यावरण पर जो प्रदूषण का दबाव पड़ेगा, वह सारी व्यवस्था लड़खड़ा देगा। इतने बड़े मेले में सम्मिलित लोग परस्पर परिचित एवं संगठित भी न हो सकेंगे। घुल-मिल भी न सकेंगे और भविष्य की वैसी रूप घुल-मिल भी न सकेंगे और भविष्य की वैसी रूप रेखा भी न बन पायेगी जैसे कि सन् ५८ के सहस्रकुण्डीय यज्ञ के साथ छः हजार शाखाओं और एक लाख कार्यकर्ताओं का हाथों हाथ गठन बन पड़ा था। व्यवस्था की भी एक सीमा होती है। जहाँ अतिशय की भी एक सीमा होती है। जहाँ अतिशय का अतिवाद हाथ में लिया जाता है वहाँ उपयोगिता घटती और अव्यवस्था फैलती है।

इस कठिनाई पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के उपरान्त मार्गदर्शक सत्ता ने सुझाया है कि यह अधिक अच्छा होगा कि एक स्थान पर इतना बड़ा समारोह न करके उसे खण्डों में विभाजित कर दिया जाय और अनेकों केन्द्रों में उनकी शक्ति और सामर्थ्य के अनुरूप महान संकल्प को छोटे-छोटे खण्डों में कार्यान्वित किया जाय। पूर्णाहुति का गगन-चुम्बी कार्यक्रम सीमित आयोजनों में सम्पन्न किया जाता रहे। यह पूर्णाहुति हर साल हो या कई वर्ष बाद एक बड़े समारोह के रूप में कार्यान्वित की जाय, यह केन्द्रों की परिस्थितियों को देखते हुए निश्चय होता रहेगा।

इन दिनों २४०० विनिर्मित प्रज्ञापीठें हैं। जिनमें दर्शनीय और कीमती इमारतें बनी हुई हैं। जहाँ नियमित रूप से निर्धारण गतिविधियों का सूत्र संचालन होता है। इसके अतिरिक्त नवनिर्मित २४ हजार केन्द्रों की व्यवस्था भी की जा रही है। यह सचल स्तर के होंगे। जहाँ ज्ञानरथ चलेंगे जहाँ तीर्थयात्रा के साइकिल जत्थे निकलेंगे, जहाँ साप्ताहिक सत्संगों के निर्धारण क्रियान्वित होंगे। वे भव्य इमारतों के रूप में दृष्टिगोचर भले ही न हों, पर उपयोगिता की दृष्टि से यह चल स्थिति अचल निर्माणों से किसी भी प्रकार कम न होगी। विश्वासपूर्वक प्रयत्न चल रहा है कि न केवल पिछले २४०० प्रज्ञापीठ भी उपयोगिता की दृष्टि से अपने को अधिक शक्तिशाली सिद्ध करें। यह चल अचल केन्द्रों की संख्या पच्चीस हजार से अधिक हो जाती हैं।

योजना यह चल रही है कि एक लाख आयोजनों और एक करोड़ भागीदारों को इन नये पुराने प्रज्ञा केन्द्रों को आबंटित कर दिया जाय। इससे देश के कोने कोने में नवजागरण का आलोक प्रसारित होगा और एक स्थान पर इतना दबाव एकत्रित न होगा जो अव्यवस्था पैदा करे और असाधारण रूप से भारी पड़े। यह विभाजन-आबंटन योजना इन दिनों पूरे उत्साह के साथ क्रियान्वित की जा रही है और केन्द्रों की हर इकाई अपनी भागीदारी निर्धारित करने के लिए पूरी दौड़ धूप कर रही है।

इस विभाजन प्रक्रिया की सरलता को देखते हुए भी आशा की गई है कि एक लाख केन्द्रों और एक करोड़ भागीदार बनाने के पूर्व निर्धारण को नई रीति नीति के आधार पर कई गुनी संख्या में फलित होने का अवसर मिलेगा। इतने सृजनशिल्पी सन् २००० तक विनिर्मित हो जायेंगे। जो इक्कीसवीं सदी के अवतरणों में भागीरथी भूमिका निबाह सके। स्वयं धन्य बन सकें, योजनाकारी श्रद्धा को सन्तुष्ट कर सकें और यह भी दिखा सकें कि दैवी मार्गदर्शन में चलने वाले प्रयास युग परिवर्तन जैसे असाधारण असंभव लगने वाले कार्य को मनुष्यों के सहारे ही साधारण और संभव बना सकते हैं।


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