विशेष लेख माला-१३ - सृजन शिल्पियों का समर्थ शिक्षण

April 1990

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शिक्षा के नाम पर साक्षरता से लेकर सामान्य काम काज में आने वाली जानकारियों का प्रशिक्षण तो वर्तमान स्कूल, कालेजों में भी होता है। इसलिए उसे ‘उदरपूर्णा’ भी नाम दिया जाता है। उस आधार पर नौकरी से लेकर अन्य अनेक प्रकार के व्यवसायों की योग्यता प्राप्त होती है। उस आधार पर लोग पैसा और प्रशिक्षण भी प्राप्त कर लेते हैं, पर व्यक्तित्व का विकास-परिष्कार जो इस प्रस्तुत शिक्षा परिधि से आगे की बात है, सहज उपलब्ध करने की कोई व्यवस्था कहीं दीख नहीं पड़ी।

प्राचीनकाल में व्यक्तित्व के विकास-परिष्कार को ही “विद्या” कहा जाता था। उसी की महिमा-महत्ता विद्यया मृतमश्नुते’ जैसी सूक्तियों में प्रकट की गई थी। उदरपूर्णा में काम आने वाली शिक्षा तो किसी भी तद्विषयक जानकार व्यक्ति या केन्द्र से उपलब्ध की जा सकती है, किन्तु विद्या की प्राप्ति के लिए प्रशिक्षक को स्तर ही नहीं प्रशिक्षण केन्द्र का वातावरण भी उच्चस्तरीय होना चाहिए। प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम भी ऐसा होना चाहिए जो मान्य जानकारियाँ ही उपलब्ध न कराये वरन् अन्तराल के उन मर्मस्थलों को भी विकसित करे, जहाँ व्यक्तित्व उद्भव का मूलस्रोत सन्निहित है।

उस स्तर की विद्या की उपलब्धि जहाँ से होती थी, उन केन्द्रों को गुरुकुल, आरण्यक, आश्रम, तीर्थ, आदि के नाम से जाना जाता था। ऐसा प्रबंध जुटा सकना हर किसी के बस में नहीं होता। उन्हें मूर्धन्य मनीषा के धनी ऋषि स्तर के अध्यापक ही विनिर्मित संचालित करते थे। इसलिए जहाँ तहाँ पाये जाने वाले उन केन्द्रों में स्थानीय, समीपवर्ती लोगों के अतिरिक्त सुदूर क्षेत्री के संसार भर के विद्यार्थी एकत्रित होते थे। उस बड़ी व्यवस्था को विश्वविद्यालय के नाम से जाना जाता था। नालन्दा और तक्षशिला विश्वविद्यालय ऐसी ही भूमिका निभाते थे। बौद्ध विहारों और अन्यान्य समर्थ तीर्थों में भी ऐसी ही व्यवस्था थी। उन्हीं खदानों से बहुमूल्य नर रत्न विनिर्मित होते थे। महामानव ढालने की टकसाल भी उन्हीं को कहा जाता था। इन्हीं केन्द्रों का महान कर्तृत्व था जिसने महामानवों को इतनी बड़ी सेना खड़ी कर दी थी, जिसने संसार व्यापी अनाचार से असाधारण गई। वही पुरुषार्थ कल्पित होकर ऐसा वातावरण विनिर्मित करता है जिसे अब भी सतयुग के रूप में स्मरण किया जाता है।

इन दिनों पुरातन महानता की विधि-व्यवस्था का प्रतिरूप कहीं दिखाई नहीं पड़ता। शिष्यों की कमी नहीं, पर विद्यालयों का महान उद्देश्य पूरा करा सकने वाले केन्द्र कहीं खोजने पर भी नहीं मिलते। कोई तब भी था जब इस महान परम्परा के पुनर्जीवन की महान आवश्यकता समझी गई थी ओर कई महामानवों ने अपने अपने ढंग से ऐसे विद्यालयों का नवनिर्माण करने के लिए अपनी-अपनी क्षमता को अपने ढंग से नियोजित किया था।

महामना बालाजी द्वारा स्थापित हिन्दू विश्वविद्यालय, गुप्त द्वारा स्थापित काशी विद्यापीठ, दोनों अरविंद द्वारा स्थापित कलकत्ते का नेशनल कॉलेज, का गुरुकुल-काँगड़ी राजा महेन्द्र प्रताप का प्रेम महाविद्यालय, टैगोर का शान्ति निकेतन आदि कुछ ही स्थापनाएँ अभीष्ट की पूर्ति के लिए बन पड़ीं। पर यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें से कितनी प्रतिभाएँ उन्नति, और वे तंत्र किस सीमा तक उद्देश्य की पूर्ति कर सके। महात्मा गाँधी, योगी अरविन्द, विक्षोभ आदि के अपने निजी संपर्क प्रवास प्रयोजन के लिए चले, और उनके किसी तक परिणाम भी निकले। इनमें गाँधी के सत्याग्रही ओर बुद्ध के परिव्राजक विशेष रूप से सिद्ध हुए जिनने प्रतिभाएँ भी निखारी और ऐसी योजनाएँ भी बनाई जिससे सामाजिक कल्पनाओं के कारगर समाधान भी निकले इसी श्रृंखला में एक अभिनव कड़ी शान्तिकुञ्ज हरिद्वार की जुड़ती है। वहाँ वातावरण, प्रशिक्षण एवं अध्यात्म साधना उपक्रम की तीनों व्यवस्था जुटाते हुए ऐसा प्रबंध किया गया है कि प्राचीन विश्वविद्यालयों की तरह सभी शिक्षार्थियों को बिना अमीर-गरीब के अन्तर के शिक्षा देने में सभी अनिवार्य सुविधाओं को प्राप्त करने का अवसर मिल सके। सभी छात्र निवास, भोजन प्रशिक्षण आदि की निःशुल्क सुविधाएँ प्राप्त करते हैं। अन्यथा मूल्य चुकाने की शर्त रहने पर मात्र अमीरों को ही उपयुक्त विद्या लाभ मिल पाता और निर्धनों को आत्म परिष्कार एवं परमार्थ प्रयोजनों के लिए कुछ कर सकने से सर्वथा वंचित ही रहना पड़ता। उपयुक्त साधनों के अभाव में ऐसे समर्थ विद्यालय हर कहीं स्थापित भी तो नहीं हो सकते थे। एक प्रकार से इसे बहुमुखी एवं समग्र विधारण्यक या मल्टीवर्सिटी कहा जा सकता है।

कहा जा चुका हैं कि युग परिवर्तन की प्रक्रिया की पीछे पूँजी, प्रतिभा संगठन आदि कोई प्रत्यक्ष दीख पड़ने वाली प्रतिभा शक्ति काम नहीं कर रही है। इतना बड़ी योजना जिसमें किसी देश और क्षेत्र का सुधार परिवर्तन नहीं, वरन् समूचे विश्व की चेतन और अचेतन स्तर की असंख्यों समस्याएँ जुड़ी हुई हैं, जिनकी जड़ें पाताल तक गहराई में घुसी हुई है कि उन्हें प्रभावित करना, बदलना में घुसी हुई है कि उन्हें प्रभावित करना, बदलना किसी भौतिक शक्ति का काम नहीं है, उसकी योजना और व्यवस्था बनाने में एक मात्रा दैवी शक्ति ही सफल हो सकती है, उसी के द्वारा समूचा नवनिर्माण से संबंधित ताना-बाना बुना जा सकता है। उसी शक्ति ने उद्गम-उद्भव केन्द्र के रूप में शान्तिकुञ्ज का चयन किया है। चम्बल, नर्मदा, गंगा, यमुना जैसी विशाल नदियों के उद्गम छोटे-छोटे हैं, पर आगे बढ़ने पर वे आश्चर्यजनक विस्तार पकड़ गये है। शान्तिकुञ्ज को भी गोमुख की तरह एक छोटा झरना कह सकते हैं, जिसके साथ गौरीकुण्ड या नियाग्राप्रपात जैसी सुविस्तृत संभावनाएँ जुड़ी हुई।

गंगा की गोद, हिमालय की छाया, सप्तऋषियों की तपोभूमि दिव्य वातावरण और अखण्ड दीप प्रज्ज्वलन, नित्य यज्ञ, युगसन्धि महापुरश्चरण की आधारशिला के साथ-साथ वहाँ अनायास ही ऐसा शिक्षण तंत्र बन गया है, जिसे चंदनवन, नन्दनवन की उपमा दी जा सकती है और कहा जा सकता है कि उसमें प्रवेश करने वाला जब लौटता है तो उसकी स्थिति ऐसे कायाकल्प जैसी हो जाती है, जिसकी तुलना वयोवृद्ध च्यवन का अश्विनी कुमारों के अनुग्रह से तरुण हो जाने से की जा सकती हैं।

शान्तिकुञ्ज की अपनी अनेक विशेषताएँ हैं, पर उनमें से प्रमुखता इसे दी जाती हैं कि उसने नालन्दा, तक्षशिला के समकक्ष बनने का प्रयत्न किया है। एक लाख प्रज्ञाकेन्द्र और एक करोड़ सृजनशिल्पी विनिर्मित करने और उन्हें युग देवता के चरणों में भावभरी श्रद्धाञ्जलि के रूप में प्रस्तुत करने का ऐसा संकल्प किया है, जिसके साकार एवं सार्थक होने के संबंध में आशंका नहीं की जा सकती। यहाँ अपने ढंग की ऐसी शिक्षा पद्धति चलती हैं, जिसमें पाठ्यक्रम ही पूरे नहीं कराये जाते, वरन् साधना एवं प्रेरणा के उभयपक्षीय प्रयत्नों से सामान्यों को असामान्य बना देने का प्रयत्न किया जाता है, टकसाल के सिक्कों और सीप के मोतियों की तरह।

युग परिवर्तन की मध्य-संध्या दस वर्षों की है। सन् १९७० से २००० तक इस केन्द्र से साहित्य सृजन, संगठन, एवं प्रचार-प्रसार परिवर्तन से लेकर सृजनशिल्पियों का सृजन इन क्रिया–कलापों में प्रमुख है। आश्रम में स्थान की कमी और सम्मिलित होने वाले भागीदारों की बहुलता को देखते हुए पाँच-पाँच दिने के छोटे-छोटे शिक्षण शिविर चला कर किसी प्रकार समाधान ढूँढ़ा गया है। इतने पर भी यह गुंजाइश रखी गई है कि जिनको अधिक देर टिकाना आवश्यक है उन्हें एक महीने तक के लिए रोक लिया जाय। सीखना और सिखाना वही है जिनसे भागीरथी वरिष्ठता अर्जित की जा सके। हनुमान, अंगद जैसा युगधर्म निबाहा जा सके।

प्रेरणाएँ, परामर्श, विचार-विनिमय के, समाधान के आधार पर उपलब्ध कराई जाती हैं। इसके लिए कोई निर्धारित पाठ्यक्रम नहीं है। व्यक्ति विशेष की आवश्यकता के अनुसार चिन्तन को इतना बदल देने का प्रयत्न किया जाता है कि उस आधार पर सामान्य को असामान्य और व्यक्ति को दिव्य स्तर का बनाया जा सके। यह प्रयोग इतना सफल हुआ है कि मिशन के कार्यकर्ता देश-विदेश के कोने-कोने में छाये देखे जा सकते हैं। यह प्रेरणा पक्ष हुआ।

इसके साथ ही साधना की ऐसी प्रक्रिया थी जुड़ी हुई है जिसे युग साधना या सामयिक तपश्चर्या कहा जा सकता हैं। नित्य गायत्री जप उदित होते सत्ता का स्वर्णिम ध्यान, नित्य यज्ञ अखण्ड-द्वीप का सान्निध्य, दिव्य नाद की अवधारणा, आत्मदेव की साधना सहगान कीर्तन जैसे अनेक प्रयोग ऐसे है जो सम्मिलित रूप से युग साधना की आवश्यकता पूरी करते हैं। तपाकर खरा सोना बनाने में बहुत हद तक सफल होते हैं। सूर्यतापी गंगाजल से बना हुआ हविष्यान्न यहाँ का भोजन रूपी प्रसाद है। आश्रम की परिधि में पाँच दिनों तक उसी प्रकार बिना दौड़-धूप के एकनिष्ठ रहना पड़ता है जैसा कि माता के गर्भ में नियत अवधि तक भ्रूण पकता है। संचित कुसंस्कारों के प्रायश्चित परिमार्जन के रूप में जो कुछ करना पड़ता है उसे सामर्थ्य अनुसार नवसृजन की लोक सेवा में निरत रहने के रूप में जाना जा सकता है।

सोचा यह गया है कि जिस प्रकार कभी हर राजपूत के घर से एक सैनिक, हर ब्राह्मण के घर से एक परिव्राजक, हर लोकसेवी परम्परा के परिवार से एक समर्पित शिष्य निकला करता था, उसी प्रकार अब हर सुसंस्कारी परिवार से एक सृजन शिल्पी निकलने की परम्परा चल पड़े। उसके घरेलू उत्तरदायित्व परिवार के अन्य सदस्य मिलजुल कर पूरा करें। इस निमित्त आश्रम में गृह उद्योगों की भी एक सुनिश्चित शिक्षणशाला है जिसमें वह सिखाया जाता है जिसके आधार पर हर परिवार स्वावलंबनपूर्वक अपना खर्च चला सके और एक व्यक्ति की आर्थिक जिम्मेदारियाँ अपने कन्धों पर वहन कर सके।

मिशन दिन-दिन मत्स्यावतार की तरह अपना कलेवर निरन्तर बढ़ाता चला जाता है। इसलिए संपर्क परिकर के सदस्यों का आश्रम में निरन्तर आते जाते रहना स्वाभाविक है। उनके ठहरने और भोजन का प्रबंध भी असाधारण रूप से अधिकाधिक बढ़ाना पड़ रहा है। इसलिए पिछले दिनों वाले रसोईघर से काम नहीं चला अब उसे आधुनिक यंत्र उपकरणों से इस प्रकार सुसज्जित कर दिया गया है कि हर दिन हजारों का ठहरना और भोजन पाना कठिन न रहे। आश्रम में स्थाई रूप से रहने वाले लगभग पाँच सौ कार्यकर्ता है। मिलजुल कर श्रमदान से उन सब कार्यों को सेवा साधना के आधार पर पूरा कर लेते हैं, जिनके लिए यदि कर्मचारी रखने पड़ते तो उनका व्यय भार असंभव हो जाता। यहाँ की गरिमा तो गिरती ही।

शान्तिकुञ्ज की और भी कई अद्भुत विशेषताएँ हैं। जड़ी बूटी उद्यान और अनुसंधान के सहारे आयुर्वेद का पुनर्जीवन, शोध संस्थान द्वारा मनोविकारों का निष्कासन और प्रतिभा परिवर्धन के अदृश्य स्रोतों का रहस्योद्घाटन यह दोनों ही प्रयोग ऐसे है जिनके सहारे अभीष्ट शारीरिक-मानसिक परिष्कार में असाधारण सहायता मिलती है। यह दोनों तंत्र जैसी सफलता अर्जित कर रहे हैं उसे देखने के लिए देश के कोने-कोने से अगणित मनुष्य इसलिए आते है कि अध्यात्म आधार को लेकर व्यक्ति का सर्वतोमुखी परिष्कार सचमुच बन पड़ सकता है।

इक्कीसवीं सदी उज्ज्वल भविष्य के अनेक पक्षों पर प्रकाश डालने वाला सर्वसुख साहित्य भी इसी आश्रम में छपता रहता है जिसके लिए एक छोटा प्रेस लगा है जिसमें मिलजुल कर ही प्रचार साहित्य छपता रहता है जो श्रमदान की सेवा साधना जड़ जाने के कारण सस्ता भी पड़ता है और प्रचार प्रयोजन में सहायक भी सिद्ध होता हैं।

नित्य का साँस्कृतिक कार्यक्रम, प्रखर प्रवचन, तीर्थ यात्रा योजना का प्रशिक्षण, स्लाइड प्रोजेक्टर ऑडियो टेप, वीडियो स्तर के कैसेट आदि मशीन उपकरणों की एक वैज्ञानिक कक्षा अलग से चलती रहती है जिसमें यांत्रिक प्रचार प्रक्रिया की आवश्यकता पूरी होती रहती है। इन्हें दर्शक देखते और शिक्षार्थी सीखते हैं।

पत्राचार विभाग द्वारा व्यापक संख्या में सृजन शिल्पियों का मार्गदर्शन चलता रहता है। इसके लिए आश्रम में ही एक पोस्ट ऑफिस भी है। आश्रम की प्रचार जीपें निरन्तर देश व्यापी दौरे पर रहती है ताकि छोटे-बड़े आयोजनों और सम्मेलनों की आवश्यकता भी क्रमबद्ध रूप से पूरी होती रहे। यह क्रम वर्ष भर चलता रहता है।


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